राजस्थानी भाषा का इतिहास प्राचीन भाषाओं से आरम्भ होता है। उस समय न तो राजस्थान शब्द का उद्भव हुआ था और न भाषा शब्द का ही जन्म हुआ था। उस काल के लोग अपने मन के भावों को व्यक्त करने के लिए शब्दों को गढ़ रहे थे।
बोली और भाषा में अंतर होता है। जब मानव समुदाय किसी बोली में साहित्य की रचना आरम्भ कर देता है तब वह बोली ‘भाषा’ बननी आरम्भ हो जाती है। बोली की कोई लिपि नहीं होती जबकि भाषा की एक विशिष्ट लिपि होती है। राजस्थानी भाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाती है। इससे यह ज्ञात होता है कि यह ‘आर्य भाषा परिवार’ की सदस्य है। राजस्थानी भाषा का साहित्य बहुत समृद्व है।
यदि भाषाओं का क्रमिक विकास देखा जाये तो प्राकृत भाषा से डिंगल भाषा प्रकट हुई तथा डिंगल भाषा से गुजराती एवं मारवाड़ी भाषाओं का विकास हुआ। जबकि संस्कृत भाषा से पिंगल भाषा प्रकट हुई तथा पिंगल भाषा से ब्रज भाषा एवं खड़ी हिन्दी का विकास हुआ।
मरु भाषा
भाषा विद्वानों के अनुसार राजस्थान की प्रमुख भाषा मरु भाषा है। कुछ स्थानीय परिवर्तनों के साथ मरु भाषा साहित्यिक भाषा भी रही है। आठवीं शताब्दी ईस्वी में उद्योतन सूरि द्वारा लिखित कुवलयमाला नामक ग्रंथ में मरु, गुर्जर, लाट और मालवा प्रदेश की भाषाओं का उल्लेख है। जैन कवि भी अपने ग्रंथों की भाषा को मरु भाषा कहते हैं। गोपाल लाहौरी ने पृथ्वीराज राठौड़ द्वारा लिखित ‘वेलि’ नामक ग्रंथ की भाषा को मरु भाषा माना है।
अबुल फजल ने आईने अकबरी में भारतीय भाषाओं का वर्णन करते समय मारवाड़ी को भारतीय भाषाओं में सम्मिलित किया है। मरु भाषा पर पूर्वी क्षेत्र में बुंदेली और ब्रज भाषाओं का, दक्षिणी क्षेत्र में मराठी, गुजराती भाषाओं का, पश्चिम में सिंधी भाषा का एवं उत्तरी क्षेत्र में हिन्दी तथा पंजाबी भाषाओं का प्रभाव है। इन भाषाओं के प्रभाव वे मरु भाषा के विभिन्न रूप विकसित हुए जिन्हें राजस्थानी भाषा की बोलियां कहा जा सकता है।
मरु भाषा पर डिंगल एवं पिंगल भाषाओं का प्रभाव सर्वाधिक है। मरु भाषा की लिपि देवनागरी लिपि ही है। केवल कतिपय अक्षर भिन्न हैं। कुछ विद्वान महाजनी लिपि को मारवाड़ी भाषा की लिपि मानते हैं किंतु महाजनी लिपि भी देवनागरी लिपि को ही एक अलग तरह से घसीट कर लिखे जाने से बनती है।
डिंगल भाषा
कुछ विद्वानों के अनुसार राजस्थान की प्रमुख भाषा डिंगल भाषा है। डिंगल के दो रूप हैं। पहला रूप प्राचीन डिंगल कहलाता है। यह भाषा 13वीं शताब्दी ईस्वी से 17वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य तक प्रचलित रही। दूसरा रूप नवीन डिंगल कहलाता है जो सत्रहवीं शताब्दी के मध्य में प्रचलन में आया तथा आज तक प्रचलित है। (आर.ए.एस. मुख्य परीक्षा वर्ष 2003, संक्षिप्त टिप्पणी लिखिये- डिंगल)
राजस्थानी भाषा
मरु भाषा को ही मरुवाणी तथा मारवाड़ी कहा जाता है। पंडित सूर्यकरण शास्त्री ने मरु भाषा, डिंगल और मरुवाणी को एक ही भाषा मान है। पंडित रामकर्ण आसोपा ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ राज रूपक में डिंगल भाषा को राजस्थानी भाषा बताया है। डॉ. सुनीति कुमार चटर्जी ने राजस्थानी भाषा के लिये डिंगल अथवा मारवाड़ी भाषा का प्रयोग किया है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता