राजशाही का अन्त शीर्षक से लिखी गई इस पुस्तक में भारत की स्वतंत्रता के समय भारत में सम्मिलित राजपूताने की 19 देशी रियासतों एवं 3 बड़े ठिकाणों के परम्परागत शासकों के शासनाधिकार राजस्थान की जनता को स्थानांतरित होने का अद्भुत एवं रोमांचक इतिहास लिखा गया है।
वर्ष 2009 में मेरी पुस्तक ‘ब्रिटिश शासन में राजपूताने की रोचक एवं ऐतिहासिक घटनाएँ’ प्रकाशित हुई थी जिसमें ईस्ट इण्डिया कम्पनी के राजपूत रियासतों में प्रवेश करने से लेकर ब्रिटिश क्राउन के भारत से प्रस्थान करने तथा राजपूत रियासातों के भारत संघ में प्रवेश करने तक का इतिहास लिखा गया था।
इस पुस्तक के प्रकाश में आने के बाद से ही यह आवश्यकता अनुभव की जा रही थी कि इसी तरह की एक और पुस्तक लिखी जानी चाहिए जिसमें राजपूत रियासतों के भारत में प्रवेश करने के बाद से लेकर राजस्थान संघ इकाई में सम्मिलित होने तक का इतिहास लिखा जाए। राजशाही का अन्त इसी उद्देश्य की पूर्ति को लेकर लिखी गई है।
राजपूताना की 19 सैल्यूट रियासतें एवं 3 नॉन सैल्यूट रियासतें, प्राचीन आर्यों द्वारा विकसित राजन्य व्यवस्था का ही बदला हुआ स्वरूप थीं जिनमें शासन की पद्धति तीन बातों को केन्द में रखकर निर्धारित की गई थी-
(1.) राष्ट्र की आवश्यकता,
(2.) धर्म का आदेश और
(3.) राजा की इच्छा।
यहाँ राष्ट्र से तात्पर्य आर्य जाति से, धर्म से तात्पर्य वेद विहित कर्म से तथा राजा से तात्पर्य, जन (कबीले) के मुखिया से था। यद्यपि रामराज्य में राजा को जनकल्याणकारी सेवक के रूप में कल्पित किया गया था तथापि वास्तविकता की धरती पर रामराज्य कभी आया ही नहीं। राजा रामचंद्र के राज्य को, अलौकिक होने के कारण अपवाद माना जा सकता है।
वैदिक काल से आरम्भ हुई राजन्य परम्परा, यद्यपि विदेशी आक्रांताओं की ठोकरों से, ईसा की पहली शताब्दी तक ही चूर-चूर हो गई थी तथापि गुप्तों ने इसे भागवत् धर्म का आधार देकर पुनर्जीवित किया।
प्रतिहारों, चौहानों और परमारों ने भागवत् धर्म के सिद्धांतों का लगभग पालन किया और प्रजापालन के काम किए किंतु महमूद गजनवी से लेकर महमूद गौरी तक के मुस्लिम आक्रमणों एवं दिल्ली में स्थापित सल्तनत के शासकों ने भारतीय शासन पद्धति को नष्ट करके नई तरह की शासन परम्परा आरम्भ की।
मुगलों के शासन में प्रजा हित के कुछ काम सम्मिलित रहते थे। मुगलों के पराभव के बाद 1857 ई. तक ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने और 1857 से 1947 तक ब्रिटिश क्राउन ने प्रजा पालन को अपने शासन का उद्देश्य बताया किंतु कतिपय सामाजिक बुराइयों पर चोट करने के अतिरिक्त वे कुछ विशेष नहीं कर सके।
राजपूताना के राजा 16वीं शताब्दी में मुगलों के साथ तथा 19वीं शताब्दी में अंग्रेजों के साथ, शासन में कनिष्ठ भागीदार बने। इस कारण उनके शासन का मूल स्वरूप नष्ट हो गया। उनमें से कुछ को छोड़कर अधिकांशतः अशिक्षित और सनकी थे जो जनता को मालगुजारी चुकाने की मशीन समझते थे।
शासन के ये कनिष्ठ भागीदार (देशी राजा), शासन का समस्त भार अपने वरिष्ठ भागीदार (ब्रिटिश क्राउन) को सौंपकर स्वयं शराब और सुंदरी का सेवन करने में व्यस्त हो गए।
जब कांग्रेस ने ब्रिटिश शासित क्षेत्रों में भारतीय स्वातंत्र्य आंदोलन आरम्भ किया तब लम्बे समय तक वह देशी राज्यों के प्रति उदासीन ही रही। शीघ्र ही कांग्रेस को समझ में आ गया कि ऐसा संभव नहीं है कि देशी रियासतों को आजादी के आंदोलन से उदासीन रखा जाए। कांग्रेस दो स्तर पर अर्थात् ब्रिटिश क्राउन और देशी राजाओं से एक साथ संघर्ष नहीं चाहती थी।
अंततः एक मार्ग ढूंढा गया और देशी राज्यों में आंदोलन चलाने के लिए, देशी राजा की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन की स्थापना का लक्ष्य स्वीकार किया गया। यह संघर्ष काफी लम्बा चला।
इस दौरान राजाओं और उनके तन्त्र ने, उत्तरदायी शासन मांगने वालों का भयानक उत्पीड़न किया। जेल की कोठरियों में कितनों को ही जिंदा जलाकर मार डाला गया। कितनों के घर उजड़ गए। कितने ही परिवार हमेशा के लिए मिट गए।
राजशाही का अन्त में देशी राज्यों में हुए इसी संघर्ष की कहानी है। आशा है यह पुस्तक पाठकों को पसंद आएगी तथा भारत की आजादी के उस भूले बिसरे इतिहास को फिर से पाठकों के समक्ष लाने में सफल होगी जिसे अधिकांश भारतीय इतिहासकार भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा ही नहीं मानते। आपके विचारों का स्वागत रहेगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता