Saturday, October 12, 2024
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गढ़ बीठली (तारागढ़)

गढ़ बीठली को तारागढ़ भी कहते हैं। राजस्थान में दो तारागढ़ हैं। एक अजमेर का तारागढ़ और दूसरा बूंदी का तारागढ़। अजमेर का तारागढ़ अथवा गढ़ बीठली अजमेर जिला मुख्यालय पर अरावली की पहाड़ियों पर स्थित है।

गढ़ बीठली राजस्थान के लगभग केन्द्र में स्थित है। यह अजमेर नगर के दक्षिण-पश्चिम में सबसे उंची एवं खड़ी पहाड़ी पर लगभग 80 एकड़ क्षेत्र में फैला हुआ है। इस पहाड़ी की ऊँचाई समुद्र तल से 870 मीटर तथा अपने निकट के धरातल से 265 मीटर है। वाटसन के अनुसार इस दुर्ग की ऊँचाई अपने आधार से 1300 से 1400 फुट है जबकि कर्नल टॉड के अनुसार इसकी ऊंचाई 800 फुट है। यह पार्वत्य दुर्ग है।

गढ़ बीठली के निर्माता एवं नामकरण

निर्माता

कुछ पुस्तकों के अनुसार इसे सुग्रीव के भाई बाली ने अपनी पत्नी तारा के नाम पर बनाया किंतु यह सत्य प्रतीत नहीं होता। कुछ पुस्तकों में संदर्भ मिलता है कि यह भारत में किसी भी पहाड़ी पर बनने वाला पहला दुर्ग है किंतु यह कथन भी सत्य प्रतीत नहीं होता। तारागढ़ का निर्माण ई.683 के आासपास हुए चौहान शासक अजयपाल ने आंरभ करवाया। जिस पहाड़ी पर तारागढ़ बना हुआ है, वह पहाड़ी इसी राजा के नाम से अजगंध कहलाती थी। उसके वंशज चौहान अजयराज ने ई.1113 के आसपास इस दुर्ग में बड़े निर्माण करवाये।

नामकरण

चौहान शासकों ने इस दुर्ग का नाम अजयमेरू रखा। यह नाम पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) के शासनकाल तक चलता रहा। चौहान शासकों के शिलालेखों में इस दुर्ग को अजयमेरु ही लिखा गया है। जब ई.1505 में यह दुर्ग चित्तौड़ के सिसोदियों के अधीन हुआ तब महाराणा रायमल (ई.1473-1509) के पुत्र पृथ्वीराज ने इस दुर्ग में कुछ महल आदि बनवाये तथा इसका नाम अपनी रानी ताराबाई के नाम पर तारागढ़ रख दिया।

ईसा की सत्रहवीं शताब्दी में जब यह दुर्ग मुगलों के अधीन था, तब शाहजहाँ के सेनापति बिट्ठलदास गौड़ (ई.1644 से 1656) ने इस दुर्ग का जीर्णोद्धार करवाया तथा इसका नामकरण गढ़ बीठली अथवा गढ़ बीठली कर दिया।

गढ़ बीठली की सुरक्षा व्यवस्था

प्रवेश व्यवस्था

गढ़ बीठली में प्रवेश करने के लिये काफी ऊँचाई तक घुमावदार रास्ता पार करना पड़ता है तथा एक-एक करके लक्ष्मण पोल, फूटा दरवाजा, बड़ा दरवाजा, भवानी पोल, हाथी पोल एवं इंद्र पोल नामक दरवाजे पार करने पड़ते हैं। अंग्रेजों के अधिकार में जाने से पूर्व इस दुर्ग में जाने का मार्ग इन्द्रकोट की तरफ से था जो खड़ी चढ़ाई वाला संकरा मार्ग है और नगर के भीतर से होकर जाता है।

ई.1832 में दुर्ग की प्राचीर को तोड़ने एवं सैनिक आवास बनाने के साथ-साथ दो पक्की सड़कों का निर्माण किया गया। एक सड़क, दुर्ग को नसीराबाद छावनी से जोड़ती है तथा दूसरी सड़क, इन्द्रकोट से। नगर से एक पगडण्डी नाना साहब के झालरे तथा खिड़की दरवाजे को तथा एक अन्य पगडण्डी सम्बलपुर से खिड़की बुर्ज तक जाती है। खिड़की बुर्ज तथा फतेह बुर्ज दुर्ग में प्रवेश के लिये अंतिम द्वार हैं।

सुरक्षा व्यवस्था

प्रभावक चरित में अजमयेरू दुर्ग की अलंघ्यता का वर्णन किया गया है तथा दुर्ग के चारों ओर कंटीले वृक्षों के घेरे का भी उल्लेख किया गया है। इस दुर्ग की प्राचीर पहाड़ी के किनारे पर न बना कर कुछ अन्दर की ओर बनाई गई हैं ताकि आपात्काल में दुर्ग रक्षक सेना, दुर्ग की प्राचीर के बाहर खड़ी होकर शत्रु के विरुद्ध अस्त्र-शस्त्रों का प्रयोग कर सके। दुर्ग की सामान्य दीवारों की चौड़ाई भी बीस फुट से अधिक है।

दुर्ग की प्राचीर में 14 बुर्जियां हैं जो विभिन्न नामों से जानी जाती हैं। बड़ा दरवाजा से पूर्व की ओर घूंघट बुर्ज, गूगड़ी बुर्ज, फूटा बुर्ज तथा नकारजी का बुर्ज स्थित हैं। अन्य बुर्जों के नाम Üृंगार चंवरी बुर्ज, जानू नायक बुर्ज, पीपली बुर्ज, इब्राहीम शाहिद का बुर्ज, दोराई बुर्ज, इमली बुर्ज, बांदरा बुर्ज, खिड़की का बुर्ज, फतेह बुर्ज आदि हैं। खिड़की बुर्ज, हकानी-बकानी सैय्यद की बुर्ज, हुसैन बुर्ज नसीराबाद तथा अजमेर नगर को जोड़ने वाले मार्ग पर स्थित हैं। दुर्ग की बुर्जों पर तोपें नियत की गई थीं जिनके आधार अब भी दिखाई देते हैं।

बिशप हर्बर ने गढ़ बीठली की सुरक्षा व्यवस्था के बारे में लिखा है- ‘पहाड़ी के ऊपर बहुत प्रशंसनीय किला बना हुआ है, जिसका व्यास 2 मील है तथा इसका निर्माण टेढ़ा बांका है। सुरक्षा की दृष्टि से मजबूत है। पहाड़ों को काटकर टांके बनाए हुए हैं, जिनमें हर समय पानी उपलब्ध रहता है। इसमें कई कुएं भी बने हुए हैं, जिनमें अनाज, घी व तेल आदि सामग्री का भंडारण किया जाता है। यह दूसरा जिब्राल्टर है।’ अनाज, घी एवं तेल आदि के भंडारण कुंए अंग्रेजों द्वारा बंद कर दिये गये।

गढ़ बीठली में भवन एवं निर्माण

कचहरी भवन

गढ़ बीठली के प्राचीनतम अवशेषों में कचहरी भवन ही बचा है। यह 50 फुट लम्बा और 24 फुट चौड़ा भवन है। इसकी दीवार एक फुट मोटी है, छत सपाट है तथा इसमें 11 फुट ऊंचाई के बत्तीस स्तम्भ लगे हैं। कचहरी भवन में सात खिड़कियां हैं तथा छत में तीन झरोखे बने हुए हैं। इसका निर्माण काल अब ज्ञात नहीं है। ब्रिटिश काल में सैनिकों द्वारा इस भवन का उपयोग वाचनालय के रूप में किया जाता था।

अन्य भवन

पृथ्वीराज महाकाव्य में तारागढ़ में स्थित मंदिरों, महलों एवं बावड़ियों का वर्णन किया गया है। ये सभी निर्माण अब नष्ट हो चुके हैं। राजस्थान सरकार द्वारा दुर्ग तक पक्की सड़क बनाकर सम्राट पुथ्वीराज की बैडोल मूर्ति लगाई गई है।

जलाशय

गढ़ बीठली में जलापूर्ति के लिये वर्तमान में पांच जलाशय हैं जिनमें से चार दुर्ग के भीतर तथा एक दुर्ग से बाहर है। बाहर स्थित जलाशय- नाना साहब का झालरा, नकारची बुर्ज के निकट स्थित है। इसे मराठा सरदार शिवाजी नाना द्वारा ई.1791 में बनवाया गया था। इसी बुर्ज के निकट दुर्ग के भीतर गोल झालरा स्थित है। इसे भी शिवाजी नाना द्वारा बनवाया गया था। दुर्ग के भीतर स्थित अन्य जलाशय इब्राहीम शरीफ का झालरा, बड़ा झालरा, तिबारी का झालरा कहलाते हैं।

गढ़ बीठली का इतिहास

चौहानों के काल में अजमेर दुर्ग

बगदाद के खलीफा हाशम (ई.724 से ई.743) के अधीन सिंध पर शासन कर रहे अब्दुल रहमान अल मारी के पुत्र जुनैद ने ई.724-26 के बीच, अजमेर पर आक्रमण किया। यह आक्रमण अत्यन्त भयानक था। इस युद्ध में कुछ प्रमुख चौहान सामंतों ने राजा दुर्लभराज का साथ नहीं दिया। इस कारण दुर्लभराज के परिवार के प्रत्येक पुरुष ने तलवार लेकर शत्रु का सामना किया। चौहान रानियों ने जौहर का किया।

राजा दुर्लभराज की युद्ध-क्षेत्र में ही हत्या कर दी गई और तारागढ़ पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। दुर्लभराज का छोटा भाई माणक राय सांभर भाग गया। इस युद्ध में दुर्लभराज का सात वर्षीय पुत्र लोत भी शस्त्र लेकर युद्ध भूमि में लड़ा। एक तीर लगने से राजकुमार लोत मर गया। राजकुमार लोत की प्रतिमा बनाकर देवताओं की तरह पूजी गई। दुर्लभराज की मृत्यु के बाद अजमेर दुर्ग पर मुस्लिम गवर्नर नासिरुद्दीन नियुक्त कर दिया गया।

कुछ वर्षों बाद सांभर नरेश दुर्लभराज (प्रथम) के पुत्र गूवक (प्रथम) ने गढ़ बीठली पर अधिकार कर लिया। टॉड ने मुलसमानों से अजमेर लेने वाले राजा का नाम हर्षराय लिखा है। अजयराज के शासन काल में ई.1024 में महमूद गजनवी ने गढ़ बीठली पर आक्रमण किया। अजमेर के शासक वीर्यराम ने गजनवी को दुर्ग में प्रवेश नहीं करने दिया तथा महमूद गजनवी घायल होकर अन्हिलवाड़ा की तरफ भाग गया।

वीर्यराम के पुत्र अर्णोराज ने ई.1132 में मुस्लिम आक्रांताओं को परास्त किया। ई.1134 में गुजरात के चौलुक्य शासक सिद्धराज जयसिंह ने अजमेर पर आक्रमण किया किंतु अर्णोराज ने उसे परास्त कर दिया।

ई.1150 में कुमारपाल चौलुक्य ने पुनः अजमेर पर हमला किया। इस युद्ध में अर्णोराज लोहे की एक बर्छी लग जाने से गिर गया तथा कुमारपाल की विजय हो गई। उसने गढ़ बीठली पर अधिकार कर लिया। अर्णोराज ने अपनी अपनी पुत्री का विवाह कुमारपाल से करके अपना राज्य बचाया। इस संधि के बाद कुमारपाल ने अर्णोराज को अजमेर दुर्ग पुनः लौटा दिया।

विग्रहराज चतुर्थ (1152-64) अर्थात् बीसलदेव ने चौलुक्य कुमारपाल को परास्त करके अपने पिता की पराजय का बदला लिया। बीसलदेव के समय में मुसलमानों की एक सेना वव्वेरा तक आ गई। बीसलदेव ने न केवल उस सेना को परास्त किया अपितु भारत में घुस आए समस्त मुसलमानों को आर्यावर्त्त से बाहर निकाल दिया। बीसलदेव ने गजनी के अमीर खुशरूशाह को भी परास्त किया।

अजमेर दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार

ई.1179 में 11 वर्षीय पृथ्वीराज चौहान (तृतीय) अजमेर की गद्दी पर बैठा। उसे राय पिथौरा भी कहते हैं। उसके काल में ई.1191 में शहाबुद्दीन मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज के राज्य पर हमला किया किंतु पृथ्वीराज ने उसे जीवित पकड़ लिया तथा क्षमा मांगने पर छोड़ दिया।

अगले ही वर्ष ई.1192 में मुहम्मद गौरी ने पुनः पृथ्वीराज चौहान क राज्य पर हमला किया। तराइन के मैदान में हुई दूसरी लड़ाई में मुहम्मद गौरी ने एक दिन रात में ही पृथ्वीराज चौहान के शिविर पर हमला करके घघ्घर नदी के किनारे से पृथ्वीराज चौहान को पकड़ लिया।

मुहम्मद गौरी राय पिथौरा को पकड़कर गढ़ बीठली में ले आया तथा उसकी आंखें फोड़कर उसे अंधा कर दिया। पृथ्वीराज चौहान ने मुहम्मद गौरी को शब्दबेधी बाण से मारने की योजना बनाई। उसने अपने मंत्री प्रतापसिंह से धनुष-बाण लाने को कहा। प्रतापसिंह ने राजा को धनुष-बाण लाकर दे दिये तथा उसकी सूचना मुहम्मद गौरी को दे दी।

