Wednesday, April 16, 2025
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निष्कलंक सम्प्रदाय के संस्थापक मावजी

राजस्थान के वागड़ क्षेत्र में मावजी ने वैष्णव धर्म के अंतर्गत जो सम्पदाय स्थापित किया उसे निष्कलंक सम्प्रदाय कहते हैं किंतु स्थानीय लोग इसे निकलंग उच्चारित करते हैं।

13वीं एवं 14वीं शताब्दी ईस्वी में राजस्थान के राज्यों पर दिल्ली के लगभग सभी शक्तिशाली सुल्तानों, यथा कुतुबुद्दीन ऐबक, इल्तुतमिश, बलबन, जलालुद्दीन खिलजी, अलाउद्दीन खिलजी आदि ने प्रबल आक्रमण किए। इन आक्रमणों के फलस्वरूप हिन्दू धर्म मनोवैज्ञानिक दबाव में आकर पराजय एवं हीनता की भावना से ग्रस्त हो गया। हिन्दुओं को लगने लगा कि इस्लाम अजेय है तथा हिन्दू राजा इसे जीत नहीं सकते। इस कारण पराजित सामंत एवं योद्धा तथा हिन्दू समाज के निर्धन तबके के लोग तेजी से मुसलमान बनने लगे।

ऐसी विकट परिस्थितियों में उत्तर भारत में संत रामानन्द एवं उनके शिष्यों- कबीर, रैदास, पीपा, धन्ना, नरहरि  आदि द्वारा हिन्दुओं में राम एवं कृष्ण की भक्ति का प्रचार किया गया। मीरां, तुलसीदास, जांभोजी आदि संत भी हिन्दुओं का पथ-प्रदर्शन करने के लिए आगे आए। इसी काल में उत्तर-पश्चिमी राजस्थान में विश्नोई तथा जसनाथी सम्प्रदाय, उत्तरी-पूर्वी राजस्थान (मेवात) में लालदासी एवं चरणदासी सम्प्रदाय, मध्य-पूर्वी राजस्थान में दादूपंथी सम्प्रदाय, मेवाड़, मारवाड़ बीकानेर, किशनगढ़ एवं कोटा आदि राज्यों में रामस्नेही सम्प्रदाय एवं गोकुलिए गुसाइयों का पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय आदि प्रमुख हैं।

राजस्थान में चले इन धार्मिक आंदोलनों से राजस्थान का दक्षिणी भाग (वागड़ प्रदेश) भी अछूता न रहा। वागड़ में मावजी नामक एक संत हुए जिन्होंने उस क्षेत्र में कृष्ण-भक्ति का प्रचार किया तथा अछूत कही जाने वाली जातियों के लोगों को अपने अनुयायियों में स्थान देकर उन्हें ऊपर उठाने का प्रयास किया। [1]

मावजी

मावजी का जन्म सावला नामक ग्राम में औदीच्य ब्राह्मण कुल में संवत 1771 माघ शुक्ला पंचमी बुधवार को ब्राह्मण परिवार में हुआ था। [2] मावजी के पिता का नाम दालमरूसी और माता का नाम केशरबाई था।[3]   मावजी के पिता धर्मनिष्ठ वैष्णव भक्त थे। मावजी पर उनके व्यक्तित्व का प्रभाव पड़ा। जब मावजी 12 वर्ष के हुए तो वे घर छोड़कर माही और सोम नदियों के संगम [4]  पर एक गुफा में तपस्या करने लगे। इसी स्थान पर संवत 1784 माघ शुक्ला एकादशी को इन्हें ज्ञान प्राप्त हुआ और उसी दिन, उसी स्थान पर मावजी ने वेणेश्वर (वेण वृन्दावन) नामक धाम की स्थापना की। [5]  इसके बाद इन्होंने धर्मोपदेश देना आरम्भ किया और अपने शिष्यों में हिन्दुओं की समस्त जातियों के लोगों को सम्मिलित किया। [6]   धीरे-धीरे मावजी के अनुयायी बढ़ने लगे और इनका एक संघ बन गया जिसे निष्कलंक सम्प्रदाय कहते हैं।

मावजी ने चार विवाह किये थे जिनमें पहला और तीसरा विवाह औदीच्य ब्राह्मणों की लड़कियों से, दूसरा विवाह राजपूत कन्या से और चौथा विवाह एक पटेल की विधवा स्त्री से किया। [7]  इनकी पत्नियों के नाम मनुदेवी, रूपादेवी, बखतदेवी और साहूदेवी थे। [8]  मावजी की इन स्त्रियों में मनुदेवी से नित्यानन्द और बखतदेवी से उदयानन्द नामक दो पुत्र हुए। [9]  संवत! 1801 में मावजी का निधन हुआ। [10]

मावजी द्वारा रचित निष्कलंक सम्प्रदाय का साहित्य

मावजी बड़े ज्ञानी और योगी थे। वे थोड़ा-बहुत पढ़-लिख भी लेते थे। उन्होंने लसाड़ा के एक पटेल भक्त से कुछ रुपये मंगवाए तथा अहमदाबाद से कागज मंगवाकर धोलागढ़ [11]  में एकांतवास किया। इस अवधि में उन्होंने पांच बड़े ग्रन्थों की रचना की जिसके छन्दों की संख्या 72 लाख 96 हजार बतलाई जाती है। वाद-विवाद की शैली में लिखे एक ये ग्रन्थ ‘चौपड़ा’ कहलाते हैं। इनमें से एक चौपड़ा सावला मन्दिर में, दूसरा पुंजपुर मन्दिर में, तीसरा मेवाड़ में शेयपुर (सलूम्बर के पास) के मन्दिर में और चौथा चौपड़ा बांसवाड़ा के विश्वकर्मा मन्दिर में सुरक्षित है। कहा जाता है कि मावजी द्वारा लिखित पांचवाँ चौपड़ा मराठे अपने साथ ले गये।

मावजी की सम्पूर्ण वाणी अभी तक अमुद्रित है। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि ये चौपड़े केवल दीवाली के दिन ही बाहर निकाले जाते हैं और इसके बाद वापिस सुरक्षित रख दिये जाते हैं।

इन चौपड़ों में वर्णित विषय इस प्रकार हैं- न्याय, ज्ञान रत्नमाला, कालिगाहरण, पृथ्वी संवाद, फिर गई श्याम दुबाई, दीर्घवाणी, मांडवा (पाणी ग्रहण), अवधि, साखियां, गोपवचन, नारद-विश्वामित्र संवाद, बीवला (भजन कीर्तन), मूल संदेशी, भले रे पधारिया, जंत्रवाणी, भविष्यवाणी, गुरुगीता, निजतार, मुरली जाग्रत पुरुष, भाव मनोहर मोवा, महाराज श्याम सुजाण, माहे रे मन मान्यां, सोपड, ऐसो लाल रंगीलो श्याम, श्याम कहे सू, सुणो सखी, अम घर पयो, भंवर गीता, अमारा स्वामीजी, हानियां मेरे लाल, सकल शिरोमणि, सकल व्रजसू, बारमाली, हांजियां (कृष्ण राधा संवाद) पूंखणो (सास द्वारा तिलक करना) बिबलो, आरती, आगमवाणी, वायदा, कुदाम (कदमवृक्ष), पदमा, आत्मकैलाश, ग्रभवेल, निर्गुण, गुजवायक, जाग्रतवायक, अणुभव-कमल, ग्यान-कमल, वायक, अकलरमण आदि। [12]

मावजी के चौपड़ों में ज्ञान एवं शिक्षा के साथ-साथ भगवान कृष्ण की विभिन्न लीलाएं वर्णित हैं। रामलीला का इसमें विशेष उल्लेख है। चौपड़ों की दूसरी विशेषता इनमें अंकित भविष्यवाणियां हैं जिनमें आने वाले युग की झलक है। इन चौपड़ों की भाषा हिन्दी मिश्रित बागड़ी है।

पहला चौपड़ा ‘न्याय’ नामक ग्रन्थ के रूप में है जिसमें मावजी व उनके शिष्य जीवतदास के मध्य आध्यात्मिक विषयों के बारे में संवाद हैं। फिर ‘माहाव्य मंजरी’ नामक ग्रन्थ है। इसमें मावजी ने स्वयं को दसवां अवतार घोषित किया है। ब्रह्मा, विष्णु एवं रुद्र का क्रमशः मावजी से संवाद एवं युद्ध होता है जिसमें मावजी विजयी रहते हैं। तब पार्वती के निवेदन पर नवदुर्गा, इन्द्र आदि आते हैं किंतु ये सब भी मावजी से पराजित हो जाते हैं।

तब तैतीस करोड़ देवी-देवता मावजी को श्याम अवतार स्वीकार कर लेते हैं। इसके बाद 88,000 ऋषियों से मावजी का संवाद होता है। इसके बाद पृथ्वी और मावजी के बीच संवाद होता है। इसके बाद मावजी पृथ्वी के साथ विवाह करते हैं जिसमें समस्त संत लोग सम्मिलित होते हैं। अंत में मावजी का विश्वामित्र एवं नारदजी के साथ संवाद होता है।

