अंग्रेजों द्वारा अनेक मारवाड़ी बनियों पर कठोर कार्यवाही की गई। मारवाड़ी बनियों का मानना था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद उनके विकास के मार्ग में अवरोध था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद मारवाड़ी बनियों को अपने मार्ग से हटाने के लिये देशी रियासतों के शासकों से सहयोग की अपेक्षा रखता था।
भारत को स्वतंत्र कराने में किसी एक राजनैतिक दल, संगठन या वर्ग का नहीं अपितु समस्त भारतीयों का योगदान रहा है। राजस्थान का वैश्य वर्ग जिसे ब्रिटिश भारत में मारवाड़ी नाम से जाना जाता था तथा जो मुख्य रूप से वाणिज्य व्यापार प्रधान था, किसी प्रदेश तक सीमित न होकर समग्र भारत में फैला हुआ था। इस वर्ग के लिये यह धारणा रही है कि वह कंटकाकीर्ण मार्ग पर बहुत सोच-समझ कर पग रखता है, किंतु फिर भी इस वर्ग के लोगों ने स्वाधीनता आन्दोलन में कठिन परिस्थितियों के बावजूद सक्रिय भाग लिया।
बीसवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में बंगाल प्रान्त स्वाधीनता आन्दोलन की राजनीतिक एवं क्रांतिकारी गतिविधियों का मुख्य केन्द्र बना हुआ था। इन गतिविधियों को रोकने के लिए लार्ड कर्जन द्वारा हिन्दू एवं मुसलमानों को आपस में लड़वाने के लिए ईस्वी 1905 में बंग-भंग की घोषणा की गई। ईस्वी 1906 में कलकत्ता में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ जिसमें पहली बार कांग्रेस ने अपना लक्ष्य स्वराज्य प्राप्ति के लिए संघर्ष करना स्वीकार किया।
राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत मारवाड़ी बनियों ने इस सम्मेलन में बड़ी संख्या में भाग लिया जो बंगाल के अनेक नगरों में प्रवासियों के रूप में निवास कर रहे थे। [1]
इस अधिवेशन में गरम दल और नरम दल के नेताओं ने भारत को विदेशी सत्ता से मुक्त करवाने के लिए अलग-अलग विचार प्रस्तुत किए। अधिकतर मारवाड़ी बनियों ने गरमदल के नेताओं के विचारों का स्वागत एवं समर्थन किया और वे बंगाल में चल रही अनेक क्रान्तिकारी समितियों से सम्बद्ध हो गये। इन मारवाड़ी बनियों में प्रभुदयाल हिम्मतसिंहका, हनुमान प्रसाद पोद्दार, ज्वाला प्रसाद कानोड़िया, ओंकारमल सराफ एवं कन्हैया लाल चितलांगिया के नाम उल्लेखनीय थे। [2]
ईस्वी 1921 में कांग्रेस ने मोहनदास कर्मचंद गांधी को अपना सर्वप्रमुख नेता स्वीकार कर लिया। इस काल में बंगाल के मारवाड़ी बनियों ने गांधीजी द्वारा चलाए गए असहयोग आंदोलन और सविनय अवज्ञा आन्दोलन का समर्थन किया। शेखावाटी, बीकानेर एवं जोधपुर रियासतों के मरवाड़ी बनियों ने इन आन्दोलनों में खुलकर भाग लिया। [3] इन सेठ साहूकारों में से अधिकतर लोगों ने आन्दोलनों को आर्थिक सहायता दी तो कुछ लोगों ने व्यक्तिगत रूप से भाग लेकर अनेक प्रकार की यातनायें सहीं, कष्ट उठाये और जेल यात्राएं कीं।
बंगाल सरकार के एक बड़े सुरक्षा अधिकारी ए. एच. गजनवी ने ईस्वी 1930 में अपने एक निजी पत्र में शिमला स्थित भारत के वायसराय के प्रतिनिधि कनिंघम को बंगाल की आन्दोलनात्मक गतिविधियों के बारे में लिखा था कि यदि गांधीजी द्वारा चलाये गये आन्दोलनों से राजस्थान रियासतों के मारवाड़ी बनियों को अलग किया जा सके तथा बंगाल के आन्दोलन बंगालवासियों के हाथों छोड़ दिये जाये तो नब्बे प्रतिशत आन्दोलन स्वतः ही समाप्त हो सकता था। [4]
ए. एच. गजनवी की इस टिप्पणी से मारवाड़ी बनियों द्वारा बंगाल के आन्दोलनों में सक्रिय भाग लेने की गंभीरता पर प्रकाश पड़ता है। ए. एच. गजनवी ने भारत के वायसराय के पास शिमला में दो सूचियां भिजवाईं जिनमें मारवाड़ी बनियों पर बंगाल आन्दोलन में भाग लेने का विवरण मिलता है।
पहली सूची के अनुसार जिन प्रवासियों को आंदोलन में भाग लेने के कारण गिरफ्तार कर उनके बही-खातों को जब्त कर लिया गया था, उनमें शेखावाटी क्षेत्र के सेठ श्री कृष्ण सीताराम, बिहारीलाल गोपीराम, पदमचन्द पन्नालाल, रामबल्लभ रामेश्वर, रामकुमार शिवचन्द्र राय (बिसाऊ), राधाकृष्ण नवेटिया (नवलगढ़), मंगतुराम जयपुरिया (नवलगढ़), गिरधारीलाल, लक्ष्मीनारायण, गणेशदास जवाहरमल, हरीबक्श ओंकारमल, चैनसुख गंभीरमल, बींजराज जवाहरमल, बल्लभदास भट्टड़, शिवदयाल मदन गोपाल, श्री निवास पोद्दार, बालकिशन पोद्दार (रामगढ़) एवं सेठ गोविन्दराम परसराम बजाज के नाम उल्लेखनीय हैं। [5]
इनमें सेठ राधाकृष्ण नवेटिया, मंगतुराम जयपुरिया एवं गोविन्दराम परसराम बजाज पर बंगाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन से सम्बन्धित होने तथा गांधीजी के सविनय अवज्ञा आन्दोलन में खुले रूप से आर्थिक सहायता देने का आरोप था। सेठ श्री निवास बालकिशन पोद्दार पर ईस्वी 1921 से ही बंगाल के आन्दोलनों को आर्थिक सहायता देना और सविनय अवज्ञा आन्दोलन का एक कार्यालय अपने घर में चलाने का आरोप था। शेष लोगों पर आन्दोलन को खुले तौर पर आर्थिक सहायता देने का आरोप था। [6]
दूसरी सूची के अनुसार जिन मारवाड़ी बनियों को गिरफ्तार नहीं किया किन्तु वे गांधीजी के आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग ले रहे थे, उनमें घनश्यामदास बिड़ला (पिलानी), देवीप्रसाद दुर्गाप्रसाद खेतान (रामगढ़), सीताराम सेखसरिया (रामगढ़), रामकुमार जालान (रामगढ़, हनुमान प्रसाद बगड़िया (रामगढ़), भागीरथ कानोडिया (रामगढ़), लक्ष्मीनारायण खेमाणी (मण्डावा), बैजनाथ प्रसाद मोतीलाल देवड़ा (फतेहपुर), राधाकृष्ण चावसरिया (नवलगढ़), रामचन्द्र गुरुप्रताप पोद्दार (नवलगढ़), बालचन्द मोदी (चूरू), राम गोपाल सराफ (फतेहपुर), रामकुमार केजड़ीवाल (चिड़ावा), गंगाबक्श शाह (सूरजगढ़), गंगा प्रसाद गोदिका (फतेहपुर), ज्वाला प्रसाद मोदी (नवलगढ़, रामकृष्ण डालमिया (चिड़ावा), श्रीनन्दीलाल पोद्दार (नवलगढ़), दुर्गादास सावसका (नवलगढ़), सागरमल नाथानी (दूधवाखारा, चुरू), मुन्नालाल मसूदी (मण्डावा), मंगनीराम रामकुमार बांगड़ (डीडवाना), हीरालाल नथमल, भंवरलाल रामपुरिया (बीकानेर), अवरीमल जोहरीमल बैद (चूरू) और सागरमल बैद (चूरू) के नाम उल्लेखनीय हैं।
सेठ रामचन्द्र गुरुप्रताप पोद्दार पर क्रान्तिकारी आन्दोलन में भाग लेने के अतिरिक्त सविनय अवज्ञा आन्दोलन को खुले रूप से आर्थिक सहायता देने का भी आरोप था। सेठ रामकृष्ण डालमिया पर आन्दोलन को एक लाख रूपये का सहयोग देने का आरोप था। दूधवाखारा के सेठ सागरमल नाथानी पर अनेक आरोप थे। वे सविनय अवज्ञा आन्दोलन से सहानुभूति रखकर उसे आर्थिक सहायता तो दे ही रहे थे, उन्होंने अपने एक मकान में इस आन्दोलन को चलाने के लिये एक कार्यालय भी खोल रखा था। उन पर यह भी आरोप था कि वे हड़तालों के समर्थक थे और स्वयं स्टॉक एक्सचेन्ज के सदस्य होने के नाते उन यूरोपीय व्यापारियों को उनके साथ व्यापार न करने की धमकी देते थे जो हड़ताल का विरोध करते थे। शेष लोगों पर सविनय अवज्ञा आन्दोलन को आर्थिक सहायता देने का आरोप था। [7]
अंग्रेज सरकार की दृष्टि में सेठ घनश्यामदास बिडला, रामकृष्ण डालमिया, मुन्ना लाल मसूदी, राधाकृष्ण नवेटिया, मंगतुराम जयपुरिया, श्री निवास बालकिशन पोद्दार, गोविन्दराम परसराम बजाज, देवी प्रसाद दुर्गा प्रसाद खेतान, रामकुमार जालान, हनुमानप्रसाद बगड़िया, भागीरथ कानोडिया एवं बालचन्द मोदी गांधीजी के आंदोलनों के मुख्य एवं खतरनाक दोषी व्यक्ति थे। [8]