पृथ्वीराज की परीक्षा लेने के लिये गौरी की मूर्ति एक स्थान पर रख दी गई जिसको पृथ्वीराज ने अपने बाण से तोड़ दिया। मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज को गड्ढे में फिंकवा दिया जहाँ गौरी के मुस्लिम सैनिकों ने पत्थरों की चोटों से राजा पृथ्वीराज चौहान का निर्ममता से अंत कर दिया।

पुनः चौहानों के अधिकार में

पृथ्वीराज को मारने के बाद शहाबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज चौहान के अवयस्क पुत्र गोविन्दराज से विपुल धन-राशि लेकर उसे गढ़ बीठली लौटा दिया। कुछ समय बाद जब शहाबुद्दीन गौरी कुतबुद्दीन ऐबक को भारत में विजित क्षेत्रों का गवर्नर नियुक्त करके गजनी चला गया, तब पृथ्वीराज चौहान के छोटे भाई हरिराज चौहान ने अपने भतीजे गोविन्दराज को अजमेर से मार भगाया तथा गढ़ बीठली पर अधिकार करके स्वयं अजमेर का राजा बन गया क्योंकि गोविंदराज ने मुसलमानों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। गोविंदराज अजमेर से भागकर रणथंभौर चला गया।

दिल्ली सल्तनत के अधिकार में

ई.1194 में हरिराज ने अपने सेनापति चतरराज को दिल्ली पर आक्रमण करने भेजा। कुतुबुद्दीन ऐबक ने चतरराज को परास्त कर दिया। चतरराज अजमेर की तरफ भागा किंतु कुतुबुद्दीन ऐबक भी उसका पीछा करता हुआ अजमेर आ गया और गढ़ बीठली को घेर लिया। हरिराज ने कुतुबुद्दीन पर आक्रमण किया किंतु परास्त हो गया।

इस पर हरिराज और उसका सेनापति जैत्रसिंह, अपने स्त्री समूह सहित, जीवित ही अग्नि में प्रवेश कर गये। इस प्रकार ई.1195 में गढ़ बीठली पर फिर से मुसलमानों का अधिकार हो गया। कुतुबद्दीन ऐबक ने सयैद हुसैन खनग सवार मीरन साहिब को तारागढ़ का दरोगा नियुक्त किया। वह सात साल तक इस दुर्ग पर शासन करता रहा।

12 अप्रेल 1202 की रात में, तारागढ़ के आसपास रहने वाले राठौड़ों एवं चौहानों के एक दल ने अजमेर दुर्ग पर आक्रमण किया। दोनों पक्षों के बीच रात के अंधेरे में भयानक युद्ध हुआ। इस युद्ध में दुर्ग के भीतर स्थित समस्त मुस्लिम सैनिकों को मार डाला गया। राजपूतों ने दरोगा सैयद हुसैन खनग सवार मीरन को भी मार डाला।

गढ़ बीठली से भागे हुए मुस्लिम सिपाही दिल्ली पहुँचे। कुतबुद्दीन ऐबक ने गजनी से सेना मंगवाई। गजनी से आई विशाल सेना ने राजपूतों से दुर्ग फिर से छीन लिया। गजनी की सेना का यह प्रतिशोध बहुत भयानक था। गजनी की सेना ने तारागढ़ में उपस्थित राजपूत सैनिकों तथा दुर्ग के निकट रहने वाले राजपूत परिवारों को पकड़कर उनकी सुन्नत की और उन्हें मुसलमान बनाया।

ई.1226 में रणथंभौर के चौहानों ने तारागढ़ पर अधिकार कर लिया किन्तु इल्तुतमिश ने उनसे दुर्ग पुनः छीन लिया और लाहौर के गवर्नर नासिरूद्दीन एतमुर बहाई को अजमेर दुर्ग का शासक नियुक्त किया। इल्तुतमिश अन्हिलवाड़ा के लिये रवाना हुआ किंतु मार्ग में राजपूतों तथा मेरों ने उसे घेर लिया।

इल्तुतमिश घायल होकर वापस अजमेर की तरफ भागा किंतु राजपूतों ने उसका पीछा किया। इल्तुतमिश ने स्वयं को गढ़ बीठली में बंद कर लिया तथा गजनी से सैन्य सहायता के लिये अपने दूत भेजे। राजपूत लम्बे समय तक गढ़ पर घेरा डालकर बैठे रहे और जब गजनी से सेना आ गई तो घेरा उठाकर चले गये।

हम्मीरदेव के अधिकार में

पृथ्वीराज चौहान के पुत्र गोविंदराज का वंशज हम्मीरदेव ई.1282 में रणथंभौर का शासक हुआ। जब ई.1287 में दिल्ली का सुल्तान बलबन मर गया, तब हम्मीर देव ने अपने पुरखों के गढ़ अजमेर पर अधिकार कर लिया।

गढ़ बीठली पर अलाउद्दीन खिलजी का अधिकार

ई.1301 में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने चौहान हम्मीरदेव को मारकर रणथंभौर तथा अजमेर दुर्ग पुनः मुसलमानों के अधीन किये।

मारवाड़ के राठौड़ों के अधिकार में

ई.1405 में राठौड़ राजकुमार चूण्डा ने डीडवाना, खाटू, सांभर, अजमेर तथा जांगल प्रदेश पर अधिकार किया। इस कारण अब गढ़ बीठली मारवाड़ राज्य का हिस्सा बन गया। पंद्रहवीं शताब्दी के आरम्भ से लेकर, सोलहवीं शताब्दी के मध्य तक अजमेर दुर्ग, राठौड़ों के पास रहा। बीच-बीच में यह कुछ समय के लिये मेवाड़ के गुहिलों तथा मालवा के मुसलमानों के पास भी आता-जाता रहा।

मेवाड़ के अधिकार में

ई.1408 में राव चूण्डा के पुत्र रणमल्ल ने गढ़ बीठली पर अधिकार करके उसे महाराणा लाखा को दे दिया। ई.1455 तक अजमेर मेवाड़ के महाराणा के अधीन रहा।

गढ़ बीठली के लिये मेवाड़ एवं मालवा में संघर्ष

ई.1456 में मालवा के सुल्तान मुहम्मद खिलजी ने अपनी एक सेना मंदसौर की तरफ रवाना की तथा स्वयं सेना लेकर अजमेर पर चढ़ बैठा। उस समय तारागढ़ मेवाड़ के अधीन था तथा अजमेर का दुर्गपति गजधरसिंह था। गजधरसिंह ने चार दिन तक दुर्ग की रक्षा की तथा पांचवे दिन दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सैन्य पर टूट पड़ा। इस युद्ध में गजधरसिंह काम आया तो उसके सैनिक भागकर फिर से गढ़ में घुसने लगे। उनके साथ खिलजी के सैनिक भी दुर्ग में घुस गये तथा भीतर पहुँचकर उन्होंने दुर्ग अपने अधिकार में ले लिया।

खिलजी ने ख्वाजा नेमतुल्लाह को सैफ खान को अजमेर गढ़ पर नियुक्त किया। इस प्रकार ई.1456 में अजमेर, मालवा के सुल्तान मुहम्मद खिलजी के अधीन चला गया। इस घटना के कुछ माह बाद महाराणा कुंभा ने अजमेर को दुबारा से जीता। महाराणा कुंभा के निधन के बाद मालवा के सुल्तान मुहम्मद खिलजी ने फिर से अजमेर पर अधिकार कर लिया।

राव जोधा के अधिकार में

ई.1468 में महाराणा उदयसिंह (ऊदा) मेवाड़ की राजगद्दी पर बैठा। उसने गढ़ बीठली और सांभर जोधपुर के राव जोधा को दे दिये। ई.1489 में राव जोधा की मृत्यु के समय तक अजमेर दुर्ग पर राव जोधा का ही अधिकार था।

माण्डू के अधीन

पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में अजमेर, माण्डू के अधीन था और मल्लू खाँ अजमेर दुर्ग पर नियुक्त था। मल्लू खाँ ने तारागढ़ के नीचे दो तालाब बनवाये। ये तालाब छोटा मलूसर तथा बड़ा मलूसर कहलाते थे। बड़े मलूसर से लेकर तारागढ़ तक धरती के नीचे सुरंग बनाई गई जो बाद में बंद हो गई। छोटा मलूसर कुएं की तरह था। ई.1499-1500 में माण्डू के सुलतान नासिरउद्दीन कादरशाह ने आजम हुमायूं के पुत्र महमूद खाँ को अजमेर का नायब बनाया।

मेवाड़ के अधीन

 ई.1505 में मेवाड़ के महाराणा रायमल के बड़े पुत्र उड़ना पृथ्वीराज ने गढ़ बीठली पर अधिकार कर लिया।

गुजरात के सुल्तान का गढ़ पर अधिकार

ई.1533 में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह ने शमशेरुलमुल्क को एक सेना देकर अजमेर दुर्ग का आकार छोटा करने के लिये भेजा। शमशेरुलमुल्क ने अजमेर पर अधिकार कर लिया तथा दुर्ग का बहुत सा हिस्सा गिराया दिया किंतु उसका अधिकार बहुत थोड़े समय तक ही रहा।

गढ़ बीठली के लिए वीरमदेव एवं मालदेव में संघर्ष

ई.1535 में मेड़ता के राव वीरमदेव ने शमशेरुलमुल्क से अजमेर छीन लिया। जोधपुर के राव मालदेव ने वीरमदेव से अजमेर गढ़ मांगा। वीरमदेव ने मना कर दिया। इस पर मालदेव ने मेड़ता पर आक्रमण किया। वीरमदेव मेड़ता खाली करके अजमेर चला गया। मालदेव ने अपने सामंतों- कूंपा तथा जैता को अजमेर पर अधिकार करने के लिये भेजा।

वीरमदेव परास्त होकर अजमेर खाली करके चला गया। दुर्ग पर मालदेव का अधिकार हो गया। मालदेव ने अपने सामंत कूंपावत महेश घड़सिंहोत को अजमेर का जागीरदार बनाया। मालदेव ने अजमेर के बीठली गढ़ में महल, प्राचीर तथा बुर्जों का निर्माण करवाया और गढ़ में जलापूर्ति के लिए पहाड़ियों पर चक्र लगवाया।

शेरशाह सूरी का आक्रमण

ई.1544 में शेरशाह सूरी 80 हजार घुड़सवार लेकर अजमेर पर हमला करने के लिये रवाना हुआ। मालदेव की रानी उमादे जो इतिहास में रूठी रानी के नाम से प्रसिद्ध है, उस समय गढ़ बीठली में थी। जब मालेदव को शेरशाह के हमले की जानकारी हुई तो उसने अपने सामंत ईश्वरदास को लिखा कि वह रानी को लेकर जोधपुर चला आये।

रानी उमादे ने ईश्वरदास से कहा कि शत्रु को आया जानकर मेरा दुर्ग छोड़कर चले जाना उचित नहीं है। इससे मेरे दोनों कुलों पर कलंक लगेगा। इसलिये आप रावजी को लिख दें कि वह यहाँ का सारा प्रबंध मुझ पर छोड़ दें। रावजी विश्वास रखें कि मैं शत्रु को मार भगाऊंगी या सम्मुख रण में प्राण त्याग करूंगी।

राव मालदेव ने रानी को सूचित करवाया कि अजमेर में हम स्वयं शेरशाह से लड़ेंगे। हम जोधपुर दुर्ग का प्रबंध रानी उमा दे को सौंपते हैं। अतः रानी जोधपुर आ जाये।

रानी उमा दे ने गढ़ बीठली खाली कर दिया तथा स्वयं कोसाना गांव में जाकर ठहर गई तथा मालदेव से कहलाया कि मैं यहीं रहकर जोधपुर की रक्षा करूंगी। आप मुझे यहीं सेना भिजवा दें। मालदेव ने वैसा ही किया। इसके बाद मालदेव ने 50 हजार सैनिकों को साथ लेकर गिर्री-सुमेल के मैदान में शेरशाह से युद्ध किया। शेरशाह ने मालदेव के सरदारों में फूट डलवा दी तथा स्वयं गढ़ बीठली पर अधिकार करने में सफल रहा।

दुर्ग पर राठौड़ों का अधिकार

ई.1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई। ई.1548 में मालदेव के सेनापति जैतावत राठौड़ पृथ्वीराज ने मुसलमानों को भगाकर फिर से अजमेर पर अधिकार कर लिया। मेवाड़ के महाराणा उदयसिंह (द्वितीय) ने राठौड़ों से अजमेर लेने के लिये अजमेर पर आक्रमण किया किंतु महाराणा की सेनाओं को परास्त होकर भाग जाना पड़ा।

हाजी खाँ का अजमेर पर आक्रमण

ई.1556 में शेरशाह सूरी के पुराने गवर्नर एवं मेवात के शासक हाजी खाँ ने अजमेर पर अधिकार कर लिया। मालदेव ने पृथ्वीराज जैतावत को अजमेर पर चढ़ाई करने भेजा किंतु हाजी खाँ ने मेवाड़ के राणा के सहयोग से मालदेव की सेना को परास्त कर दिया।

मुगलों के अधिकार में

ई.1558 में मुगल बादशाह अकबर के सेनापति सैयद मुहम्मद कासिम खाँ निशापुरी ने अजमेर दुर्ग पर आक्रमण किया। हाजी खाँ दुर्ग खाली करके मारवाड़ भाग गया और कासिम खाँ ने बिना लड़े ही, अजमेर दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अकबर ने ई.1558-1560 में मोहम्मद कासिम खाँ निशापुरी (ईरानी) को, ई.1561-1563 में शर्फुद्दीन हुसैन मिर्जा (तूरानी) को, ई.1563 में काजी माड को तथा ई.1564 में हुसैन कुली बेग को अजमेर का नाजिम बनाया।

ई.1568 को अकबर ने पहली बार अजमेर की पैदल यात्रा की। इसके बाद ई.1579 तक वह हर वर्ष अजमेर आता रहा। अकबर के बाद जहांगीर मुगलों के तख्त पर बैठा। वह ई.1613 से 1616 तक पूरे तीन वर्ष अजमेर में रहा ताकि मेवाड़ के विरुद्ध अभियान चलाया जा सके। जहांगीर ने ई.1615 में तारागढ़ की पश्चिमी घाटी में सुन्दर और विशाल महल का निर्माण करवाया।

ई.1659 में तारागढ़ की तलहटी में दाराशिकोह एवं औरंगजेब की सेनाओं के बीच निर्णायक लड़ाई लड़ी गई जिसमें जयपुर नरेश जयसिंह द्वारा औरंगजेब का साथ दिये जाने से औरंगजेब जीत गया और दारा शिकोह परास्त होकर भाग गया। अकबर से लेकर शाहजहाँ तक के शासन काल में अजमेर को आगरा, दिल्ली तथा लाहौर के समान ही प्रतिष्ठा प्राप्त थी किन्तु औरंगजेब के काल में अजमेर को कोई महत्त्व नहीं मिला।

जब औरंगजेब ने मारवाड़ खालसा कर लिया तब राठौड़ों ने वीर दुर्गादास तथा मुकुंददास खींची के नेतृत्व में 20 वर्षीय युद्ध चलाया। इस युद्ध के दौरान ई.1679 से राठौड़ों ने अजमेर दुर्ग पर भी धावे बोलने आरम्भ किये। ये धावे ई.1707 तक औरंगजेब की मृत्यु होने तक चले।

अजीतसिंह का अजमेर पर अधिकार

मुगल बादशाह बहादुरशाह (प्रथम) ने ई.1710 में पहले शाहउल्लाह खाँ को और फिर रामसिंह को अजमेर की सूबेदारी सौंपी। ई.1711 में उसने पहले नजाबत खाँ को और फिर बाज़ खाँ को अजमेर का गवर्नर बनाया।

ई.1712 में बहादुरशाह की मृत्यु हो गई और उसका पुत्र जहांदारशाह बादशाह बना किन्तु उसी वर्ष जहांदारशाह के भतीजे फर्रूखसीयर ने जहांदारशाह की हत्या कर दी और सैयद बन्धुओं की सहायता से दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। जहांदारशाह के मरते ही अजीतसिंह ने अजमेर पर अधिकार कर लिया।

फर्रूखसियर का अधिकार

अजीतसिंह द्वारा अजमेर पर अधिकार कर लिये जाने के बाद फर्रूखसीयर ने बख्शी-उल-मालिक हुसैन अली खाँ को सेना देकर अजमेर भेजा। बख्शी-उल-मलिक हुसैन अली खाँ ने राठौड़ों को बुरी तरह परास्त किया। अजीतसिंह ने विवश होकर अजमेर दुर्ग मुगलों को सौंप दिया, अपने पुत्र को बादशाह की सेवा में दिल्ली भेज दिया तथा अपनी पुत्री इंद्रकुंवरी का विवाह फर्रूखसीयर से कर दिया।

फरूर्खसियर ने ई.1716 में खानजहाँ को, ई.1717-18 में पहले अजीजुद्दौला खान आलम को तथा बाद में समंदर खाँ को तथा ई.1718-19 में सवाई जयसिंह को अजमेर की सूबेदारी सौंपी। फर्रूखसियर के शासनकाल में अजमेर की टकसाल से सोने के सिक्के ढाले गये।

महाराजा अजीतसिंह का अधिकार

17 फरवरी 1719 को महाराजा अजीतसिंह ने सैय्यद बंधुओं की सहायता से दिल्ली के लाल किले पर अधिकार करके फर्रूखसीयर की हत्या कर दी। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह के समय में अजीतसिंह ने तीस हजार घुड़सवारों के साथ अजमेर घेर लिया तथा अजमेर के मुस्लिम गवर्नर को निकालकर तारागढ़ पर अधिकार कर लिया।

मुहम्मदशाह ने मुगल साम्राज्य के समस्त प्रबल सेनापतियों और अमीर-उमरावों को अजमेर पहुँचने के आदेश दिये। इस पर अजीतसिंह को अजमेर दुर्ग खाली करना पड़ा। बादशाह मुहम्मदशाह ने जफरकुली खाँ को अजमेर का सूबेदार बनाया।

महाराजा अजीतसिंह की हत्या

जयपुर नरेश सवाई जयसिंह नहीं चाहता था कि अजमेर पर जोधपुर नरेश अजीतसिंह का अधिकार हो। इसलिये उसने अपने मित्र अजीतसिंह से गद्दारी करके अजमेर पर मुगलों का अधिकार करवाया तथा अजीतसिंह के पुत्रों अभयसिंह तथा बख्तसिंह को भड़काकर 23 जून 1724 को अजीतसिंह की हत्या करवाई।

महाराजा अभयसिंह का अजमेर दुर्ग पर अधिकार

ई.1729 में बादशाह के आदेश से जोधपुर नरेश अभयसिंह राठौड़ ने अजमेर को अपने अधीन किया तथा दुर्ग में अपने अधिकारियों को नियुक्त कर दिया। 

अजमेर को लेकर जयपुर एवं जोधपुर में संघर्ष

ई.1737 में बादशाह मुहम्मदशाह ने अजमेर परगना राठौड़ों से लेकर जयसिंह कच्छवाहा को दे दिया। ई.1740 में महाराजा अभयसिंह तथा नागौर के राजाधिराज बख्तसिंह ने जयपुर पर आक्रमण करने तथा उससे अजमेर छीनने का निर्णय लिया। बख्तसिंह अपनी सेना लेकर अजमेर आया तथा उसने अजमेर नगर तथा दुर्ग पर अधिकार कर लिया।

यह समाचार मिलते ही जयसिंह 50 हजार सैनिकों को लेकर आगरा से अजमेर के लिये रवाना हो गया तथा तेजी से चलता हुआ अजमेर से 14 मील दूर ऊँटड़ा गांव पहुँच गया। इस समय बख्तसिंह के पास केवल 5 हजार घुड़सवार थे। दोनों पक्षों में हुए भयानक युद्ध में बख्तसिंह ने विकराल रूप धारण कर लिया। उसने जयपुर की सेना का इतनी बुरी तरह संहार किया कि जयसिंह के पचास हजार सैनिकों में से अधिकांश या तो मारे गये या फिर भय के कारण निकट की पहाड़ियों में भाग खड़े हुए।

बख्तसिंह को केवल चार हजार सैनिक खोने पड़े। जयसिंह बुरी तरह हारकर अपनी राजधानी जयुपर के लिये रवाना हो गया। कुछ समय बाद उसने जोधपुर नरेश अभयसिंह से संधि कर ली तथा अजमेर, राठौड़ों को देना स्वीकार कर लिया। इस संधि के बाद जयसिंह बहाने बाजी करने लगा और उसने अजमेर पर से अपना अधिकार नहीं हटाया।

21 सितम्बर 1743 को सवाई जयसिंह की मृत्यु हो गयी तथा ईश्वरीसिंह जयपुर की राजगद्दी पर बैठा। मुगल बादशाह की ओर से ई.1743 में मीर मुहम्मद इस्लाम को अजमेर का सूबेदार बनाया गया।

राठौड़ों का गढ़ बीठली पर अधिकार

जयपुर नरेश जयसिंह के मरने पर 3 अक्टूबर 1743 को महाराजा अभयसिंह ने सेना भेजकर अजमेर पर अधिकार कर लिया। जयपुर नरेश ईश्वरीसिंह महाराजा अभयसिंह के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका।

सलाबत खां को अजमेर की सूबेदारी

महाराजा अभयसिंह के मरने के बाद अजमेर सूबा सलाबत खाँ को दिया गया। सलाबत खाँ नाम मात्र का सूबेदार था क्योंकि कोई भी ठिकाना उसे राजस्व नहीं देता था। धन के अभाव में मुगल गवर्नरों की स्थिति हास्यास्पद हो गई। 19 अक्टूबर 1749 को जोधपुर नरेश रामसिंह तथा अजमेर के सूबेदार सलाबत खाँ के बीच चुड़सियावास में युद्ध हुआ। महाराजा रामसिंह ने सलाबत खाँ को परास्त कर दिया।

साहबा पटेल का गढ़ बीठली पर आक्रमण

ई.1751 में नागौर के राजाधिराज बख्तसिंह ने अपने भतीजे जोधपुर नरेश रामसिंह को जोधपुर से बाहर निकाल दिया। उसी वर्ष रामसिंह के निमंत्रण पर मल्हार राव होल्कर के सेनापति साहबा पटेल ने अजमेर पर आक्रमण किया। स्वयं रामसिंह भी साहबा पटेल की सहायता करने के लिये अजमेर आया। मेड़तिया राठौड़ों ने भी साहबा पेटल का साथ दिया। इन तीनों की सम्मिलित सेनाओं ने अजमेर पर अधिकार कर लिया तथा जोधपुर की तरफ से नियुक्त अजमेर के गवर्नर अमरसिंह गौड़ को जीवित ही धरती में गाड़ दिया।

इस घटना के कुछ माह बाद ही ई.1752 में जोधपुर नरेश बखतसिंह ने पुनः अजमेर पर अधिकार कर लिया। जयपुर वालों को यह कतई पंसद नहीं था कि अजमेर, राठौड़ों के अधिकार में जाये। इसलिये उन्होंने महाराजा बख्तसिंह को जहरीली पोषाक भेजकर मरवा दिया। राजाधिराज बखतसिंह की मृत्यु के बाद उसका पुत्र विजयसिंह जोधपुर की गद्दी पर बैठा। ई.1756 तक अजमेर विजयसिंह के अधीन रहा।

कच्छवाहों, राठौड़ों तथा मराठों में संघर्ष

जब बख्तसिंह की मृत्यु के बाद मारवाड़ राज्य तथा गढ़ बीठली पर अधिकार को लेकर बख्तसिंह के पुत्र विजयसिंह तथा जोधपुर के अपदस्थ राजा रामसिंह के बीच लम्बा संघर्ष चला। जयअप्पा सिंधिया और रामसिंह की सम्मिलित सेनाओं ने ई.1756 में अजमेर दुर्ग पर कर लिया। रामसिंह की तरफ से पण्डित रामकरण पंचोली को तथा सिन्धिया की तरफ से गोविन्द राव को अजमेर का प्रशासक नियुक्त किया गया।

अब अजमेर के कई दावेदार उठ खड़े हुए थे। एक तरफ तो जयपुर वालों का अजमेर पर दावा चला आ रहा था। दूसरी ओर जोधपुर भी अजमेर को पुनः प्राप्त करना चाहता था। तीसरी तरफ आधे अजमेर पर रामसिंह अधिकार जमाये बैठा था। चौथी तरफ मराठे अकेले ही अजमेर दुर्ग को हड़पने की ताक में थे।

ई.1758 में मराठा सूबेदार गोविंदराज ने महाराजा रामसिंह के प्रतिनिधि रामकरन को अजमेर दुर्ग से बाहर निकाल दिया। ई.1759 में अजमेर के मराठा सूबेदार ने ठाकुरों के साथ काफी कठोर व्यवहार किया। इससे नाराज होकर राजपूत ठाकुरों ने मराठा सूबेदार को दुर्ग में बंदी बना लिया। जब मराठों की सेना आई तो उन्होंने दुर्ग पर अधिकार करके मराठा सूबेदार को ठाकुरों की कैद से मुक्त करवाया। रामसिंह के प्रतिनिधि को अंततः अजमेर से बाहर ही रहना पड़ा। दुर्ग पर मराठों का अधिकार हो गया।

ई.1761 में अहमदशाह अब्दाली ने पानीपत के मैदान में मराठा गवर्नर सदाशिव राव भाऊ को परास्त कर दिया। जोधपुर नरेश महाराजा विजयसिंह ने अपने लिये सुअवसर जानकर अपने सेनापति बालू जोशी को अजमेर पर आक्रमण करने भेजा। मराठा सेनापति गोविंदराव ने स्वयं को गढ़ बीठली में बंद कर लिया तथा अजमेर की मजबूत किलेबंदी कर ली।

बालू जोशी अजमेर को घेरकर बैठ गया। दो महीने की घेराबंदी के बाद दक्खिन से मराठा सेनाएं आईं। बालू घेरा उठाकर जोधपुर आ गया। कुछ दिन बाद मारवाड़ की सेना ने फिर अजमेर पर आक्रमण किया। मराठे एक बार पुनः गढ़ बीठली में बंद हो गये।

अजमेर नगर पर महाराजा विजयसिंह का अधिकार हो गया। दुर्ग में बंद मराठों ने महादजी सिंधिया के पास संदेश भेजा कि तुरंत सहायता भेजें अन्यथा हमें गढ़ खाली करना पड़ेगा। महादजी ने संदेश भिजवाया कि दस दिन तक गढ़ खाली न करें, मैं आ रहा हूँ।

जब यह सूचना आई कि महादजी सिंधिया विशाल सेना लेकर अजमेर आ रहा है तो महाराजा विजयसिंह के धाभाई जग्गू ने गुलाबराय आसोप को संधि-वार्ता के लिये महादजी सिंधिया के पास भेजा। सिन्धिया सेना लेकर बुधवाड़ा आ गया और यहाँ से वह जोधपुर के सैन्य शिविर की तरफ बढ़ा। दोनों तरफ से गोलाबारी आरम्भ हो गई। अंत में जोधपुर की सेनाएं अजमेर से दूर हट गईं।

महादजी सिंधिया ने ई.1763 से 1767 तक बापूराव पण्डित को, ई.1767 से 1769 तक संतूजी को, ई.1769-1770 तक अनवर बेग को, ई.1770 से 1773 तक पुनः संतूजी को, ई.1774 से 1778 तक जीवाराम को अजमेर का गवर्नर बनाया। सिंधिया की ओर से ई.1783 से 1787 तक अनवर बेग को अजमेर का गवर्नर बनाया गया।

महाराजा विजयसिंह का अधिकार

ई.1787 में मराठों और जयपुर नरेश प्रतापसिंह के बीच युद्ध की स्थिति उत्पन्न होने पर जोधपुर महाराजा विजयसिंह ने अपनी सेनाएं जयपुर नरेश की सहायता के लिये भेजीं। ऐन वक्त पर जयपुर राज्य की सेनाएं मैदान से पीछे हट गईं और अकेले राठौड़ों को ही महादजी सिंधिया की सेना से जूझना पड़ा। तुंगा के मैदान में हुई इस लड़ाई में विजयसिंह की सेनाओं ने महादजी सिन्धिया को करारी मात दी। महादजी युद्ध छोड़कर पहाड़ों में भाग गया।

राठौड़ों ने भागती हुई मराठा सेना का विनाश किया। इस युद्ध से पहले सिन्धिया ने पराजय का स्वाद तक न चखा था। सिन्धिया मार खाकर आगरा की ओर भाग गया। राठौड़ों का सेनापति भीमराज सिंघी जब जयुपर से जोधपुर लौट रहा था तो उसने मार्ग में अजमेर पर भी आक्रमण किया तथा अजमेर में सिन्धिया के गवर्नर मिर्जा अनवर बेग से अजमेर छीन लिया। बेग ने स्वयं को गढ़ बीठली में बंद कर लिया।

इस पर नागौर से मेहता रायचंद को चार तोपें तथा एक हजार सैनिकों के साथ अजमेर भेजा गया। जालौर से भी दो हजार सैनिक अजमेर भेजे गये। दो महीने तक गढ़ बीठली का घेरा चलता रहा। इसी बीच सिन्धिया ने अम्बाजी इंगलिया के नेतृत्व में सात हजार सैनिक अजमेर भेजे। विजयसिंह ने जालोर से भण्डारी शिवचंद के नेतृत्व में दो हजार सैनिक तथा 200 घुड़सवार भेजे।

जोधपुर से सिंघी अखयराज, चाणोद से ठाकुर बिशनसिंह, रामदत्त ओझा तथा कई युवा सरदारों को अजमेर भेजा गया। तुंगा की जीत से उत्साहित जोधपुर की सेनाओं ने यहाँ भी मराठों को बुरी तरह परास्त किया। मिर्जा अनवर बेग अब तक गढ़ बीठली की रक्षा कर रहा था किंतु राठौड़ सेनाओं के आते ही दुर्ग खाली करके बाहर आ गया। उसने राठौड़ों को 20 हजार रुपये तथा 45 घोड़े दिये ताकि उसे सुरक्षित निकल जाने की अनुमति मिल सके।

मराठों का अजमेर नगर पर अधिकार

ई.1790 में मराठों के फ्रांसिसी जनरल डी बोग्ने ने अजमेर दुर्ग पर आक्रमण किया। होलकर की सेनाएं भी सिंधिया से आ मिलीं। जनरल डी बोग्ने ने अपनी तोपें आनासागर के किनारे जमाईं तथा अजमेर शहर पर बमबारी आरम्भ कर दी। 22 अगस्त 1790 को तोपों की भयानक बमबारी से अजमेर नगर का परकोटा टूट गया।

दस हजार मराठा घुड़सवार अजमेर नगर में घुस गये। अवसर पाकर मुसमलानों ने शहर के भीतरी दरवाजे भी खोल दिये। इससे मराठा घुड़सवार शहर के भीतरी भागों में घुसकर अजमेर को लूटने लगे। अजमेर नगर को हाथ से निकला हुआ देखकर धनराज सिंघी अपने 101 सरदारों को लेकर गढ़ बीठली में जा घुसा तथा चारों ओर से किलेबंदी कर ली। मराठों ने धनराज को बाहर निकालने के लिये गढ़ पर दो आक्रमण किये किंतु गढ़ बीठली अजेय खड़ा रहा।

मराठों के फ्रैंच जनरल डीबोग्ने की सेना के एक अधिकारी ने 1 सितम्बर 1790 को एक पत्र में लिखा कि हम विगत 15 दिनों से इस दुर्ग पर घेरा डाले हुए हैं किंतु इस दुर्ग पर हम एक चिह्न तक नहीं छोड़ पाये हैं। हमारी तोपें काफी ऊँचाई पर रखी हुई हैं तथा लगातार बमबारी कर रही हैं किंतु प्रकृति ने इसे संकरी गलियों से इतना सुरक्षित बना रखा है कि गोले, दुर्ग की दीवारों तक नहीं पहुँच पाते। कुछ बड़े पत्थर गिरते हैं तो देर तक घाटियों में आवाजें गूंजती हैं। उनके पास दुर्ग में छः महीने का पानी और एक साल की रसद है।

छः महीने तक डी बोग्ने गढ़ बीठली को घेरे रहा किंतु गढ़ को छू भी नहीं पाया। इस बीच मेड़ता में जोधपुर की सेनाएं मराठों से परास्त हो गईं तथा दोनों पक्षों में संधि हो गई। 19 फरवरी 1791 को महाराजा विजयसिंह ने ठाकुर सूरजमल को लिखकर सूचित किया कि अजमेर दक्खिनियों को दे दिया जाये।

सिंघी धनराज न तो अजमेर का दुर्ग छोड़ना चाहता था और न महाराजा विजयसिंह के आदेशों की अवहेलना करना चाहता था, इसलिये उसने जहर खा लिया। उसने अपने आदमियों से कहा कि महाराजा से जाकर कहना कि मैं चाहता था कि दक्खिनी यदि अजमेर पर अधिकार करना चाहते हैं तो मेरे शव पर से गुजरें तथा मैं यह भी चाहता था कि महाराजा की आज्ञा की अवहेलना कभी न हो।

ये दोनों कार्य एक साथ इसी प्रकार संभव हो सकते थे। दौलतराव सिंधिया ने अजमेर की जागीर लक्ष्मणजी अनंत (लखवा दादा) को दे दी। कुछ दिन बाद अर्थात् ई.1791 में ही शिवाजी नाना को अजमेर का गवर्नर बनाया गया। उसने तारागढ़ पर एक झालरा बनवाया जो नाना साहब का झालरा कहलाता था। ई.1797 में दौलतराव सिंधिया ने शिवाजी नाना के पुत्र जसवंतराव भाउ को अजमेर का गवर्नर बनाया।

महाराणा का गढ़ बीठली पर आक्रमण

ई.1798 में मेवाड़ के महाराणा भीमसिंह ने अजमेर में जमे हुए मराठों पर आक्रमण किया। दौलतराव सिंधिया के सेनापति गुलाबजी कदम ने नई सेना की भर्ती की जिसके बल पर अम्बाजी इंगलिया ने महाराणा को करारी मात दी।

गढ़ बीठली पर मेजर लुईस बोरगिन का आक्रमण

ई.1800 में अम्बाजी इंगलिया ने लखवा दादा से अजमेर की जागीर छीन ली। अतः लखवा दादा विद्रोही हो गया। इस पर जनरल पैरॉन को आदेश दिये गये कि वह लखवा दादा का दमन करे। जब जनरल पैरॉन अजमेर की तरफ बढ़ा तो 14 नवम्बर 1800 को लखवा दादा अजमेर खाली करके मालवा चला गया।

इस पर मेजर बोरगिन को अजमेर पर अधिकार करने के लिये भेजा गया। दिसम्बर 1800 में मेजर लुईस बोरगिन अजमेर दुर्ग के सामने पहुँचा। उसने दुर्ग पर लोहे से भी अधिक मजबूत धातु के गोले बरसाने आरम्भ किये। वह पांच महीनों तक तारागढ़ पर तोपों से गोले बरसाता रहा। जब वह गढ़ को तोपों से हासिल नहीं कर सका तो कैप्टेन साइमेस को भेजा गया।

साइमेस ने दुर्ग के भीतर स्थित सैनिकों को रिश्वत दी तथा 8 मई 1801 को गढ़ उसके हाथ आ गया। इसके बाद मराठों ने मॉन्स पैरोन को अजमेर का गवर्नर बनाया तथा पैरोन की सहायता के लिये मिस्टर लॉ को अजमेर जिले का प्रशासक नियुक्त किया।

महाराजा भीमसिंह का निष्फल प्रयास

ई.1802 में जोधपुर नरेश महाराजा भीमसिंह ने भण्डारी धिराजमल को अजमेर पर अधिकार करने के लिये भेजा। धिराजमल ने भीषण आक्रमण किया किंतु उसका प्रयास निष्फल हो गया। ई.1803 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के अधिकारी एच. बी. डब्ल्यू ग्रेरिक ने गढ़ बीठली के सम्बन्ध में लिखा है कि इस किले का आकार-प्रकार ठीक है तथा यहाँ बढ़िया रास्ते से आसानी से पहुँचा जा सकता है। ई.1803 में महाराजा भीमसिंह की मृत्यु हो गई।

महाराजा मानसिंह का तारागढ़ पर अधिकार

ई.1803 में सिंधिया और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के बीच युद्ध आरम्भ हुआ। इस समय बालाराव इंगलिया अजमेर का गवर्नर था। जोधपुर महाराजा मानसिंह ने सुअवसर देखकर अजमेर नगर पर अधिकार कर लिया। ई.1806 तक अजमेर महाराजा मानसिंह के अधिकार में रहा।

मराठों का फिर से अजमेर पर अधिकार

ई.1806 में मराठों ने फिर से अजमेर दुर्ग एवं नगर को अपने अधिकार में ले लिया। बालाराव इंगलिया को फिर से अजमेर का गवर्नर बनाया गया। ई.1807 में बालाराव इंगलिया ने दौलतराव सिंधिया की ओर से गढ़ बीठली में स्थित खनग सवार की दरगाह में उत्तरी दालान बनवाया। बालाराव इंगलिया ई.1808 तक अजमेर का सूबेदार रहा। ई.1808 में तीन माह के लिये हीराखां भी सिंधिया की तरफ से अजमेर का गवर्नर रहा।

ई.1809 में कर्नल टी. डी. बर्टन अजमेर आया। उसने लिखा है कि तारागढ़ किले पर जाने के लिए टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्तों से पहाड़ पर चढ़कर जाना पड़ता है। ई.1809 में तात्यां सिंधिया (गुमनाजी राव) सिंधिया की ओर से अजमेर का गवर्नर नियुक्त हुआ जो ई.1816 तक इस पद पर रहा। इसी वर्ष दौलतराव सिंधिया अजमेर आया। तात्यां सिंधिया ने ई.1813 में खनग सवार की दरगाह में पश्चिम का दालान बनवाया।

दुर्ग पर ईस्ट इण्डिया कम्पनी का अधिकार

ई.1816 में दौलतराव सिंधिया ने बापू सिंधिया को अजमेर का गवर्नर बनाया। वह ई.1818 तक अजमेर में रहा। राजपूताने में उस समय 17 रियासतें थीं जिनसे ईस्ट इण्डिया कम्पनी अधीनस्थ सहायता के समझौते कर चुकी थी। इन 17 राज्यों को दिल्ली से नियंत्रित करना संभव नहीं था। इसलिये अब कम्पनी को एक प्रादेशिक राजधानी की आवश्यकता थी।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी के गवर्नर जनरल मारकीस ऑफ हेस्टिंग्स की दृष्टि, इन 17 राज्यों के ठीक केन्द्र में स्थित अजमेर नगर पर पड़ी। यह स्थान प्रादेशिक राजधानी स्थापित करने के लिये सर्वाधिक उचित था। उसने मराठों से अजमेर प्राप्त करने की योजना बनाई तथा 25 जून 1818 को दौलतराव सिंधिया के साथ एक संधि की। इस सन्धि के अनुसार दौलतराव सिंधिया ने अजमेर ईस्ट इण्डिया कम्पनी को बेच दिया।

29 जून 1818 को दिल्ली का रेजीडेण्ट जनरल सर ऑक्टरलोनी तथा कर्नल निक्सन पैदल सेना की आठ रेजीमेंट्स लेकर अजमेर आये। वे मदार पहाड़ी की तलहटी में ठहरे। उन्होंने दौलतराव सिंधिया के गवर्नर बापू सिंधिया को दौलतराव सिंधिया का हुक्मनामा भिजवाया जिसके द्वारा बापू सिंधिया को निर्देश दिया गया था कि वह तुरंत अजमेर खाली करके उसका अधिकार अंग्रेजों को सौंप दे।

बापू सिंधिया ने इस आदेश को मानने से मना कर दिया और विद्रोह करने पर उतारू हो गया। इस पर सर डेविड ऑक्टरलोनी ने अपनी सेनाओं को कार्यवाही करने के लिये तैयार किया। बड़े रक्तपात की आशंका से बापू सिंधिया, गढ़ बीठली को खाली करके अपने परिवार सहित ग्वालियर के लिये रवाना हो गया।

ईस्ट इण्डिया कम्पनी द्वारा अजमेर सहित पूरे राजपूताने पर अधिकार कर लिये जाने के बाद, राजपूताने के किलों का महत्व शनैः शनैः कम होता हुआ समाप्त हो गया। दुर्ग केवल इतिहास की धरोहर बनकर रह गये।

दुर्ग के सम्बन्ध में लोकोक्तियाँ

बांको है गढ़ बीठली, बांको भड़ बीसल्ल।

खाग खेंचतो खेत मझ, दलमलतो अरिदल्ल।।

X X X

गौड़ पंवार सिसोदिया, चहुवाणां चितचोर।

तारागढ़ अजमेर रो, गरवीजै गढ़ जोर।।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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