हल्दीघाटी के युद्ध में दोनों पक्षों ने अपनी-अपनी जीत बताई है किंतु 18 जून 1576 में हल्दीघाटी का युद्ध होने से लेकर 19 जनवरी 1597 को महाराणा का स्वर्गवास होने तक की समस्त घटनाओं का समग्र विश्लेषण करने से स्पष्ट है कि इस युद्ध में अकबर को विजय प्राप्त नहीं हुई थी। युद्ध के मैदान में न तो महाराणा प्रताप रणखेत रहा, न युद्ध के पश्चात् महाराणा ने समर्पण किया और न ही, युद्ध के पश्चात् के महाराणा के लगभग 21 वर्ष के जीवन काल में महाराणा प्रताप और अकबर के बीच कोई संधि सम्पन्न हुई जिससे यह कहा जा सके कि अकबर को विजय प्राप्त हुई।
न तो महाराणा प्रताप और न उसका पुत्र अमरसिंह कभी भी अकबर के दरबार में उपस्थित हुए। उनके बाद भी कोई महाराणा किसी मुगल बादशाह के दरबार में नहीं गया। उदयपुर के जगदीश मंदिर की श्रावणादि वि.सं. 1708 (चैत्रादि वि.सं.1709) द्वितीय वैशाख सुदि 15 गुरुवार (13 मई 1652) की प्रशस्ति में लिखा है- अपनी प्यारी तलवार हाथ में लिये प्रतापसिंह प्रातःकाल (युद्ध में) आया तो मानसिंह वाली शत्रु की सेना ने छिन्न-भिन्न होकर पैर संकोचते हुए पीठ दिखाई।[1] राणा रासौ आदि मेवाड़ से सम्बन्ध रखने वाली पुस्तकों में भी महाराणा की विजय लिखी गई है।
गौरीशंकर ओझा ने अपना मत प्रस्तुत करते हुए लिखा है- उस समय के संसार के सबसे बड़े सम्पन्न और प्रतापी बादशाह अकबर के सामने एक छोटे से प्रदेश का स्वामी प्रतापसिंह कुछ भी न था क्योंकि मेवाड़ के बहुत से नामी-नामी सरदार बहादुरशाह और अकबर की चित्तौड़ की चढ़ाइयों में पहले ही मर चुके थे, जिससे थोड़े ही स्वामिभक्त सरदार उस (प्रतापसिंह) के लिये लड़ने के लिये रह गये थे।
मेवाड़ का सारा पूर्वी उपजाऊ इलाका अकबर की चित्तौड़ विजय से ही बादशाही अधिकार में चला गया था, केवल पश्चिमी पहाड़ी प्रदेश ही प्रताप के अधिकार में था, तो भी उसका कुलाभिमान, बादशाह के आगे दूसरे राजाओं के समान सिर न झुकाने का अटल व्रत, अनेक आपत्तियां सहकर भी अपनी स्वतंत्रता की रक्षा करने का प्रण और उसका वीरत्व, ये ही उसको उत्साहित करते रहे थे। उसके सरदार भी अपने स्वामी का अनुकरण कर युद्ध में प्राणोत्सर्ग करने को अपना क्षात्रधर्म समझते थे।
इसी से प्रतापसिंह ने 3000 सवारों के साथ 5000 शत्रु सेना को पहले ही आक्रमण में तितर-बितर कर कोसों तक भगा दिया, परन्तु शाही सेना की चन्दावल में बादशाह के आने का शोर मचने से समयसूचकता का विचार कर पहाड़ों का सहारा न छोड़ने की इच्छा से वह हल्दीघाटी के पीछे ससैन्य लौट गया।[2] बेहद गर्मी ओर लड़ाई की थकान के कारण शाही पक्ष का मन शत्रु का पीछा करने को नहीं हुआ और कुंवर अगले ही दिन भगवान के प्रति कृतज्ञता प्रकट करने के बाद, गोगूंदा जा सका। [3]
हिन्दुओं के साथ की मुसलमानों की लड़ाइयों में मुसलमानों का लिखा हुआ वर्णन एकपक्षीय होता है, तो भी मुसलमान लेखकों के कथन से ही निश्चित है कि शाही सेना की बुरी तरह दुर्दशा हुई और प्रतापसिंह के लौटते समय भी उस (मुगल) सेना की स्थिति ऐसी न रही कि वह उसका पीछा कर सके और उसका भय तो उस सेना पर यहाँ तक छा गया कि वह यही स्वप्न देखती थी कि राणा पहाड़ के पीछे रहकर हमारे मारने की घात में लगा हुआ होगा।
दूसरे दिन गोगूंदा पहुँचने पर भी शाही अफसरों को यही भय बना रहा कि राणा आकर हमारे पर टूट न पड़े। इसी से उस गांव के चौतरफ खाई खुदवाकर घोड़ा न फांद सके, इतनी ऊँची दीवार बनवाई और गांव के तमाम मौहल्लों में आड़ खड़ी करवा दी गई। फिर भी शाही सेना गोगूंदे में कैदी की भांति सीमाबद्ध ही रही और अन्न तक न ला सकी जिससे उसकी और भी दुर्दशा हुई। इन सब बातों पर विचार करते हुए यही मानना पड़ता है कि इस युद्ध में प्रतापसिंह की ही प्रबलता रही थी।[4]
मौलाना मुहम्मद हुसैन आजाद ने हल्दीघाटी युद्ध के वर्णन में लिखा है- ‘नमक हलाल मुगल और मेवाड़ के सूरमा ऐसे जान तोड़कर लड़े कि हल्दीघाटी के पत्थर इंगुर हो गये। यह वीरता ऐसे शत्रुओं के सामने क्या काम कर सकती थी जिसके साथ असंख्य तोपें और रहकले आग बरसाते थे और ऊँटों के रिसाले आंधी की तरह दौड़ते थे।[5] यह सही है कि अकबर की सेना के सामने महाराणा की सैन्य संख्या कुछ भी न थी किंतु सैन्य संख्या तो जीत-हार का निर्णय नहीं करती।
हल्दीघाटी के इस युद्ध का यदि कोई परिणाम निकला था तो वह इतना ही था कि अकबर ने अल्प समय के लिये मेवाड़ के बड़े भू-भाग पर अधिकार कर लिया था। इस भू-भाग में से भी केवल माण्डलगढ़ को छोड़कर शेष धरती, महाराणा प्रताप ने अकबर के जीवन काल में ही मुगलों से वापस छीन ली थी। वैसे भी युद्ध के समय किसी पक्ष द्वारा, शत्रु पक्ष का भू-भाग, दुर्ग, धन-सम्पत्ति तथा पशु छीन लेने से अथवा शत्रु पक्ष के परिवार को बंदी बना लेने से उसकी विजय सिद्ध नहीं होती। ई.1948 एवं 1965 में पाकिस्तान ने भारत का भू-भाग दबा लिया किंतु जीत निश्चत रूप से भारत की हुई थी। ठीक वही स्थिति हल्दीघाटी के युद्ध की थी। अकबर ने मेवाड़ का बहुत सा भू-भाग दबा लिया किंतु जीत महाराणा प्रताप की हुई।
युद्ध के मैदान में स्थिति यह थी कि प्रताप के घोड़े ने मानसिंह के हाथी के मस्तक पर अपने दोनों पांव टिका दिये और महाराणा ने अपना भाला मानसिंह पर देकर मारा। मानसिंह झुक गया और महाराणा ने उसे मरा हुआ जानकर अपने घोड़े को मानसिंह के हाथी से हटा लिया। युद्ध के दौरान मुगल सेना की स्थिति इतनी बुरी थी कि जब महाराणा प्रताप हल्दीघाटी से बाहर निकल गया तब अकबर की भयभीत सेना, महाराणा का पीछा तक न कर सकी।
युद्ध के पश्चात् की स्थिति यह थी कि जब तक अकबर जीवित रहा, वह महाराणा प्रताप को जान से मारने तथा महाराणा प्रताप के बाद महाराणा अमरसिंह को युद्ध अथवा संधि के माध्यम से अपनी अधीनता अथवा मित्रता स्वीकार करवाने के लिये तरसता रहा। 5 अक्टूबर 1605 को आगरा के महलों में जब अकबर की मृत्यु हुई तो उसकी दो ही अधूरी आशाएं थीं। पहली यह कि वह महाराणा प्रताप को काबू में न ला सका और दूसरी यह कि वह मानबाई तथा जहांगीर के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी न बना सका।
हल्दीघाटी के युद्ध का सर्वाधिक दूरगामी परिणाम यह था कि मेवाड़ के महाराणाओं ने कभी भी मुगलों, मराठों एवं अंग्रेजों के दरबार में उपस्थिति नहीं दी। यहाँ तक कि ई.1881 में जब अंग्रेजों ने महाराणा सज्जनसिंह को ग्रैण्ड कमाण्डर ऑफ दी स्टार ऑफ इण्डिया का खिताब देना चाहा तो महाराणा ने अपने वंश के प्राचीन गौरव तथा पूर्वजों का बड़प्पन बताते हुए यह सम्मान लेने से मना कर दिया। अंत में गवर्नर जनरल लॉर्ड रिपन स्वयं यह खिताब लेकर मेवाड़ आया और उसने 23 नवम्बर 1881 को महाराणा के दरबार में हाजिर होकर उसे यह खिताब दिया।[6]
ई.1903 में जब दिल्ली में एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण के उपलक्ष्य में गवर्नर जनरल द्वारा दरबार का आयोजन किया गया तब महाराणा फतहसिंह दिल्ली तो पहुँचा किंतु उसने दरबार में भाग नहीं लिया।[7] ई.1911 में जब इंग्लैण्ड का सम्राट जार्ज पंचम दिल्ली आया तो भी महाराणा फतहसिंह दिल्ली के रेलवे स्टेशन पर जार्ज पंचम का स्वागत करके, उसके जुलूस तथा दरबार में भाग लिये बिना ही उदयपुर लौट आया।[8] ई.1921 में जब प्रिंस ऑफ वेल्स उदयपुर आया तो महाराणा फतहसिंह ने उससे भेंट तक नहीं की।[9]
हल्दीघाटी के युद्ध के सैंकड़ों साल बाद की ऐतिहासिक घटनाएं इस तथ्य को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं कि हल्दीघाटी के युद्ध में अकबर पराजित हुआ था किसी भी रूप में उसकी विजय नहीं हुई थी। जबकि दूसरी तरफ इस युद्ध में महाराणा प्रताप निश्चित रूप से विजयी रहा था, किसी भी अंश में उसकी पराजय नहीं हुई थी। इसीलिये महाराणा प्रताप की मृत्यु पर चारण दुरसा आढ़ा ने अकबर के दरबार में यह छप्पय कहा था-
अस लेगो अणदाग, पाघ लेगो अणनामी।
गौ आडा गवडाय, जिको बहतो धुर वामी।
नवरोजे नह गयो, न गौ आतसां नवल्ली।
न गौ झरोखाँ हेठ, जेठ दुनयाण दहल्ली।।
गहलोत राण जीती गयो, दसण मूंद रसणा डसी।
नीसास मूक भरिया नयण, तो मृत शाह प्रतापसी।
अर्थात्- हे गुहिलोत राणा प्रतापसिंह! तेरी मृत्यु पर बादशाह ने दांतों के बीच जीभ दबाई और निःश्वास के साथ आंसू टपकाये क्योंकि तूने अपने घोड़ों को दाग नहीं लगने दिया, अपनी पगड़ी को किसी के आगे नहीं झुकाया, तू अपना आड़ा (यश) गवा गया, तू अपने राज्य के धुरे को बांयें कंधे से चलाता रहा, नौरोजे में नहीं गया। न आतसों (बादशाही डेरों) में गया। कभी झरोखे के नीचे खड़ा न रहा और तेरा रौब दुनियां पर गालिब था, अतः तू हर तरह से विजयी हुआ।
अकबर के दरबारी एवं अपने समय के श्रेष्ठ कवि, बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ ने महाराणा प्रताप की मृत्यु पर उसे श्रद्धांजलि देते हुए कहा-
माई एहा पूत जण, जेहा रांण प्रताप।
अकबर सूतो ओझकै, जांण सिरांणे सांप।।
अर्थात्- हे माता! राणा प्रताप जैसे पुत्र को जन्म दे जिसके भय से अकबर बादशाह कच्ची नींद सोता था, मानो उसके सिराहने सांप बैठा हो।
[1] कृत्वा करे खंगलतां स्ववल्लभां प्रतापसिंहे समुपागते प्रगे। सा खंडिता मानवती द्विपंचमूः संकोचयन्ती चरणौ परांगमुखी। -जगदीश मंदिर प्रशस्ति, शिला 1, श्लोक 41.
[2] ओझा, उदयपुर राज्य का इतिहास, भाग-1, पृ. 442.
[3] अबुल फजल, अकबरनामा, पूर्वोक्त, पृ. 238.
[4] ओझा, पूर्वोक्त, भाग-1, पृ. 442-43.
[5] अकबरी दरबार, तीसरा भाग, पृ. 130.
[6] ओझा, पूर्वोक्त, भाग-2, पृ. 824-25.
[7] मोहनलाल गुप्ता, क्रांतिकारी बारहठ केसरीसिंह, पृ. 13-17.
[8] मोहनलाल गुप्ता, उदयपुर संभाग का सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक अध्ययन, पंचम् संस्करण 2011, पृ. 43.
[9] उपरोक्त, पृ. 44.