तिलवाड़ा की सभ्यता आज से लगभग ढाई हजार साल पहले आरम्भ हुई तथा तीन चरणों से होकर गुजरी। तिलवाड़ा से सभ्यता के तीन स्पष्ट चरण प्राप्त होते हैं ये तीनों स्तर एक के ऊपर एक स्थित हैं। इससे अनुमान होता है कि पहला स्तर रेत में दबने से उसी के ऊपर दूसरा स्तर अस्तित्व में आया तथा जब दूसरा स्तर रेत में दब गया, तब तीसरा स्तर उसी के ऊपर बसा।
जिस काल में यह सभ्यता बसी होगी, उस काल में यहाँ लूनी या उसकी कोई सहायक नदी बहती होगी जो वर्ष भर बहती होगी। वर्तमान समय में यह लूनी के बहाव क्षेत्र में स्थित है जो वर्ष में केवल कुछ ही दिन बहती है। पूरा क्षेत्र रेगिस्तानी है वर्तमान समय में यह पूरा क्षेत्र रेगिस्तानी है किंतु तिलवाड़ा सभ्यता के काल में यह क्षेत्र अवश्य ही हरा-भरा रहा होगा।
वर्तमान समय में यह क्षेत्र थार मरुस्थल में स्थित है। ऐसे क्षेत्र में प्राचीन काल में मानव बस्ती का बसना संभव नहीं था। अतः उस काल में यहाँ जल एवं वनस्पति की पर्याप्त उपलब्धता रही होगी।
पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग राजस्थान, हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय पश्चिम जर्मनी तथा डेक्कन कालेज पूना के सहयोग से राजस्थान के बाड़मेर जिले में स्थित तिलवाड़ा ग्राम के निकट बीदड़ा नामक छोटे से बालुका-स्तूप (धोरे) का ई.1966-67 में उत्खनन किया गया। अब यह क्षेत्र बालोतरा जिले में शामिल कर लिया गया है।
राजस्थान में लघु-पाषाण उपकरण सम्बन्धी किसी भी प्राचीन स्थल का यह प्रथम उत्खनन है, जिससे अरावली के पश्चिम में लूनी नदी की घाटी में पनपी सभ्यता के सम्बन्ध में जानकारी मिली है। तिलवाड़ा में सभ्यता के तीन स्पष्ट स्तर मिले हैं।
तिलवाड़ा की सभ्यता से प्राप्त उत्तरपाषाण कालीन अवशेष लगभग दो हजार वर्ष पुराने हैं क्योंकि तिलवाड़ा के निवासियों ने लोहे का प्रयोग भी किया। तिलवाड़ा सभ्यता के लोगों ने अपनी देह को सजाने के लिए पत्थर, शीशे और हड्डियों से बने मनकों का प्रयोग किया। लोहे के उपकरण तथा शीशे आदि के मनके लघु पाषाण उपकरणों के प्रयोग की अन्तिम रेखा निर्धारित करते हैं।
प्राचीन तिलवाड़ावासी वृताकार झौंपड़ियों में रहते थे जो आज भी इस क्षेत्र में प्रचलित झौंपड़ियों जैसी ही थीं। ये लोग पशु-पालन से भी परिचित थे, परन्तु इनकी अर्थ-व्यवस्था मुख्यतः शिकार पर आधारित थी। तिलवाड़ा सभ्यता के लोग चाक पर बने मृत्तिका पात्रों को उपयोग करते थे।
धरती से 90 सेन्टीमीटर नीचे पाँच आवासीय स्थलों के अवशेष मिले हैं। एक गोलाकार झूंपे के अवशेष बताते हैं कि वह तीन मीटर व्यास का था, उसकी दीवारें मिट्टी से तथा छत तिनकों से बनी थी। इसके आंगन में समतल चौरस पत्थरों का प्रयोग हुआ है। एक सिलबट्टा, मृद्भाण्ड तथा हाण्डी आदि अन्य कई बर्तन मिले हैं। चूल्हों में राख, जली हुई हांडियां, बर्तन तथा छोटे टुकड़े मिले हैं।
मृद्भाण्ड चाक से बने हैं जो काफी पकाए गए थे तथा सलेटी व लाल रंग के हैं। सलेटी रंग की हाण्डियां अलग-अलग नापों की हैं तथा उनके तले जले हुए हैं जिनसे प्रतीत होता है कि वे भोजन बनाने के काम आती थीं। इन पर अलंकरण नहीं है। लाल पात्रों में थाली व लोटे हैं। यहाँ के लघु उपकरण स्थानीय सामग्री, स्फटिक, बिल्लोर, चर्ट आदि के बने हैं। सूक्ष्म उपकरणों में पत्तिये तिर्यक, तिरछे, कुंठित फलक, अपरिष्कृत फलक, त्रिकोण, वेधनी तथा कुछ चौकोर उपकरण मिलते हैं।
तिलवाड़ा की ऊपरी सतह में लोहे के टुकड़े तथा कांच की चूड़ियों के टुकडे़ भी मिले हैं परन्तु कुछ नीचे से हड्डी के मनके, सीप की चूड़ी का एक टुकड़ा तथा लोहे के कुछ टुकडे़ मिले हैं। ऐसे अग्निकुण्ड भी मिले हैं जिनसे मानव-अस्थि की भस्म प्राप्त हुई है। इससे अनुमान होता है कि इस काल में शवों का अग्नि-संस्कार किया जाता था। एक अस्थि-अवशेष के साथ मृदपात्र भी प्राप्त हुए हैं। इससे अनुमान होता है कि इस काल में मृतकों के शवों को गाड़ने की भी परम्परा थी तथा उनके साथ जल से भरे या खाद्य-सामग्री से युक्त मृद्भाण्ड भी रखे जाते होंगे।
तिलवाड़ा की सभ्यता से प्राप्त मृत-पशुओं के अस्थि अवशेषों से ज्ञात होता है कि इस युग में गाय, बकरी, गीदड़ या कुत्ता, सूअर, चित्तीदार हरिण, नेवला आदि इस क्षेत्र में विचरण करते थे। तिलवाड़ा की ऊपरी सतह से लोहे की एवं कांच की चूड़ियों की प्राप्ति हुई है। यह इस क्षेत्र की सभ्यता का तीसरा चरण है तथा सबसे बाद का है। डॉ. बी. एन. मिश्रा ने इनका समय ई.पू.500 से ई.पू.200 के बीच का माना है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता