थार रेगिस्तान में भैंरूजी को एक प्रमुख देवता के रूप में पूजा जाता है। ये मुख्यतः क्षेत्रपाल के रूप में पूजे जाते हैं। इनके कई स्वरूपों की पूजा होती है जिन्हें काले-गोरे भैंरूजी, तीन पैरों के भैंरूजी, त्रिकाल भैरव, बटुक भैरव आदि अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है।
थार रेगिस्तान के मध्य में स्थित प्राचीन कालीन किराडू मंदिर समूह से बटुक भैरव के निर्वस्त्र स्वरूप की प्रतिमा मिली है। यह द्विभंग मुद्रा में है।
बटुक भैरव की चार भुजाएं प्रदर्शित की गई हैं। दक्षिण अधो कर में खड्ग है जबकि दक्षिण ऊर्ध्व कर में आयुध स्पष्ट नहीं है। वार्म ऊध्व कर में एक कपाल है तथा वाम अधो कर में एक नरमुण्ड के केश पकड़े हुए हैं। भैरव के सिर पर मुकुट है तथा मुख के भाव उग्र हैं। आंखें बड़ी-बड़ी, भौंहें तनी हुई, कानों में कुण्डल, गले एवं कमर पर सर्प-मालाओं का अंकन किया गया है।
भैरव देव के बाएं पांव के पास नरमुण्ड का भक्षण करने के लिए दो पांव पर खड़े हुए और ऊपर की ओर मुंह किए हुए श्वान का अंकन किया गया है।
किराडू मंदिर समूह में ही सोमेश्वर मंदिर के दक्षिण दिशा की बाह्य भित्ति पर त्रिपाद भैरव का अंकन किया गया है। यह भैरव त्रिभंग मुद्रा में स्थानक एवं स्त्री रूप में प्रदर्शित किया गया है जिसमें भैरव की तीन टांगें तथा चार भुजाएं दिखाई गई हैं। तीन पैरों के भैंरूजी केवल रेगिस्तान में ही देखने को मिले हैं। वाम ऊर्ध्व हाथ में अग्नि है तथा शेष तीनों कर खण्डित हैं। पांवों के पास एक प्रेत लेटा हुआ है।
किराडू के मंदिर समूह से कुछ दूरी पर स्थित पहाड़ों में सच्चियाय माता का एक प्राचीन मंदिर है जिसमें मूल गंभारे के एक गवाक्ष में एक अश्वारोही की प्रतिमा है तथा पीछे की ओर एक महिला की खड़ी प्रतिमा है। इस अश्वारोही को त्रिकाल भैरव कहा जाता है जिसके नीचे ई.1459 का एक शिलालेख है।
जोधपुर के निकट मण्डोर उद्यान में देवताओं की साल के पास काले-गोरे भैंरूजी और विनायक की मूर्तियां स्थापित हैं। ये तीनों प्रतिमाएं विशाल चट्टान पर उत्कीर्ण की गई हैं। ये महाराजा अजीतसिंह के समय की हैं।
बाईं ओर काला भैंरू तथा दाहिनी ओर गोरा भैंरू विराजमान हैं जिन पर चंवर ढुलाती हुई महिलाएं उत्कीर्ण की गई हैं। इन दोनों के बीच में गणेशजी विराजमान हैं।
काले-गोरे भैंरूजी देवी के गण माने जाते हैं। दोनों प्रतिमाएं चतुर्भुजी है। इनके हाथों में कटार, त्रिशूल, डमरू तथा खप्पर हैं। इनके सिर पर छत्र बने हैं। पैरों के पास भैंरूजी का वाहन श्वान भी उपस्थित है।
गोरे भैंरू के सिर पर सामान्य मुकुट है जबकि काले भैंरू का मुकुट शेषनाग आकृति में है। गोरे भैंरू को मावा, मखाने, चिरौंजी आदि मिष्ठान्न के भोग लगते हैं
जबकि काले भैंरू अघोर परम्परा के जान पड़ते हैं। उन्हें मांस तथा मदिरा का भी भोग लगता है।
काले-गोरे भैंरूजी के बीच में गणेशजी विराजमान हैं। उनके एक हाथ में लड्डू, दूसरे में कमल, तीसरे में तलवार तथा चौथे में परशु है। उनके दोनों तरफ रिद्धि-सिद्धि बैठी हैं। गणेशजी के गले में विषधर लिपटे हैं किंतु पैरों के पास गणेशजी के वाहन मूषक निर्भय होकर बैठे हैं।
विवाह के बाद नवदम्पति यहाँ जात देने आते हैं जिनके साथ थाली एवं ढोल बजाते हुए उनके परिजन भी आते हैं।
दूल्हा-दुल्हन, दोनों भैंरू प्रतिमाओं के सामने बैठकर सुखी दाम्पत्य जीवन की कामना करते हैं। दुल्हन थाली और ढोल की थाप पर नृत्य करके भैरूं देवता को प्रसन्न करती हैं ताकि उसका सुहाग बना रहे।
भैंरूजी के स्थान पर मेजाल का भी आयोजन किया जाता है। इसमें गेहूं तथा चने की घूघरी बनाकर थाली-ढोल के संगीत के बीच आकाश की ओर उछाली जाती है। संतान प्राप्ति के लिए भैरूंजी के सामने आगिनी उत्सव का आयोजन किया जाता है।
इसमें लापसी बनाकर भैरूंजी को भोग लगाया जाता है। यह प्रसाद यहीं बांट दिया जाता है, घर नहीं ले जाया जाता। बालक पैदा होने के बाद उसका झडूला भी यहीं उतरवाया जाता है।
प्रतिवर्ष भाद्रपद तथा पौष माह की अमावस्याओं पर नगर के समस्त फूल-विक्रेता, फूल मंडली का आयोजन करते है। इस दिन कोई भी फूल-विक्रेता, फूल नहीं बेचता और फूलों के सारे टोकरे भैरांे मूर्तियों को चढ़ा दिए जाते हैं।
वर्ष में एक बार भागा करने की प्रथा है। इस दिन दोनों प्रतिमाओं को नहलाकर साफ किया जाता है तथा तेल, सिंदूर और माली-पन्ना चढ़ाया जाता है। इस स्थान के पास ही भैरव बावड़ी है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता