सिवाना दुर्ग बालोतरा जिले में स्थित है। टोलेमी ने रेगिस्तान के बीच स्थित पहाड़ियों में भावलिंगों के एक नगर ‘जोआना’ का वर्णन किया है। यह जोआना वास्तव में सिवाना है।
सिवाना दुर्ग के दुर्ग के निर्माता
सिवाना की स्थापना विक्रम संवत् 1011 (ईस्वी 954) में परमार राजा भोज के पुत्र वीर नारायण ने की थी।
सिवाना दुर्ग का नामकरण
वीर नारायण ने इस दुर्ग का नामकरण कुमथाना किया था। सिवाणा दुर्ग की पहाड़ी पर कूमट नामक झाड़ी बहुतायत में मिलती थी जिससे इसे कूमट दुर्ग भी कहते थे।
सिवाना दुर्ग की श्रेणी
यह दुर्ग विशाल रेगिस्तानी क्षेत्र के बीच स्थित एक विशाल एवं ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। इस कारण इसे धान्वन दुर्ग एवं गिरि दुर्ग दोनों श्रेणियों में रखा जाता है। निर्माण के समय इस दुर्ग के चारों ओर घना जंगल था, इस कारण यह ऐरण दुर्ग की श्रेणी में भी आता था। इसके चारों ओर ऊंचा परकोटा है, इसलिये यह एक पारिघ दुर्ग है। यह जालोर दुर्ग का सहाय दुर्ग था।
सिवाना दुर्ग की सुरक्षा
तारीखे अलाई में अल्लाउद्दीन खिलजी ने सिवाना आक्रमण के वर्णन में सिवाना दुर्ग का उल्लेख इस प्रकार किया है- ‘सिवाना दुर्ग एक भयानक जंगल के बीच स्थित था। जंगल जंगली आदमियों से भरा हुआ था जो राहगीरों को लूट लेते थे। इस जंगल के बीच पहाड़ी दुर्ग पर काफिर सातलदेव, सिमुर्ग (फारसी पुराणों में वर्णित एक भयानक एवं विशाल पक्षी) की भांति रहता था और उसके कई हजार काफिर सरदार पहाड़ी गिद्धों की भांति उसकी रक्षा करते थे।’
दुर्ग तक पहुंचने का मार्ग
दुर्ग तक पहुँचने का मार्ग अत्यंत दुर्गम है। अब तो दुर्ग में जाने के लिये पक्की सड़क उपलब्ध है।
सिवाना दुर्ग का स्थापत्य
दुर्ग में कल्ला रायमलोत का थड़ा, महाराजा अजीतसिंह का दरवाजा, कोट, हलदेश्वर महादेव का मंदिर आदि दर्शनीय हैं। आजादी के बाद राजस्थान सरकार ने इस दुर्ग की मरम्मत करवाई है।
सोनगरों के अधिकार में
परमारों के बाद यह दुर्ग चौहानों के अधीन हुआ। ई.1181 में नाडोल का चौहान राजकुमार कीतू, जालौर दुर्ग पर अधिकार जमाने में सफल रहा। जालोर दुर्ग को स्वर्णगिरि दुर्ग भी कहते थे। इसलिये कीतू के वंशज सोनगरा चौहान कहलाये। इन्हीं सोनगरों ने किसी काल में सिवाना दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। चौदहवीं शताब्दी के आरम्भ में यह दुर्ग जालोर के सोनगरा चौहान शासक कान्हड़देव के भतीजे सातलदेव के अधिकार में था।
खिलजी का आक्रमण और सिवाना का साका
ई.1308 में जब अलाउद्दीन जालोर पर आक्रमण करने के लिये रवाना हुआ तो सातलदेव ने उसका मार्ग रोका और कहलवाया कि जालोर पर आक्रमण बाद में करना, पहले सिवाना से निबट। इस पर विवश होकर अलाउद्दीन खिलजी ने सिवाना का रुख किया। सातलदेव की सेना ने गुरिल्ला युद्ध करके खिलजी सेना को बहुत छकाया।
अलाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग के निकट ऊँंचे पाशीब बनवाये तथा अपने सैनिकों को उस पर चढ़ा दिया। सातलदेव की सेना ने दुर्ग प्राचीर से ढेंकुलियों की सहायता से शत्रु-सैन्य पर पत्थर बरसाये। इस प्रकार अलाउद्दीन खिलजी के समस्त दांव विफल हो गये। अंत में अलाउद्दीन खिलजी ने भायला पंवार नामक एक व्यक्ति को अपनी ओर फोड़ लिया तथा उसकी सहायता से दुर्ग में स्थित प्रमुख पेयजल स्रोत में गाय का रक्त एवं मांस मिलवा दिया। इससे दुर्ग में पेयजल की कमी हो गई।
सातलदेव ने साका करने का निर्णय लिया। दुर्ग में स्थित स्त्रियों ने जौहर किया तथा हिन्दू सैनिक, दुर्ग के द्वार खोलकर एवं हाथों में तलवारें लेकर दुर्ग से निकल पड़े। भयानक संघर्ष के बाद समस्त हिन्दू वीर रणक्षेत्र में ही कट मरे और दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार हो गया।
कान्हड़दे प्रबंध में लिखा है कि जब सातलदेव का विशाल शरीर धरती पर गिर गया तब अलाउद्दीन खिलजी स्वयं उसके शव को देखने आया। उसे सातलदेव के शरीर के विशाल आकार को देखकर बहुत आश्चर्य हुआ। अल्लाउद्दीन खिलजी ने दुर्ग को एक मुस्लिम गवर्नर के सुपुर्द कर दिया तथा दुर्ग का नाम खैराबाद रखा।
राठौड़ों के अधिकार में
जब राठौड़ मरुस्थल में आये, तब राव मल्लीनाथ के भाई जैतमाल ने सिवाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया। ई.1538 में राव मालदेव ने सिवाणा के शासक राठौड़ डूंगरसी को परास्त करके दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस आशय का एक शिलालेख भी दुर्ग में लगा हुआ है। मालदेव ने दुर्ग का परकोटा बनवाया तथा सुरक्षा के अन्य प्रबंध भी किये।
तारीख-ए-शेरशाही के अनुसार जोधपुर नरेश राव मालदेव, शेरशाह सूरी से परास्त होकर सिवाना की पहाड़ियों में भाग आया और यहाँ के दुर्ग में शरण ली। अकबर के समय जोधपुर नरेश चन्द्रसेन का इस दुर्ग पर अधिकार था। जब अकबर ने चन्द्रसेन को जोधपुर छोड़ने पर विवश कर दिया तब चन्द्रसेन सिवाना चला आया।
मुगलों के अधिकार में
तबकात-ए-अकबरी एवं अकबरनामा के अनुसार अकबर के सेनापतियों शाह कुली खां, जलाल खां, बीकानेर नरेश रायसिंह तथा शाहबाज खां ने सिवाना दुर्ग पर आक्रमण किया ताकि राव चंद्रसेन को मारा या पकड़ा जा सके। अकबर के सेनापति कई माह तक सिवाना दुर्ग पर घेरा डाले रहे। राठौड़ों द्वारा किये गये हमले में अकबर का सेनापति जलाल खां मारा गया किंतु अन्ततः शाहबाज खां दुर्ग हासिल करने में सफल हो गया।
पुनः राठौड़ों के अधिकार में
कुछ समय पश्चात् अकबर ने सिवाना दुर्ग मालदेव के अन्य पुत्र रायमल को दे दिया। जब रायमल की मृत्यु हो गई तो अकबर ने यह दुर्ग रायमल के पुत्र कल्याणदास को दे दिया जो इतिहास में कल्ला रायमलोत के नाम से प्रसिद्ध है।
अकबर की सेवा में रहते हुए कल्ला रायमलोत बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ के सम्पर्क में आया। एक बार कल्ला रायमलोत बीकानेर गया और उसने पृथ्वीराज राठौड़ से अनुरोध किया कि मैं धरती के लिये युद्ध करता हुआ वीरगति को प्राप्त करूंगा। इसलिये आप मेरी प्रशंसा में एक कवित्त बनाकर मुझे आज ही सुना दें। इस पर पृथ्वीराज राठौड़ ने एक सुंदर कविता की रचना की जो आज भी डिंगल भाषा की अनुपम धरोहर है।
एक बार अकबर ने अपने दरबार में बूंदी के राव सुरजन हाड़ा से कहा कि हमारी इच्छा है कि आपकी पुत्री का विवाह शहजादे सलीम से हो। अकबर का प्रस्ताव सुनकर हाड़ा हक्का-बक्का रह गया। भरे दरबार में बादशाह के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना उसके बूते की बात नहीं थी। उसने सहायता के लिये दरबार में दृष्टि दौड़ाई। सभी हिन्दू राजा-महाराजा नजरें नीची करके खड़े थे किंतु सिवाना का कल्ला रायमलोत निर्भीकता से मूंछों पर ताव देते हुए हाड़ा की तरफ देख रहा था।
कल्ला से दृष्टि मिलते ही हाड़ा को बचाव का रास्ता मिल गया। हाड़ा ने कहा, मेरी बेटी की सगाई हो चुकी है। बादशाह ने पूछा कि किसके साथ आपकी बेटी की सगाई हुई? इससे पहले कि हाड़ा कुछ बोले, कल्ला ने अपनी मूंछों पर ताव देते हुए कहा- ‘मेरे साथ जहाँपनाह।’ समस्त दरबारियों सहित बादशाह भी समझ गया कि इस बात में सच्चाई नहीं है किंतु स्वाभिमान की चौखट पर खड़े हिंदू राजाओं की बात को अभिमानी बादशाह नहीं काट सका।
एक हिंदू नारी की अस्मिता की रक्षा के लिये अकबर के दरबार में दिखाये गये इस साहस का भुगतान कल्ला रायमलोत को अपनी जान चुका कर करना पड़ा। अकबर के आदेश पर जोधपुर नरेश मोटा राजा उदयसिंह ने सिवाना पर आक्रमण किया। जब दुर्ग की रक्षा का कोई उपाय नहीं रहा तो कल्ला रायमलोत ने साका करने का निर्णय लिया। कल्ला की नवविवाहित हाड़ी रानी जो कि बूंदी के राव सुरजन हाड़ा की पुत्री थी, के नेतृत्व में जौहर का आयोजन किया गया।
कल्ला रायमलोत युद्ध क्षेत्र में वीर गति को प्राप्त हुआ। मान्यता है कि सिर कट जाने पर भी कल्ला का धड़ लड़ता रहा। इसलिये इन्हें लोक देवता के समान पूजा जाता है। सिवाना के दुर्ग में इनका थान बना हुआ है। अब यहाँ प्रतिवर्ष एक समारोह भी होता है। कल्ला से अकबर की नाराजगी का यह भी कारण बताया जाता है कि एक बार कल्ला ने क्रोधित होकर अकबर के किसी छोटे मनसबदार को मार दिया था।
कल्ला जोधपुर के मोटा राजा उदयसिंह से भी इस बात को लेकर झगड़ा करता था कि उदयसिंह ने अपनी पुत्री जगत गुसाईं का विवाह अकबर से किया था। स्वाभाविक ही है कि ऐसी स्थिति में अकबर और उदयसिंह दोनों ही कल्ला से नाराज हो जाते। कल्ला के रणखेत रह जाने के बाद मोटा राजा उदयसिंह ने सिवाना दुर्ग पर अधिकार कर लिया। तब से लेकर स्वतंत्रता प्राप्ति तक यह दुर्ग जोधपुर राज्य के अधीन बना रहा।
सिवाना नगर के प्रवेश द्वार पर एक लेख लगा हुआ है जिसमें लड़कियों को न मारने की राजाज्ञा उत्कीर्ण है।
सिवाणा दुर्ग के बारे में कहा गया है-
किलो अणखलो यूं कहे, आव कला राठौड़।
मो सिर उतरे मेहणो, तो सिर बांधे मौड़।।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता