भाटबहियाँ राजस्थान के शासकों के आश्रित बहीभाटों द्वारा लिखी गई थीं। इन भाटबहियों में सैंकड़ों साल का इतिहास लिखा हुआ है। इस इतिहास में बहीभाटों ने अपने आश्रयदाताओं की वंशावलियों के साथ-साथ उनके द्वारा किए गए महत्वपूर्ण कार्यों का भी भी उल्लेख किया गया है।
बहीभाटों ने भाटबहियाँ लिखकर राजस्थान के राजपूत राजाओं एवं सामंतों के इतिहास एवं वंशावलियों को सदियों तक अक्षुण्ण बनाये रखा किंतु फिर भी भाटबहियाँ आधुनिक इतिहास लेखन की दृष्टि से उपयोगी एवं विश्वसनीय नहीं मानी जातीं।
हालांकि इस तथ्य से भी इन्कार नहीं किया जा सकता कि आज राजस्थान के इतिहास का अधिकांश भाग इन्हीं भाटबहियों के आधार पर खड़ा किया गया है। भाटबहियों में लिखित तथ्यों एवं वंशावलियों को सिक्कों, शिलालेखों एवं फारसी तवारीखों आदि से मिलान करके शुद्ध इतिहास बनाने का प्रयास किया गया है।
अतः यदि यह कहा जाए कि यदि आधुनिक इतिहासकारों को भाटबहियाँ उपलब्ध नहीं हुई होतीं तो राजस्थान का इतिहास कई प्रकार से अपूर्ण एवं अशुद्ध ही रह जाता, तो इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज भी राजस्थान के बहुत से राजाओं का इतिहास केवल भाटबहियों से ही प्राप्त किया जा सका है। उनके बारे में और किसी स्रोत से जानकारी नहीं मिलती।
भाटबहियाँ – अविश्वसनीयता के कारण
भाटबहियों की अविश्वसनीयता के मुख्य कारण इस प्रकार हैं-
शासकों की मनोवृति
समस्त राजपूत शासक भाटों से यह अपेक्षा करते थे कि भाट अपने आश्रयदाता के चरित्र, वंश एवम् कुल का वर्णन अतिश्योक्ति पूर्ण ढंग से करे। राजपूत शासक अपने कुल के प्रधान होते थे और कुल के बहीभाटों को उनकी मनोवृत्ति के अनुसार यशोगायन करना पड़ता था, ऐसा नहीं करने पर भाटों की वैसी ही दशा होती जैसी कि बूंदी के महाराव रामसिंह बूंदी ने वंशभास्कर के रचयिता सूरजमल मिश्रण की की थी।
राजपूत युग संघर्षमय युग था जिसमें राजपूतों को विदेशियों से निरन्तर लोहा लेना पड़ रहा था। विदेशियों के समक्ष राजपूतों को बार बार पराजय का सामना करने के कारण राजपूत मनोबल लड़-खड़ाने लगा था। ऐसे युग में भाटों ने अतिश्योक्ति पूर्ण वर्णन करके उनको संघर्ष करने की प्रेरणा प्रदान की।
आजीविका का प्रश्न
भाटों को अपनी आजीविका सुरक्षित रखने के लिये शासकों की उपलब्धियों का यशोगान अतिरंजना पूर्ण भाषा में करके उन्हें प्रसन्न रखना अनिवार्य था। भाटों का अस्तित्व शासक द्वारा दिये गये दान तथा मान पर ही निर्भर करता था। कुल के अन्य जन भी शासक के अनुकरण पर ही भाटों के साथ व्यवहार करते थे।
इसके अतिरिक्त भाटों का भरण-पोषण तथा जीवन की सभी मूलभूत आवश्यक्ताओं की पूर्ति भी राजपूत समाज द्वारा ही होती थी। अतः नैतिक दृष्टिकोण से भी राजपूत सामन्ती जीवन के यथार्थ का वर्णन करना भाटों के लिये सम्भव नहीं था।
भाटों की साहित्यिक रुचि
भाटों ने अपने आश्रयदाता के इतिहास को अधिक प्रभावकारी बनाने हेतु छन्दबद्ध रूप में लिखना प्रारम्भ किया। भाटों की इस प्रवृत्ति के कारण उनकी कृतियों में अलंकृत भाषा एवम् भाव दोनों का उपयोग प्रचुर मात्रा में हुआ और उनके द्वारा निर्मित इतिहास अतिश्योक्ति पूर्ण हो गया।
अनुपयोगी नहीं हैं भाटबहियाँ
भले ही आधुनिक काल के इतिहासकारों ने भाटबहियों के महत्व को अधिक स्वीकार नहीं किया हो, किंतु आज भी यदि किसी बिंदु पर आकर इतिहासकार को कुछ भी तथ्य नहीं मिलता, तो भाटबहियाँ ही इतिहासकार को मार्ग दिखाती हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता