मारवाड़ के इतिहास की शान कहे जाने वाले वीर दुर्गादास राठौड़ का जोधपुर राजवंश एवं जोधपुर की प्रजा पर इतना बड़ा उपकार है कि उन्हें हिन्दू जाति का तारनहार माना जाता है।
राठौड़ राजवंश तथा जोधपुर के विशाल हिन्दू राज्य को औरंगजेब जैसे दुर्दांत मुगल बादशाह की दाढ़ में पिसकर नष्ट होने से बचाने का श्रेय वीर दुर्गादास तथा उसके साथियों को है। वीर दुर्गादास के के बारे में कहा जाता है-
डंबक-डंबक ढोल बाजे, दे-दे ठौर नगारा की
आसे घर दुर्गो नहीं होतो, होती सुन्नत सारां की।
अर्थात् यदि आसकरण के यहां वीर दुर्गादास ने जन्म नहीं लिया होता तो मारवाड़ के समस्त हिन्दुओं की सुन्नत होती।
वीर दुर्गादास राठौड़, शिशुराजा अजीतसिंह को न केवल औरंगजेब की कैद से निकालकर जोधपुर लाए अपितु पूरे तीस साल तक औरंगजेब की सेनाओं से गुरिल्ला युद्ध करते रहे और तब तक घोड़े की पीठ से नहीं उतरे जब तक कि अजीतसिंह जोधपुर का राजा नहीं बन गया।
स्वामिभक्त, वीर एवं शक्तिपुंज वीर दुर्गादास राठौड़ को अपने जीवन के अंतिम वर्ष जोधपुर राज्य से बाहर निकालने पड़े।
कहा जाता है कि महाराजा अजीतसिंह ने दुर्गादास को देश निकाला दिया। इस वीडियो में हम इतिहास की इसी विचित्र घटना के बारे में जानकारी प्राप्त करेंगे।
ई.1707 में जब औरंगजेब की मृत्यु हुई तो महाराजा अजीतसिंह ने अपनी सेना लेकर अपने पुरखों की राजधानी जोधपुर को घेर लिया। बहुत से मुगलों को मार डाला गया। बहुत से मुगलों को जान बचाकर भाग जाने की छूट दी गई। इस प्रकार जोधपुर नगर एवं दुर्ग पर फिर से राठौड़ों का अधिकार हो गया।
महाराजा अजीतसिंह ने दुर्गादास को राज्य का प्रधानमंत्री बनाना चाहा किंतु दुर्गादास ने मना कर दिया। महाराजा अजीतसिंह तथा वीर दुर्गादास दोनों ही वीर, स्वाभिमानी एवं स्वतंत्र विचारों के स्वामी थे।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि संभवतः इसलिए दुर्गादास ने जोधपुर राज्य के प्रधानमंत्री का पद स्वीकार नहीं किया क्योंकि वे जानते थे कि महाराजा अजीतसिंह के तेज स्वभाव के कारण उनके नीचे अधिक समय तक कार्य करना संभव नहीं होगा। कुछ समय बाद दुर्गादास, महाराजा से अवकाश लेकर मेवाड़ चले गए और फिर कभी लौट कर नहीं आए।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि महाराजा अजीतसिंह पहले से ही वीर दुर्गादास राठौड़ के स्वतंत्र विचारों के कारण उनसे नाराज रहते थे इसलिए जब अजीतसिंह जोधपुर के राजा हुए तो दुर्गादास स्वयं ही राज्य छोड़कर चले गए।
कुछ इतिहासकारों ने अजीतसिंह द्वारा दुर्गादास को देश निकाला दिए जाने के पीछे मुगल शहजादी सफीयतउन्निसा को माना है।
राठौड़ सरदारों ने औरंगजेब के पुत्र अकबर को अपने पिता के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए उकसाया था। अकबर का विद्रोह असफल रहा और उसे राठौड़ सरदारों ने औरंगजेब की दाढ़ से निकालकर दक्षिण भारत पहुंचा दिया जहां से वह ईरान चला गया किंतु इस भागमभाग में अकबर का एक पुत्र तथा एक पुत्री राठौड़ों के खेमे में रह गए।
दुर्गादास ने औरंगजेब के इन वंशजों की रक्षा की तथा उनका पालन पोषण अपनी देख-रेख में रोहतास के दुर्ग में करवाया जो अब रोहट के नाम से जाना जाता है।
जब महाराजा अजीतसिंह ने दुर्गादास के संरक्षण में रह रही शहजादी सफीयतउन्निसा को देखा तो राजा उस पर मुग्ध हो गया। धीरे-धीरे दोनों में प्रेम सम्बन्ध हो गए तथा महाराजा अजीतसिंह ने शहजादी सफीयतउन्निसा से विवाह करने की इच्छा व्यक्त की।
दुर्गादास ने युवक महाराजा की इस इच्छा का विरोध किया तथा इस विवाह को देश एवं धर्म के लिए उचित नहीं बताया। महाराजा ने बहुत प्रयास किए किंतु दुर्गादास के आगे उसकी एक न चली तथा दुर्गादास ने अपने संदेशवाहकों के माध्यम से औरंगजेब से बात करके सफीयतउन्निसा तथा उसके भाई को दिल्ली भेज दिया। इस पर अजीतसिंह, मन ही मन दुर्गादास से रुष्ट रहता था।
जब अजीतसिंह जोधपुर का राजा बन गया तब दुर्गादास ने स्वयं ही जोधपुर राज्य का त्याग कर दिया ताकि अजीतसिंह इस घटना का बदला नहीं ले।
कारण जो भी हो किंतु सच्चाई यही है कि दुर्गादास ने अपने जीवन का अंतिम भाग जोधपुर राज्य से बाहर निकाला। मेवाड़ के महाराणा ने दुर्गादास को मेवाड़ राज्य में एक जागीर दी जहां दुर्गादास कुछ समय के लिए रहे तथा फिर वहां से भी उज्जैन चले गए जहां उन्होंने अपना शरीर त्याग किया।
क्षिप्रा के तट पर आज भी वीर दुर्गादास की छतरी बनी हुई है जो राठौड़ की छतरी के नाम से विख्यात है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता