करौली से लगभग 30 किलोमीटर तथा महवा से लगभग 16 किलोमीटर दूर अरावली की पहाड़ियों में मण्डरायल दुर्ग स्थित है। मंडरायल दुर्ग को ग्वालियर दुर्ग की कुली (चाबी) कहा जाता था। यह दुर्ग लाल पत्थरों से बना हुआ है।
दिल्ली सल्तनत के काल में तथा मुगल सल्तनत के काल में मण्डरायल दुर्ग सैन्य छावनी की स्थापना की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता था। दिल्ली एवं ग्वालियर के बीच स्थित होने के कारण इस दुर्ग का सामरिक महत्व तो था ही, साथ ही राजनीतिक महत्व भी बहुत अधिक था।
दुर्ग के निर्माता
करौली रियासत की विलेज डाइरेक्ट्री के अनुसार अनाम गोत्रीय वीजा बहादुर ने मण्डरायल दुर्ग का निर्माण करवाया। वीजा बहादुर के काल की कोई जानकारी अब नहीं मिलती है। कुछ लोग माण्डव्य ऋषि के नाम से इस दुर्ग का नामकरण होना मानते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि यह दुर्ग बहुत पुराना है क्योंकि माना जाता है कि जब मथुरा के यादव इस क्षेत्र में आये तब भी यह दुर्ग मौजूद था।
मण्डरायल दुर्ग का इतिहास
मध्यकाल में यह क्षेत्र सामरिक दृष्ट से अत्यन्त महत्वपूर्ण था। ई.1327 में करौली के यादव शासक अर्जुनपाल देव ने इस दुर्ग पर अधिकार किया। ईस्वी 1504 में सिकन्दर लोदी ने इस दुर्ग पर अधिकार जमाया तथा इसमें स्थित मंदिरों को तोड़कर मस्जिदें बनवाईं। सिकन्दर लोदी ने यहाँ स्थित विशाल उद्यान भी नष्ट कर दिया।
मुगलों के काल में ई.1534 में यह दुर्ग गुजरात के सेनापति तातार खाँ ने छीन लिया। गुजराती मुसलमान इस दुर्ग को अधिक समय तक अपने अधिकार में नहीं रख सके। कुछ समय बाद यह दुर्ग मुगल बादशाह हुमायूं के अधिकार में चला गया। महाराजा गोपालदास (प्रथम) ने मण्डरायल दुर्ग को मुसलमानों से छीनकर करौली राज्य में सम्मिलित किया। उसके बाद यह दुर्ग करौली राज्य में ही बना रहा। वर्तमान में यह दुर्ग खण्डहर प्रायः हो चुका है। चम्बल नदी यहाँ से 5 किलोमीटर की दूरी पर बहती है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता