मांच दुर्ग मूल रूप से एक हजार साल से भी अधिक पुराना था जिसका समय-समय पर जीर्णोद्धार होता रहा तथा कालांतर में इसका नाम भी बदल गया और इसे जमवा रामगढ़ कहा जाने लगा।
मांच दुर्ग के निर्माता
मांच दुर्ग मीणों द्वारा बनवाया गया था। यह किला कच्छवाहों के ढूंढाढ़ में आने से भी पहले का है। दूल्हाराय के इस क्षेत्र में आगमन के समय मांच दुर्ग सीहरा वंश के मीणा शासक नाथू के अधीन था। वर्तमान दुर्ग कच्छवाहा शासक मानसिंह (प्रथम) द्वारा ई.1612 में बनवाया गया।
महाभारत कालीन मत्स्य जाति ही कालांतर में मीणा कहलाई। राजस्थान में इनके दुर्ग महाभारत काल से चले आ रहे थे। इनके दुर्ग वर्तमान जयपुर तथा अलवर जिलों में केन्द्रित थे। जब कच्छवाहे ढूंढाड़ में आये, तब मीणों की छोटी-बड़ी कई गढ़ियां इस क्षेत्र में विद्यमान थीं। इनमें आमेर, दौसा, रामगढ़ और मांच प्रमुख थे।
दुर्ग का नामकरण
मीणा शासक इसे मांच का किला कहते थे। दूल्हाराय ने नाथू मीणा को परास्त करके मांच दुर्ग छीन लिया तथा इसका नाम रामगढ़ रखा। बाद में जब यहाँ कच्छवाहों की कुलदेवी जमवा माता का मंदिर बन गया, तब इसे जमवारामगढ़ कहने लगे।
मांच दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था
पूरा किला परकोटे से घिरा हुआ है। इस परकोटे में बहुत सी पोल बनी हुई हैं जिनमें से एक पोल में हनुमान चौकी बनी हुई है जो हनुमानजी की मोरी के नाम से जानी जाती है।
मांच दुर्ग का प्रवेश द्वार
दुर्ग का प्रवेश द्वार उत्तर दिशा में है। हाथी, घोड़े तथा ऊंट पर चढ़कर इस किले तक पहुंचा जा सकता था। मुख्य द्वार से प्रवेश करके एक खुले चौक में पहुंचा जाता है। यह चौक आमेर के जलेब चौक से चार गुना लम्बा एवं चौड़ा है। इसके चारों ओर घुड़सालें बनी हुई थीं जो अब नष्ट प्रायः हैं।
मांच दुर्ग का स्थापत्य
चौक से कुछ सीढ़ियां चढ़कर महल के मुख्य द्वार तक पहुंचा जा सकता है। यहाँ जनानी ड्यौढ़ी तथा राजा का निवास बना हुआ है। इन महलों में मेदा मीणा का महल देखने योग्य है। भवनों में आराइश का कार्य भी चित्ताकर्षक है। पेयजल आपूर्ति के लिये दुर्ग में टांके बने हुए हैं।
दुर्ग परिसर में महाराजा मानसिंह (प्रथम) द्वारा एक कुआं तथा आराम बाग तालाब बनवाया गया था। इस बाग में आज भी आम के कुछ पेड़ देखे जा सकते हैं। दुर्ग के ऊपरी भवनों में लदाव के गुम्बदों के साथ गढ़वा के पत्थर के खम्भों एवं तीन तरफ 15 इंच की पत्थर ब्रेकिट के साथ झरोखों को देखा जा सकता है।
दुर्ग में स्थित मंदिर
दुर्ग के प्रवेश मार्ग के दाहिनी तरफ गणेश मंदिर है। इस मंदिर की प्रतिमा 16वीं शताब्दी की है। प्रतिमा का आकार-प्रकार जयपुर के मोती डूंगरी गणेश प्रतिमा के समान है।
मांच दुर्ग का इतिहास
ई.1612 में महाराजा मानसिंह (प्रथम) जब काबुल विजय के पश्चात् अपनी रियासत में आये तब उन्होंने रामगढ़ दुर्ग में आरामबाग का निर्माण करवाया तथा रामगढ़ दुर्ग एवं जागीर अपने पुरोहित पीताम्बर के पुत्र पद्माकर को दान दे दी।
जयपुर के हवामहल में रखे एक शिलालेख में इस आशय की सूचना उत्कीर्ण है। यह पत्थर लाल रंग का है तथा उस पर उत्कीर्ण लेख देवनागरी लिपि में है। उसके बाद से रामगढ़ दुर्ग का उपयोग बंद कर दिया गया। रामगढ़ में ही कच्छवाहों की दांत माता तथा जमवाय माता का मंदिर आदि बनाये गये।
रामगढ़ दुर्ग में वराहदेव का एक मंदिर दर्शनीय है। कच्छवाहा शासक माधोसिंह (द्वितीय) के समय यहाँ रामगढ़ बांध तथा शिकारगाह का निर्माण करवाया गया। पुरोहितों की जागीरी में जाने के बाद इस क्षेत्र में पशु-पक्षियों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया गया।
काली डूंगरी पर जंगली सूअरों के लिये दाना डालने की व्यवस्था की गई। दुर्ग में स्थित पीताम्बर पुरोहत का भवन अब ऊंची कोटड़ी कहलाता है।
मांच दुर्ग के बारे में यह उक्ति कही जाती है-
जारूड़ो ज्यूं जोधपुर सांऊ ज्यूं सांगानेर।
मांच तखत को बैठबो, ज्यूं आमेर।।
बारहवीं शताब्दी के मंदिर
रामगढ़ बांध में बारहवीं शती का एक मंदिर आज भी अच्छी स्थिति में देखा जा सकता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता