तिमनगढ़ दुर्ग करौली जिले में मासलपुर के निकट बना हुआ है। यह दुर्ग बयाना से 15 किलोमीटर दूर है एवं करौली जिले के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में स्थित है। यह दुर्ग अरावली की पहाड़ियों के बीच में, समुद्रतल से 1309 फुट की ऊंचाई पर निर्मित है। तिमनगढ़ नौ किलोमीटर की लम्बाई-चौड़ाई में फैला हुआ है।
मध्यकाल में तिमनगढ़ दुर्ग में एक छोटा किन्तु समृद्ध नगर स्थित था और मूर्तियों के खजाने के रूप में विख्यात था। कुछ इतिहासकार तिमनगढ़ को रणथम्भौर दुर्ग से भी प्राचीन बताते हैं।
जब अबूवक्र कंधारी के जबरदस्त हमले से विजयचन्द्रगढ़ (विजयमंदिर गढ़) में भीषण रक्तपात के पश्चात महाराजा विजयपाल की मृत्यु हो गई तो उनके उत्तराधिकारियों को विजयचन्द्रगढ़ छोड़कर भागना पड़ा। विजयपाल के दूसरे राजकुमार गजपाल ने बयाना से भागकर गजगढ़ को आबाद किया।
त्रिहूण पाल (तहनपाल तथा तिमनपाल), विजयपाल का ज्येष्ठ पुत्र था। पिता की मृत्यु के पश्चात वह दो साल तक अज्ञात अवस्था में भटकता रहा। लोक किंवदन्ती के अनुसार एक दिन राजा तहनपाल को मेंढकी दास नामक साधु मिला जिसने तहनपाल को खोया हुआ राज्य प्राप्त करने के आशीर्वाद के साथ-साथ पारस पत्थर प्रदान किया।
साधु ने राजा से कहा कि अपना भाला लेकर सीधे चले जाओ। पीछे मत देखना। जहाँ तुम्हारा घोड़ा रुक जाये, वहीं इस भाले को गाढ़ देना। वहाँ से अविरल जल बहेगा। उसी के किनारे पर तुम अपने राज्य की नींव रखना।
तिमनपाल ने ऐसा ही किया। एक जंगल में एक पहाड़ी की तलहटी में जाकर घोड़ा रुक गया, राजा ने वहीं पर अपना भाला गाढ़ दिया तथा विक्रम संवत 1105 (ईस्वी 1049) में अपने नये राज्य की नींव डाली। महमूद गजनवी के आक्रमणों से बचने के लिए यह दुर्ग पहाड़ियों में काफी अन्दर बनाया गया।
दस साल के अथक परिश्रम के बाद यह दुर्ग बनकर तैयार हुआ। इसे त्रिपुरार नगरी के नाम से भी सम्बोधित किया गया। तिमनपाल ने अपने बाहुबल से डांग क्षेत्र पर अधिकार किया और अलवर, भरतपुर एवं चम्बल क्षेत्र के साथ-साथ धौलपुर तक का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिया।
बत्तीस साल के शासन के बाद ई.1090 में तिमनपाल की मृत्यु हुई। तिमनपाल की मृत्यु के बाद उसके उत्तराधिकारियों में राज्याधिकार को लेकर झगड़ा हुआ। इस कारण धर्मपाल त्रिपुरार छोड़कर चला गया तथा उसका भाई हरपाल तिमनगढ़ राज्य का शासक हुआ। उसके काल में यवनों के आक्रमण बढ़ गये। हरपाल बहादुरी से आक्रमणकारियों को खदेड़ता रहा।
जब हरपाल वृद्ध हुआ तो धर्मपाल के बड़े लड़के कुंवरपाल ने राज्य की बागडोर संभाली। वह आस-पास के क्षेत्रों को जीतता हुआ बयाना पर भी अधिकार जमाने में सफल रहा। सम्वत् 1157 में कुंवरपाल बयाना और त्रिपुरार नगरी का शासक बना।
ई.1196 में मुहम्मद गौरी ने यादवों के राज्य पर हमला किया। यादवों ने घनघोर संग्राम किया किंतु उन्हें बयाना और तिमनगढ़, मुहम्मद गौरी को समर्पित करने पड़े। इस लड़ाई में राजा धर्मपाल रणखेत रहा। अधिकतर राजपूत सैनिक भी लड़ाई में काम आ गए। दुर्ग की स्त्रियों ने जौहर किया।
दुर्ग में जगनपौर के भीतर, सामने वाली छतरी के अन्दर एक शिलालेख लगा है जिसका आधा भाग दीवार में है। इसमें संवत् 1244 पूष सुदी 15 पूनो लिखा है, नीचे घोड़े का चिन्ह् अंकित है। इससे अनुमान होता है कि वि.सं. 1244 में कुंवरपाल ने इसे पुनः हस्तगत कर लिया। उसी विजय के उपलक्ष्य में यह लेख लम्बे स्तंभ पर खुदवाया गया होगा।
मुसलमानों के समय में त्रिपुरार नगरी को इस्लामाबाद के नाम से पुकारा जाता था। बाबर के समय में आलम खां इस किले का गर्वनर रहा।
राजा धर्मपाल के बेटे कुंवरपाल ने गौलारी में एक दुर्ग बनाया जिसका नाम कुंवरगढ़ रखा गया। तिमनपाल के दो पुत्रों ने सिनसिनी (भरतपुर) तथा कुंवरगढ़ (झिरी भोमपुरा) आबाद किए तथा तीसरा पुत्र अजयपाल अपने पिता की पराजय का बदला लेते हुए कंधार में काम आया।
तिमनगढ़ दो भागों में विभक्त है जो क्रमशः जगन पौर और सूर्य पौर के नाम से जाने जाते हैं। मुख्य बाजार फर्शबन्दी का है। इस फर्शबन्दी के दोनों ओर लगभग साठ दुकानों के अवशेष हैं। नीचे चलकर गणेश तथा महावीर की प्रतिमाएं लगी हैं।
दीवारों में लगी अनेक भीमकाय मूर्तियां, जो अधिकतर खण्डित हैं, आज भी दर्शकों को आकर्षित करती हैं। इस दुर्ग में दो दरवाजे और चार खिड़कियां अवशेष के रूप में हैं। अंदर किले में ननद-भौजाई के कुंए, राजागिरि, पक्का बाजार, तेल-कुंआ, बड़ा चौक, आम खास, प्रासाद, मंदिर, किलेदार के महल, खास महल, प्रधान छतरियां और उनसे जुड़े भीतरी गर्भगृह तथा तहखाने देखने योग्य हैं। यहाँ की मूर्तियां बड़े स्तर पर चोरी हुईं तथा विदेशों में बेच दी गईं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता