ब्रिटिश शासन में राजपूताने की रोचक एवं ऐतिहासिक घटनाएँ को जितनी प्रसिद्धि मिली है, उतनी प्रसिद्धि विगत एक शताब्दी में किसी अन्य पुस्तक को नहीं मिली है।
गवर्नर जनरल एवं वायसराय लॉर्ड कर्जन ई.1905 जब तक इंगलैण्ड के मुकुट में भारत रूपी हीरा जड़ा हुआ है तब तक इंगलैण्ड को कोई पछाड़ नहीं सकता किंतु इसकी कीमत हम तब तक नहीं समझेंगे जब तक कि हम इसे खो न देंगे।
प्राकृतिक संसाधनों से सम्पन्न होने के कारण भारत, मानव सभ्यता के उषा काल से ही विदेशी आक्रमणों से संत्रस्त रहा। सिकंदर के भारत में आने से भी बहुत पहले, रोम के एक शासक ने कहा था भारतीयों के बागों में मोर, उनके खाने की मेज पर काली मिर्च तथा उनके बदन का रेशम, हमें पागल बना देता है। हम इन चीजों के लिये बर्बाद हुए जा रहे हैं। इस वक्तव्य से भारत के प्राकृतिक संसाधनों के प्रति विश्व के दृष्टिकोण को समझा जा सकता है।
एक ओर तो विदेशी आक्रांता हर समय भारत को लूटने एवं भारत में अपना राज्य जमाने के लिए उत्सुक रहते थे किंतु दूसरी ओर भारतीय राजा, परस्पर रक्त एवं वैवाहिक सम्बन्ध रखते हुए भी राज्य विस्तार की लालसा के कारण, एक-दूसरे के रक्त के प्यासे थे। इस कारण विदेशी आक्रांता भारत भूमि पर अपना अधिकार जमाने में सफल हो जाते थे। ऐतिहासिक कालक्रम में शक, कुषाण, हूण, यूनानी, पह्लव आदि अनेकानेक जातियां भारत में आती गईं और अपने शासन स्थापित करती रहीं। फिर भी जैसे ही भारतीय शक्तियों को अवसर मिलता था, वे विदेशी शासकों को नष्ट करके फिर से अपने राज्य स्थापित कर लेती थीं क्योंकि विदेशी आक्रांता, भारत की सांस्कृतिक एकता को छिन्न-भिन्न नहीं कर पाते थे।
बारहवीं शताब्दी ईस्वी में जब मुसलमानों ने भारत में शासन स्थापित किया, तब देश की सांस्कृतिक एकता नष्ट हो गई तथा भारतीय क्षत्रियों में विदेशियों के विरुद्ध पहले जैसी प्रतिरोधक क्षमता नहीं रह गई। इस कारण देश में ईरानी, तूरानी, अफगानी, मुगल, मंगोल, तातार, तुर्क, चगताई, कज्जाक, हब्शी, बलोच, पठान, सिन्धी आदि विभिन्न कबीलों के मुसलमान बड़ी संख्या में घुस आए। भारत के चक्रवर्ती सम्राटों का स्थान मुस्लिम सुल्तानों तथा बादशाहों ने ले लिया। हिन्दू क्षत्रिय इन सुल्तानों एवं बादशाहों के अधीन करद अर्थात् कर देने वाले राज्य बन कर रह गए। दक्षिण के विजयनगर एवं उत्तर के मेवाड़ राज्य को छोड़ दें तो कोई भी हिन्दू राज्य ऐसा न था जो मुसलमानों के अधीन नहीं हुआ हो।
15वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में यूरोप के विभिन्न देशों ने सुदूर देशों के समुद्री मार्गों का पता लगाने का अभियान चलाया ताकि उनके साथ व्यापार किया जा सके। इनमें पुर्तगाली, डच (हॉलैण्ड वासी), फ्रांसीसी तथा अंग्रेज नामक चार जातियाँ सर्वाधिक अग्रणी थीं। पंद्रहवीं एवं सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में ये लोग व्यापारियों के रूप में भारत में घुसे। उस समय भारत की केन्द्रीय सत्ता मुगलों के पास थी तथा उनके अधीन छोटे-छोटे हिन्दू एवं मुस्लिम राज्य थे।
अठारहवीं शताब्दी ईस्वी में औरंगजेब के मरते ही मुगल सत्ता बिखरने लगी और छोटे-छोटे राज्य अपनी-अपनी शक्ति बढ़ाने के लिए एक दूसरे के विरुद्ध युद्धों में संलग्न हो गए। इसके साथ ही, भारत में व्यापार कर रही चारों यूरोपीय जातियाँ, परस्पर लड़ रहे छोटे-छोटे राज्यों को हड़पने की स्पर्द्धा करने लगीं। इस स्पर्द्धा में अंग्रेज जाति विजयी रही और उसने भारत पर अधिकार कर लिया।
अंग्रेजों ने भारत को दो तरह की राजनीतिक व्यवस्था के अंतर्गत रखा। पहली तरह की व्यवस्था में भारत के बहुत बड़े भू-भाग पर अंग्रेजों का प्रत्यक्ष नियंत्रण था। इसे ब्रिटिश भारत कहा जाता था जिसे उन्होंने 11 ब्रिटिश प्रांतों में विभक्त किया।
दूसरी तरह की व्यवस्था के अंतर्गत भारत के लगभग 565 देशी रजवाड़े थे जिनकी संख्या समय-समय पर बदलती रहती थी। देशी राज्यों को रियासती भारत कहते थे। ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने इन रजवाड़ों के साथ अधीनस्थ सहायता के समझौते किए जिनके अनुसार राज्यों का आंतरिक प्रशासन देशी राजा या नवाब के पास रहता था और उसके बाह्य सुरक्षा प्रबन्ध अंग्रेजों के नियंत्रण में रहते थे।
उन दिनों राजपूत शासकों द्वारा शासित क्षेत्र राजपूताना कहलाता था जिसमें 17 देशी राज्य थे- जयपुर, जोधपुर, उदयपुर, बीकानेर, सिरोही, कोटा, करौली जैसलमेर, किशनगढ़, बूंदी प्रतापगढ़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, अलवर, धौलपुर, भरतपुर, तथा शाहपुरा। बाद में अंग्रेजों ने टोंक तथा झालावाड़ नामक दो देशी रियासतों की स्थापना और करवाई।
देशी रजवाड़ों में सत्ता प्राप्ति को लेकर राजकुमारों में जबर्दस्त कलह मची रहती थी। अनेक राज्यों के सामंत, राजकुमारों और रानियों के साथ मिलकर राजा अथवा उत्तराधिकारी राजकुमार के विरुद्ध षड़यंत्र करते थे। मराठे और पिण्डारी भी इन राज्यों को लूटते थे। इसलिए ये रजवाड़े ईस्ट इण्डिया कम्पनी से संरक्षण की मांग करते रहते थे।
ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने कुछ राज्यों से ई.1803 से 1805 के बीच तथा शेष राज्यों से ई.1817 एवं 1818 में अधीनस्थ सहायता के समझौते किए तथा उन पर राजनीतिक एवं प्रशासनिक नियत्रंण स्थापित करने के लिए राजपूताना एजेंसी स्थापित की जिसका सर्वोच्च अधिकारी एजेण्ट टू दी गवर्नर जनरल (एजीजी) कहलाता था। उसके अधीन रेजीडेण्ट तथा पॉलिटिकल एजेण्ट होते थे जो विभिन्न देशी राज्यों में रहकर अंग्रेज सरकार के हितों को देखते थे।
अंग्रेजों ने अधीनस्थ सहायता के समझौते देशी रजवाड़ों की बाह्य सुरक्षा के नाम पर किए थे किंतु शीघ्र ही अंग्रेज अधिकारी, देशी राज्यों के सर्वेसर्वा बन गए। प्रस्तुत पुस्तक में अंग्रेजों के भारत में आगमन से लेकर उनके पलायन तक राजपूताना रियासतों में घटी प्रमुख घटनाओं को लिखा गया है। राजपूताना की रियासतों की कहानी 30 मार्च 1949 तक चलती है जब उनका राजस्थान में विलय हुआ।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता