केकिंद मेड़ता से 23 किलोमीटर दक्षिण में स्थित है। यहाँ से प्राप्त शिलालेखों में इस स्थान का पुराना नाम किष्किंधा दिया गया है। ईसा की बारहवीं शताब्दी में किष्किंधा पर नाडोल के चौहानों के सामन्त शासन करते थे जिन्हें राणा की उपाधि प्राप्त थी। वर्तमान में केकिंद को जसनगर कहा जाता है। केकिंद की ख्याति यहाँ स्थित 11वीं शताब्दी के शिवमंदिर के कारण है।
यह मंदिर संभवतः चौहानों द्वारा बनवाया गया। यह मंदिर मुसलमानों के बड़े आक्रमण का शिकार हुआ जिसके कारण मंदिर में काफी टूट-फूट हुई। मंदिर के बाहर की प्रायः सभी मूर्तियां या तो पूरी तरह से या आंशिक रूप से तोड़-फोड़ कर नष्ट कर दी गई हैं। कुछ ताकों में प्राचीन खण्डित मूर्तियां तथा कुछ ताकों में राठौड़ों के शासन काल में बनाकर लगाई गई मूर्तियां देखने को मिलती हैं।
इन ताकों पर सुंदर काम किया गया है जिनमें अष्ट दिक्पाल, सप्तमातृकायें, नृसिंह तथा नटेश्वर की मूर्तियां विराजमान हैं। सभा मण्डप के एक ताक में यशोदा तथा उनकी गोद में कृष्ण विराजमान हैं। कृष्णलीला के पूतनावध, माखन चोरी, गजासुर वध, शकटासुर वध, वृषभासुर वध, कृष्ण द्वारा बांसुरी वादन, ब्रज तथा मथुरा में कृष्ण, कंस के हाथी का वध, कंस से मल्लयुद्ध तथा अन्य प्रसंग भी मंदिर के सभामण्डप में उत्कीर्ण किये गये हैं।
शिव और नृसिंह प्रतिमाओं के मुख पूरी तरह तोड़ दिये गये हैं। सप्तमातृकाओं के साथ कार्तिकेय स्वामी भी उपस्थित हैं। सभा मण्डप की ऊपरी छत अष् कोणीय है जिसे आठ स्तंभ सहारा दे रहे हैं। इन स्तंभों के शीर्ष भाग पर रामायण के सीताहरण, लक्ष्मण को शक्ति लगना, राम-लक्ष्मण तथा हनुमान का वार्तालाप, हनुमान द्वारा संजीवनी का लाना, वानरसैन्य का प्रयाण, सेतु का निर्माण, जटायु उत्सर्ग आदि प्रसंग उत्कीर्ण हैं।
कुछ प्रसंग ऊपर की शिलाओं पर उत्कीर्ण हैं जिनमें राम का वन गमन, पंचवटी में श्रीराम, स्वर्णमृग हेतु सीता की अनुनय, मारीचवध, सीता की खोज, बाली वध, राक्षसों और वानरों के बीच युद्ध आदि दर्शाये गये हैं।
सभामण्डप में चार लेख हैं जिनमें से एक नष्ट हो गया है। सबसे प्राचीन लेख तीन खण्डों का है। इसके प्रथम खण्ड में वि.सं. 1176 वैशाख सुदि 15 (15 अप्रेल 1120), गुरुवार चन्द्रग्रहण के दिन राजपूत राणा महिपाल तथा किष्किंधा के चाहमाण रुद्र द्वारा गणेश्वर के निमित्त भेंट किये जाने का उल्लेख है।
दूसरे खण्ड में वि.सं. 1200 चैत्र सुदि 14 (20 मार्च 1144) सोमवार को गुणेश्वर के निमित्त चोपदेव द्वारा दी गई भेंट का उल्लेख है और तीसरे खण्ड में वि.सं. 1202 चैत्र सुदि 14 (28 मार्च 1146) गुरुवार को राणी श्री सांवल देवी और राणक श्री साहणपाल द्वारा दी गई भेंटों की अलग-अलग सूचनाएं हैं।
दूसरा लेख किष्किंधा के महामण्डलीक राणक पीपलराज के समय का वि.सं. 1178 चैत्र, वदि 1 (24 फरवरी 1122) का है। तीसरा लेख वि.सं. 1224 (ई.1167) का है जिसमें महामण्डलेश्वर जसधरपाल तथा अन्य महाजनों द्वारा गुणेश्वर के निमित्त दान दिये जाने की अलग-अलग सूचनाएं हैं।
कुछ लेख 16वीं तथा 17वीं श्तााब्दी के भी प्राप्त हुए हैं। वि.सं. 1585 (ई.1528) का शिलालेख सातल द्वारा लिखा गया है। वि.सं. 1656 (ई.1599) का लेख शंकर सोनी द्वारा लिखा गया है। एक शिलालेख वि.सं. 1666 (ई.1609) का है। ये सभी शिलालेख मंदिर के जीर्णोद्धार की सूचना देते हैं।
केकिंद का मंदिर कब एवं किसने बनवाया इसकी सूचना देने वाला लेख संभवतः मुस्लिम आक्रमण में नष्ट हो गया। मंदिर के लेखों से स्पष्ट है कि यह 12वीं-13वीं शताब्दी में गुणेश्वर (शिव) मंदिर था किंतु बाद में नीलकण्ठ महादेव कहलाने लगा।
इस मंदिर के पास ही पार्श्वनाथ जैनमंदिर स्थित है। यह जैनमंदिर शिवमंदिर से एक-दो शताब्दी बाद का है। जैनमंदिर के सभामण्डप के कुछ स्तम्भ 13वीं शती के हैं, शेष सम्पूर्ण मंदिर जीर्णोद्धार के समय बनाये गये हैं।
तीर्थंकर की चरण चौकी पर वि.सं. 1230 आषाढ़ सुदि 9 (10 जून 1174) का एक लेख है जिसमें आनन्दसूरि की आज्ञा से विधि के मंदिर में मूल नायक की मूर्ति स्थापित किये जाने का उल्लेख है। मंदिर के एक स्तंभ पर ई.1608 का लेख उत्कीर्ण है।
यह लेख राठौड़ वंशी मल्लदेव (मालदेव) के प्रपौत्र, उदयसिंह के पौत्र और सूरसिंह के पुत्र गजसिंह के काल का है। इसमें कहा गया है कि उदयसिंह को बब्बर (बाबर) के वंशधर, अकब्बर (अकबर) ने शाह (राजा) की उपाधि दी और वह वृद्ध राजा के नाम से प्रसिद्ध था। नापा ओसवाल ने ई.1608 में इस मंदिर के मण्डप बनवाये जो कि तीर्थयात्रा पर आया था।
इस ब्लॉग में प्रयुक्त सामग्री डॉ. मोहनलाल गुप्ता द्वारा लिखित ग्रंथ नागौर जिले का राजनीतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास से ली गई है।