इसके बाद ‘महारास-लीला’ नामक ग्रन्थ है जिसमें माहाव मनोहर (मावजी) वेण वृन्दावन (वेणेश्वर) धाम पर गोपियों के साथ रासलीला करते हैं। यह सारा ग्रन्थ स्थान-स्थान पर चित्रों से सुसजित है जिसमें विशेष रूप से रासलीला की विभिन्न झांकियाँ अंकित है। इस चौपड़े की भाषा हिन्दी मिश्रित बागड़ी है। मावजी ने लोक प्रचलित भाषा में श्रीमद्भागवत को जनसाधारण के सामने रखा है जिसमें कृष्ण का अभिनय स्वयं मावजी ने किया है ताकि कृष्ण भक्ति का प्रसार व्यापक रूप से जन-साधारण में हो सके।

मावजी ने इस चौपड़े में अपने अनुयायियों को धार्मिक एवं आचरण सम्बन्धी निर्देश भी दिये हैं यथा यज्ञ करना, गायत्री मंत्र जपना, वेदों का पाठ करना, वेदों के बताये मार्ग पर चलना, सब देवों का पूजन करना, भगवान अविनाशी के गुणों को सुनना, घटघट व्यापी ईश्वर को अपने मन में रखना, नित्य पाठ करना, तीर्थ करना, व्रत करना, निराहार रहकर एकादशी का उपवास करना, जप स्मरण करना, घट कर्म करना आदि।   [13]

आचरण सम्बन्धी निर्देशों में शील एवं दया का पालन करना, दान देना, पवित्र रहना, सत्य बोलना, बुरे कर्म नहीं करना, दूसरों की वस्तु नहीं लेना, आचरण से रहना करना, इन्द्रियों को वश में रखना, ब्राह्मणों को भोजन कराना एवं तीनों गुणों (सत, रज, तम) को कम करना आदि है।  [14] इससे स्पष्ट है कि मावजी ने वागड़ प्रदेश में कृष्ण भक्ति के साथ लोगों के आचरण को सुधारने का प्रयास किया एवं साथ ही मूर्तिपूजा, तीर्थ यात्रा एवं अन्य कर्म करना भी लाभदायक बतलाया।

निष्कलंक सम्प्रदाय

मावजी द्वारा प्रतिपादित पंथ निष्कलंक सम्प्रदाय या निकलंग सम्प्रदाय कहलाता है। इस सम्प्रदाय के अनुयायी स्वयं को वैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत समझते हैं। मावजी महाराज का धर्म सनातन धर्म की ही एक शाखा है और इनके शिष्यवर्ग में ये विष्णु के कल्कि अवतार माने जाते हैं।  [15]

मावजी के अनुयायियों में राजपूत, ब्राह्मण, सुनार, छीपे, दरजी और पटेल आदि जातियों के लोग अधिक हैं जो इनकी वाणी बड़े प्रेम से सुनते हैं और उनके रचे हुए भजनों को गाते हैं। [16]  इनके अनुयायियों में सभी गृहस्थ हैं। डूंगरपुर राज्य में इनकी विशेष मान्यता है।

मावजी ने अपने अनुयायियों में अछूत लोगों को भी स्थान दिया जो समाज में हीन समझे जाते थे। समाज के इस वर्ग में कृष्ण भक्ति का प्रचार करके मावजी ने इस पिछड़े क्षेत्र में हिन्दू धर्म को मजबूती प्रदान की। मावजी के अनुयायी हो जाने के बाद के अछूत लोग ‘साध’ कहलाये जिनका समाज में सम्मानजनक स्थान है। इस प्रकार मावजी अछूतोद्धारक के रूप में विशेष स्थान रखते हैं।

मावजी का मुख्य मन्दिर सावला में है जहाँ मावजी की शंख, चक्र, गदा और पद्म सहित घोड़े पर सवार चतुर्भुज मूर्ति स्थापित है। [17] यह दो मंजिला देवालय काष्ठकला का अद्भुत नमूना है जिसकी सेवा एवं मरम्मत हेतु डूंगरपुर राज्य की ओर से समय-समय पर भूमि अनुदान दिया गया।

3 नवम्बर 1885 को डूंगरपुर महारावल उदयसिंह ने महाराज पूरणानन्द को पहले प्रदत्त भूमि के परवानों को रद्द करके एक नया ताम्रपत्र लगभग 200 बीघा भूमि का दिया जो सावला और वेणेश्वर के मध्य में पड़ती है।  [18]

सावला मन्दिर के अतिरिक्त डूंगरपुर राज्य में पूंजपुर,[19] वेणेश्वर और ढ़ालावाला, मेवाड़ राज्य में शेषपुर तथा बांसवाड़ा राज्य में पालोदा गांव में मावजी के मन्दिर हैं। [20]

इस सम्प्रदाय की मुख्य गद्दी सावला में है जहाँ आज भी गोस्वामी तथा मठाधीश रहते हैं। मावजी के पश्चात उनके पुत्र उदयानन्द मठाधीश बने। उदयानन्द के बाद उनकी पत्नी जनकुंवरी मठाधीश बनी। जनकुंवरी ने वेणेश्वर धाम पर संवत् 1850 में मावजी का मन्दिर उस स्थान पर बनवाया जहाँ मावजी ने अपने जीवन का अधिकांश समय प्रार्थना और प्रवचन में व्यतीत किया था।  [21]

जनकुंवरी के बाद क्रमशः शिवानन्द आसपुर तहसील के लीलावासा ग्राम के, पूरणानन्द बांसवाड़ा तहसील के रोहिड़ा ग्राम के, कमलानन्द बांसवाड़ा तहसील के पालोदा ग्राम के, परमानन्द बांसवाड़ा तहसील के नागदेला ग्राम के तथा देवानन्द सागवाड़ा तहसील के सरोदा ग्राम के मठाधीश बने।[22]  यह परम्परा आज भी चल रही है।

मावजी की गद्दी के महन्त अविवाहित रहते हैं और औदीच्य ब्राह्मणों में से किसी को अपना शिष्य बना लेते हैं। निष्कलंक सम्प्रदाय के अनुयायी सांवला मन्दिर के महन्त के पास आकर कंठी बंधवाते हैं।  [23]

निष्कलंक सम्प्रदाय का सबसे बड़ा मेला वेणेश्वर धाम पर माघ शुक्ला पूर्णिमा को सोम, मही और जाखम नदियों के त्रिवेणी संगम पर भरता है। इस क्षेत्र के रहने वाले भील, मीणा, रावत, कोलो, कुरमी, खांट, बुनकर आदि पिछड़ी जाति के लोग निष्कलंक सम्प्रदाय तथा वेणेश्वर मेले में अत्यधिक श्रद्धा रखते हैं और हजारों की संख्या में इस मेले में सम्मिलित होते हैं। वेणेश्वर धाम आदिवासी जातियों के लिए तीर्थ स्थल है।

सन्दर्भ


[1]   पेमाराम, मावजी और निष्कलंक सम्प्रदाय, प्रोसीडिंग्स ऑफ राजस्थान हिस्ट्री कांग्रेस।

[2] कल्याण, अगस्त 1935, पृ. 817.

[3] मावजी चोपड़ा, हस्तलिखित ग्रन्थ, संवत् 1789, पूंजपुर मन्दिर, पृ. 494.

[4] यह स्थान सायला से दो मील दूर है।

[5] बेणेश्वर मन्दिर में लगे शिलालेख (साइज 12’’ × 9’’) के आधार पर संवत् 1850 माघ शुक्ला एकादशी।

[6] डा. जी. एन. शर्मा, सोशल लाइफ इन मेडिवल राजस्थान, पृ. 238.

[7] ओझा, डूंगरपुर राज्य का इतिहास, पृ. 17.

[8]   बेणेश्वर मन्दिर में लगे शिलालेख (साइज 12’’ × 9’’) के आधार पर संवत् 1850.

[9] वही, संवत् 1850.

[10] कल्याण, अगस्त 1935, पृ. 818.

[11] यह ग्राम सलूम्बर (ड्रंगरपुर) से 6 मील पूर्व में स्थित है।

[12] सावला मन्दिर के तत्कालीन महन्त श्री देवानन्द से प्राप्त जानकारी के आधार पर।

[13] मावजी चौपड़ा, हस्त ग्रन्थ, पृ. 147, संवत् 1789 पूंजपुर।

[14] वही, पृ. 148.

[15] ओझा, डूंगरपुर राज्य का इतिहास, पृ. 17.

[16] वही, पृ. 17.

[17] ओझा, डूंगरपुर राज्य का इतिहास पृ. 17.

[18]   तांबापत्र नं.204, 3 नवम्बर 1885 साइज 19 ×9‘‘ सावला मन्दिर से प्राप्त।

[19] पूंजपुर का मन्दिर मावजी की पत्नी शाहूदेवी द्वारा बनवाया हुआ है।

[20] ओझा, डूंगरपुर राज्य का इतिहास, पृ. 18.

[21] शिलालेख (12 ’’ × 9 ’’) संवत् 1850 माघ शुक्ला एकादशी, बेणेश्वर मन्दिर।

[22] तत्कालीन मठाधीश श्री देवानन्द से प्राप्त जानकारी के आधार पर।

[23]   ओझा, डूंगरपुर राज्य का इतिहास, पृ. 18.

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