मारवाड़ी बनियों को स्वतंत्रता आदोलनों से दूर करने के लिये भारत की अंग्रेज सरकार ने अनेक हुथकण्डे अपनाये। अंग्रेज सरकार जानती थी कि रियासतों के सेठ साहूकार ब्रिटिश भारत में वाणिज्य व्यापार कर धन अवश्य कमाते थे, किन्तु उनकी निष्ठा अंग्रेज सरकार के प्रति न होकर अपनी मूल रियासतों के शासकों के प्रति रहती थी, क्योंकि वहाँ पर उनकी चल एवं अचल सम्पति सुरक्षित थी। [9]
भारत सरकार ने राजस्थान की रियासतों के शासकों पर दवाब डालना प्रारम्भ किया कि वे अपने क्षेत्र के धनाढ्यों पर दबाव डालें कि वे आंदोलन से अपना सम्बन्ध विच्छेद कर लें। शिमला स्थित भारत के वायसराय के प्रतिनिधि मि. कनिंघम ने ईस्वी 1930 में जयपुर स्थित कौंसिल ऑफ स्टेट के प्रेसीडेंट मि. बी. जे. ग्लांसी को लिखा कि राजा बलदेवदास बिड़ला स्वयं सविनय अवज्ञा आंदोलन के खिलाफ था, किन्तु उसका लड़का घनश्यामदास बिड़ला आंदोलन को आधिक सहायता दे रहा था। अतः मि. बी. जे. ग्लांसी महाराजा जयपुर पर दबाव डाले कि सेठ बिड़ला आंदोलन में भाग न ले। [10] इसी प्रकार का दबाव सीकर एवं खेतड़ी पर भी डाला गया। [11]
उपरोक्त तथ्यों के आलोक में यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि बीसवीं में बंगाल के मारवाड़ी बनिए भारत को स्वतंत्र करवाने के लिए अपने गाढ़ी कमाई अर्पित कर रहे थे। इस कारण अंग्रेजों द्वारा अनेक मारवाड़ी बनियों पर कठोर कार्यवाही की गई। मारवाड़ी बनियों का मानना था कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद उनके विकास के मार्ग में अवरोध था। ब्रिटिश साम्राज्यवाद मारवाड़ी बनियों को अपने मार्ग से हटाने के लिये देशी रियासतों के शासकों से सहयोग की अपेक्षा रखता था।
[1] कांग्रेस अधिवेशन में भाग लेने वाले मारवाड़ी सेठ साहूकारों में सेठ हनुमान प्रसाद पोद्दार का नाम उल्लेखनीय है। डॉ. गोपीनाथ कविराज – पावन स्मरण, पृ. 406.
[2] (1) मि. ए. एच. गजनवी का मि. कनिंघम को लिखा पत्र दिनांक 27 अगस्त 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार बीकानेर। (2) डॉ. गोपीनाथ कविराज, पृ. 432.
[3] (1) शिमला से मि. कनिंघम का मि. बी. जे. ग्लांसी को लिखा पत्र, दिनांक 13 जुलाई 11930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर।
(2) शिमला से मि. कनिंघम का मि. बी. जे. ग्लांसी को लिखा पत्र, दिनांक 13 अगस्त 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर।
(3) जयपुर रेजीडेन्ट मि. लोथियान का मि. ग्लास को लिखा पत्र, दिनांक 12 अगस्त 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर।
(4) मि. ग्लांसी का मि. लोथियान को लिखा पत्र, दिनांक 13 अगस्त 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार।
[4] मि. कनिंघम का मि. ग्लासी को लिखा पत्र, दिनांक 29 जुलाई 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर।
[5] गिरिजा शंकर शर्मा, बंगाल के प्रवासी राजस्थानी सेठ साहूकारों का गाँधी जी के असहयोग व सविनय अवज्ञा आंदोलन में योगदान, राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस प्रोसीडिंग्स।
[6] मि. ए. एच. गजनवी का मि. कनिंघम को लिखा पत्र, दिनांक 27 अगस्त 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर।
[7] वही
[8] वही
[9] वही
[10] जयपुर रेजीडेन्ट, मि. लोथियान का मि. बी. जे. ग्लांसी को लिखा पत्र, दिनांक 12 अगस्त 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर।
[11] मि. बी. जे. ग्लांसी, प्रेसीडेन्ट, कौंसिल ऑफ स्टेट, जयपुर का मि. जी. ए. कारोल, सुपरिन्टेन्डेन्ट, ठिकाना खेतड़ी (जयपुर) को लिखा पत्र, दिनांक 13 अगस्त 1930, राजस्थान राज्य अभिलेखागार, बीकानेर।