Saturday, September 21, 2024
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जालोर दुर्ग (स्वर्णगिरि)

जालोर दुर्ग जालोर नगर के दक्षिण में सूकड़ी नदी के किनारे स्थित 1200 फुट ऊंची पहाड़ी पर लगभग पौन किलोमीटर लम्बे तथा लगभग आधा किलोमीटर चौड़े क्षेत्र में बना हुआ है। ऊंची पहाड़ी पर स्थित होने से यह गिरि दुर्ग तथा मरुस्थल से घिरा होने के कारण यह धन्व दुर्ग की श्रेणी में आता है।

पक्के प्राकार से घिरा हुआ होने के कारण यह पारिघ दुर्ग एवं जंगल के बीच स्थित होने से एरण दुर्ग की श्रेणी में आता है। दुर्ग का विस्तार 295 मीटर गुणा 145 मीटर क्षेत्र में है। धरातल से इसकी ऊंचाई 425 मीटर है।

दुर्ग के निर्माता

जालोर दुर्ग का निर्माण मण्डोर के परिहार शासक नागभट्ट (प्रथम) (शासन काल ई.730-60) ने करवाया। नागभट्ट (प्रथम) से प्रतिहारों की अनेक शाखाओं का उद्भव हुआ तथा प्रतिहारों की प्रमुख शाखा जालोर में स्थापित हुई। कुवलयमाला (रचनाकाल ई.778) में जालोर को नागभट्ट की राजधानी बताया गया है।

अन्य साक्ष्यों के आधार पर कुछ विद्वान भीनमाल को उसकी राजधानी बताते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि नागभट्ट (प्रथम) सामारिक आवश्यकताओं के कारण अपनी राजधानी को मण्डोर से मेड़ता, भीनमाल तथा जालोर ले जाता रहा। नागभट्ट (प्रथम) के बाद मण्डोर, जालोर, अवन्ति (उज्जैन) तथा कन्नौज के प्रतिहारों की नामावली अलग-अलग प्राप्त होती है।

जालोर, अवन्ति तथा कन्नौज की नामावलियाँ नागभट्ट (प्रथम) से प्रारम्भ होती हैं। नागभट्ट के कम से कम दो पुत्रों का उल्लेख इतिहास में आता है। पर्याप्त संभव है कि नागभट्ट के पुत्रों की संख्या इससे अधिक रही हो। नागभट्ट (प्रथम) के बाद उसका दूसरा पुत्र भोज, मेड़ता अथवा मण्डोर की गद्दी पर बैठा जबकि उसका भतीजा कक्कु भीनमाल अथवा जालोर की गद्दी पर बैठा।

दुर्गम मार्ग

दुर्ग तक पांच किलोमीटर लम्बा एक टेढ़ा-मेढ़ा पहाड़ी रास्ता जाता है जिसकी ऊंचाई कदम-कदम पर बढ़ती हुई प्रतीत होती है। इस मार्ग पर कुछ प्राचीन मंदिर स्थित हैं।

दुर्ग की सुरक्षा व्यवस्था

पूरा दुर्ग पक्के परकोटे से सुरक्षित है। रास्ते की चढ़ाई को पार करने पर प्रथम द्वार सूरजपोल आता है। धनुषाकार छत से आच्छादित यह द्वार आज भी बड़ा सुन्दर दिखाई देता है। इस पर छोटे-छोटे कक्ष बने हुए हैं जिनके नीचे के अन्तःपार्श्वों में दुर्ग रक्षक रहा करते थे। तोपों की मार से बचने के लिए एक विशाल प्राचीर घूमकर दरवाजे को सामने से ढक लेती है।

यह दीवार लगभग 25 फुट ऊँची तथा 15 फुट मोटी है। इसके पश्चात् लगभग आधा मील चलने पर दुर्ग का दूसरा द्वार आता है जो ध्रुव पोल कहलाता है। यहाँ की नाकाबन्दी भी बड़ी मजबूत थी। इस मोर्चे को जीते बिना दुर्ग में प्रवेश करना असंभव था। तीसरा द्वार चान्द पोल कहलाता है जो अन्य द्वारों से अधिक भव्य, मजबूत एवं सुन्दर है।

यहाँ के रास्ते के दोनों तरफ साथ चलने वाली प्राचीर कई भागों में विभक्त होकर गोलाकार सुदीर्घ पर्वत प्रदेश को समेटती हुई फैल जाती है। तीसरे से चौथे द्वार के बीच का स्थल बड़ा सुरक्षित है। चौथा द्वार सिरे पोल कहलाता है। यहाँ पहुँचने से पहले प्राचीर की एक पंक्ति बांई ओर से ऊपर उठकर पहाड़ी के शीर्ष भाग को छू लेती है और दूसरी प्राचीर, दाहिनी और घूमकर गिरि-शृंगों को समेटकर चक्राकार घूमती हुई प्रथम प्राचीर से आ मिलती है। सबसे अंत में लाल पोल स्थित है। कभी इन्हें पाटण पोल, दिल्ली पोल, चित्तौड़ पोल और रामपोल के नाम से भी जाना जाता था।

मानसिंह के महल

मानसिंह के महलों में प्रवेश करते ही एक विशाल चौकोर सभा मण्डप आता है जिसके दायीं ओर एक हॉल है। इस हॉल में एक टूटी-फूटी तोपगाड़ी एवं एक विशाल तोप पड़ी है। कुछ तोपें दुर्ग परिसर में इधर-उधर बिखरी पड़ी हैं। मानसिंह महल के ठीक नीचे आम रास्ते की तरफ ऊंचाई पर झरोखे बने हुए हैं जो प्रस्तर कला की उत्कृष्ट निशानी हैं। इसी महल में दो मंजिला रानी महल है। उसके चौक में भूमिगत बावड़ी बनी हुई है जो अब दर्शकों के लिये बन्द कर दी गई है। महल में बड़े-बड़े कोठार बने हुए हैं जिनमें धान, घी आदि भरा रहता था।

जालोर दुर्ग के मंदिर

मानसिंह महल के पीछे पगडण्डियों से एक रास्ता शिव मंदिर की ओर जाता है। यहाँ एक ही श्वेत प्रस्तर का विशाल शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर के पीछे से बावड़ी की तरफ एक रास्ता जाता है जहाँ पर चामुण्डा देवी का बहुत छोटा मन्दिर बना हुआ है। इस मन्दिर में एक शिलालेख लगा हुआ है जिसमें युद्ध से घिरे हुए राजा कान्हड़देव को देवी भगवती द्वारा चमत्कारिक रूप से तलवार पहुँचाने की सूचना उत्कीर्ण है।

वीरमदेव की चौकी

वीरमदेव की चौकी पहाड़ी की सबसे ऊँची जगह पर दक्षिण-पूर्व की ओर स्थित है। यहाँ से दूर-दूर तक का दृश्य देखा जा सकता है। यहाँ जालोर राज्य का ध्वज लगा रहता था। वर्तमान में इसके पास ही नवनिर्मित मस्जिद है।

दुर्ग स्थित जलाशय

जालोर दुर्ग में जाबालि कुण्ड, सोहनबाव सहित कई जलाशय एवं बावड़ियां बने हुए हैं।

मध्यकाल में जालोर दुर्ग का सामरिक महत्व

मध्यकाल में अफगानिस्तान से थार मरुस्थल होते हुए गुजरात एवं दक्षिण भारत के राज्यों को जाने वाला एक प्रमुख मार्ग जालोर से होकर गुजरता था। इसलिये भारत में मुसलमानों के प्रवेश के साथ ही मरुस्थलीय राज्यों के शासकों और मुस्लिम आक्रान्ताओं के बीच युद्ध आरम्भ हो गये।

इस मार्ग पर स्थित जालोर दुर्ग, मरुस्थलीय प्रदेश का अन्तिम शक्तिशाली दुर्ग था। प्रतिहार राजा नागभट्ट (प्रथम) ने इस दुर्ग का निर्माण मुसलमानों को देश में प्रवेश करने से रोकने के लिये किया। अल्लाउद्दीन खिलजी को रणथम्भौर तथा चित्तौड़ के दुर्ग जीतने में जितना परिश्रम करना पड़ा था उससे कहीं अधिक परश्रिम उसे जालोर दुर्ग को हस्तगत करने में करना पड़ा।

दिल्ली के मुस्लिम शासकों के लिए गुजरात तथा दक्षिण विजय का स्वप्न साकार करने के लिए यह आवश्यक था कि जालोर दुर्ग पर उनका अधिकार हो। इसलिये दिल्ली सल्तनत के सभी प्रमुख सुल्तानों ने जालोर दुर्ग पर आक्रमण कर उस पर अधिकार जमाने की चेष्टा की। हिन्दू शासक इस दुर्ग से अपना अधिकार त्यागने को तैयार नहीं थे। इस कारण जालोर दुर्ग कई बार हिन्दुओं के हाथ से निकलकर मुसलमानों के अधिकार में जाता रहा।

परमारों के अधिकार में

कई विद्वान जालोर दुर्ग को परमारों अथवा दहियों द्वारा बनवाया गया बताते हैं। संभव है कि प्रतिहार राजा नागभट्ट (प्रथम) द्वारा बनवाया गया दुर्ग अत्यंत छोटा रहा हो, बाद में परमारों ने इसमें महत्त्वपूर्ण निर्माण करवाये हों। इसलिये इसे परमारों द्वारा बनवाया गया माना जाता हो। चौमुख जैन मन्दिर से मानसिंह के महलों की ओर जाते समय ठीक तिराहे पर एक परमार कालीन कीर्ति स्तम्भ एक छोटे चबूतरे पर खड़ा है।

संभवतः परमारों की यही अन्तिम निशानी इस किले में बची है। मनुष्य के कद का लाल पत्थर का यह कीर्ति स्तम्भ अपनी कलापूर्ण गढ़ाई के कारण बरबस ही पर्यटकों का ध्यान अपनी ओर खींच लेता है। वर्षों पूर्व यह स्तम्भ निकट स्थित बावड़ी की सफाई करते समय मिला था, जिसे यहाँ स्थापित कर दिया गया।

चौलुक्यों के अधिकार में

परमारों के बाद कुछ समय के लिये यह दुर्ग गुजरात के चौलुक्यों के अधिकार में रहना भी अनुमानित है।

चौहानों के अधिकार में

नाडोल के चौहान राजकुमार कीर्तिपाल चौहान (कीतू) ने ई.1181 में जालोर दुर्ग पर आक्रमण करके अधिकार कर लिया। उस समय यह दुर्ग परमारों के अधिकार में था। कीतू के वंशज सोनगरा चौहान कहलाये। उसके पुत्र समरसिंह (ई.1199 से 1205 के बीच) ने जालोर दुर्ग के चारों ओर नया परकोटा बनवाया तथा उसमें अनेक युद्ध उपकरण लगवाये। समरसिंह ने दुर्ग में अन्न भण्डार और शस्त्रागार भी बनवाये। समरसिंह के उत्तराधिकारी उदयसिंह (ई.1205-57) ने भी तेरहवीं शताब्दी में दुर्ग में अनेक निर्माण करवाये।

इल्तुतमिश का आक्रमण

ई.1221 में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने जालोर दुर्ग पर आक्रमण किया। जालोर के सोनगरा चौहान शासक उदयसिंह ने गुजरात के वाघेला शासक के साथ मिलकर संयुक्त मोर्चा बनाया। इस कारण इल्तुतमिश युद्ध किये बिना ही लौट गया।

अलाउद्दीन खिलजी का आक्रमण

जब अलाउद्दीन खिलजी सोमनाथ पर आक्रमण करने के लिये दिल्ली से गुजरात जाने लगा तो जालोर के राजा कान्हड़देव ने खिलजी की सेना को अपने राज्य से होकर जाने देने से मना कर दिया। उस समय तो खिलजी की सेना ने अपना मार्ग बदल लिया किंतु गुजरात विजय के बाद उसने अपने सेनापति कमालुद्दीन को जालोर दुर्ग पर आक्रमण करने भेजा। लगभग 13 वर्ष तक घेराबंदी चली जिसे खिलजी तोड़ नहीं सका। बाद में ई.1314 में कान्हड़दे के सामंत विक्रम की गद्दारी से किले का पतन हुआ।

जालोर दुर्ग में जौहर

जब अलाउद्दीन खिलजी ने किला तोड़ लिया तो दुर्ग में निवास कर रही सभी जातियों की 1584 महिलाओं ने जौहर किया। जालोर में ऐसा कोई घर नहीं बचा था जिसमें से जौहर का धूम्र उठकर आकाश तक न पहुंचा हो। ऐसा कोई घर नहीं था जिसके पुरुष सदस्य तलवार लेकर नहीं लड़े हों।

गायक, छींपा, गांछा, माली, तेली, तम्बोली, नाई, धोबी आदि अठारह वर्णों के लोग अपने हाथों में तलवार लेकर लड़े और वीरगति को प्राप्त हुए। कान्हड़देव प्रबंध के अनुसार पांच हजार हिन्दुओं ने अपने प्राण देकर बारह हजार मुसलमानों के प्राण लिये।

मुसलमानों के अधिकार में

युद्ध समाप्त हो जाने के बाद साढ़े तीन दिन तक कान्हड़देव जीवित रहा। उसका क्या हुआ, कुछ पता नहीं। युवराज वीरमदेव दुर्ग में लड़ता हुआ काम आया। उसका सिर काटकर दिल्ली भेजा गया। सोनगरा चौहान शासकों के समाप्त हो जाने पर जालोर दुर्ग पर बिहारी पठानों का अधिकार हो गया।

राठौड़ों के अधिकार में

लोदी काल में दिल्ली सल्तनत के कमजोर पड़ जाने पर जोधपुर के राव गांगा ने जालोर दुर्ग पर आक्रमण किया। जालोर के शासक बिहारी पठान मलिक अली शेर खां ने चार दिन तक राठौड़ों की सेना का सामना किया तथा राठौड़ों को पीछे हटना पड़ा। राव गांगा के पश्चात् उसके पुत्र मालदेव ने जालोर पर आक्रमण करके बिहारी पठानों से दुर्ग छीन लिया। इसके बाद यह दुर्ग राठौड़ों के अधिकार में ही रहा।

जब महाराजा विजयसिंह के पौत्र भीमसिंह ने जोधपुर राज्य पर बलपूर्वक अधिकार कर लिया तब विजयसिंह का अन्य पौत्र मानसिंह जोधपुर से भागकर जालोर आ गया। भीमसिंह ने सिंघवी इन्द्रराज की अध्यक्षता में एक सेना भेजी किंतु दस साल के घेरे के बाद भी वह सेना जालोर दुर्ग पर अधिकार नहीं पा सकी।

अंत में जब भीमसिंह मर गया, तब इन्द्रराज सिंघवी मानसिंह को ही जोधपुर का राजा बनाकर और हाथी पर बैठाकर जोधपुर ले गया। मानसिंह के काल में इस दुर्ग में अनेक निर्माण हुए जिनमें से कुछ आज भी देखे जा सकते हैं।

दुर्ग की वर्तमान स्थिति

अब दुर्ग की प्राचीर, मानसिंह के महल तथा एकाध प्राचीन मन्दिर को छोड़कर शेष निर्माण नष्ट हो गए हैं। वर्तमान में जालोर दुर्ग में राजा मानसिंह का महल, दो बावड़ियां, एक शिव मन्दिर, देवी जोगमाया का मन्दिर, वीरमदेव की चौकी, तीन जैन मन्दिर, मल्लिक शाह की दरगाह तथा मस्जिद स्थित है। जैन मन्दिरों में पार्श्वनाथ का मन्दिर सबसे बड़ा एवं भव्य है।

स्वतंत्रता सेनानियों की जेल

अंग्रेजों के विरुद्ध किए गए स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान गणेशीलाल व्यास, मथुरादास माथुर, फतहराज जोशी एवं तुलसीदास राठी आदि नेताओं को इस किले में नजरबन्द किया गया था।

अतिक्रमणों का शिकार

आजादी के बाद इस दुर्ग पर कुछ लोगों ने अंधाधुंध निर्माण करवाये हैं तथा बहुत से क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लिया है।

लेखकों की दृष्टि में जालोर दुर्ग

बारहवीं शताब्दी में मुहम्मद गौरी के समकालीन लेखक हसन निजामी ने ताजुल मासिर में लिखा है कि जालोर बहुत ही शक्तिशाली एवं अजेय दुर्ग है। सोलहवीं सदी के ग्रंथ कान्हड़दे प्रबंध के लेखक पद्मनाभ ने लिखा है कि इस दुर्ग की कोई समानता नहीं है। इसके बराबर आसेर, ग्वालियर, माधवगढ़ के दुर्ग भी नहीं हैं।

कविताओं में जालौर दुर्ग

 जालौर दुर्ग के बारे में उन्नीसवीं सदी के प्रारंभ में जोधपुर नरेश मानसिंह ने लिखा है-

      आभ फटै धर उलटै, कटै बगत रा कोर।

      सीस पड़ै, धड़ तड़फड़े, जद छूटै जालौर।।

किसी अन्य कवि ने लिखा है-

      विषम दुर्ग सुणीइ घणा, इसिउ नहीं आसेर।

      जिसउ जालहुर जाणीइ, तिसउ नहीं ग्वालेर।।

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