Thursday, November 21, 2024
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चित्तौड़ की निर्बलता (2)

राजपूतों द्वारा मुगलों की अधीनता से गुहिलों को नुक्सान

ई.1556 में मुगलों का सर्वाधिक शक्तिशाली बादशाह अकबर, आगरा एवं दिल्ली के तख्त पर बैठा। दुर्भाग्य से ई.1562 में आम्बेर के कच्छवाहों ने अपने घरेलू क्लेश से छुटकारा पाने के लिये, अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा मेवाड़ के गुहिलों की सेवा त्याग दी। कच्छवाहों के अनुकरण में जोधपुर एवं बीकानेर के राजाओं ने भी, गुहिलों की मित्रता छोड़कर, अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली तथा अपने-अपने राज्यों को सुरक्षित बनाने का प्रयास किया। हिन्दू राजाओं की इस कार्यवाही से गुहिल, राजपूताने में अलग-थलग पड़ गये तथा उनकी शक्ति को बहुत नुक्सान हुआ।

महाराणा उदयसिंह और जलालुद्दीन अकबर

ई.1567 में मालवा का सुल्तान बाजबहादुर (बायजीद), अकबर के सेनापति अब्दुलाहखां के भय से, मालवा छोड़कर, महाराणा उदयसिंह की शरण में आया। उदयसिंह ने उसे अपने पास रख लिया। इस पर अकबर बहुत क्रुद्ध हुआ और स्वयं सेना लेकर चित्तौड़ की ओर बढ़ा।  उसके सेनापतियों ने सिवीसुपर (शिवपुर), कोटा, गागरौन एवं माण्डलगढ़ पर अधिकार कर लिया। महाराणा ने अपने सरदारों को चित्तौड़ की रक्षा के लिये बुलाया। इस पर जयमल वीरमदेवोत, रावत सांईदास चूंडावत, ईसरदास चौहान, राव बल्लू सोलंकी, डोडिया सांडा, राव संग्रामसिंह, रावत साहिबखान, रावत पत्ता, रावत नेतसी आदि सरदार (अपनी सेनाएं लेकर) चित्तौड़ आ गये।

इन सरदारों ने महाराणा को सलाह दी कि गुजराती सुल्तान से लड़ते-लड़ते मेवाड़ कमजोर हो चुका है इसलिये आपको अपने परिवार सहित पहाड़ों की तरफ चले जाना चाहिये। इस पर महाराणा, राठौड़ जयमल और सिसोदिया पत्ता को दुर्ग सौंपकर, रावत नेतसी आदि कुछ सरदारों सहित मेवाड़ के पहाड़ों में चला गया और किले की रक्षार्थ 8000 राजपूत रहे। 

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अकबर की सेनाएं चित्तौड़ तक आ धमकीं। विचित्र दृश्य था, कल तक आम्बेर के कच्छवाहे तथा जोधपुर और बीकानेर के राठौड़, चित्तौड़ की रक्षा करने में अपना गर्व समझते थे, आज वे अकबर की चाकरी स्वीकार कर चित्तौड़ का मानभंजन करने को तलवारें निकालकर खड़े थे। मेड़ता के राठौड़ अब भी गुहिलों के कंधे से कंधा लगाकर चित्तौड़ के रक्षक बने हुए थे। मुट्ठी भर चौहान, सोलंकी, डोडिया और झाला भी चित्तौड़ के लिये मरने-मारने को तैयार थे। भले ही चित्तौड़ के रक्षक थोड़े से थे किंतु इनके सामने ‘अकबर’ की दाल गलनी कठिन थी। कई महीनों के घेरे के बाद अकबर ने किले की दीवारों में सुरंगें बनाकर उनमें बारूद भर दिया और किले की दीवारों को उड़ा दिया। एक रात, दुर्ग की दीवारों की मरम्मत करवाते समय राठौड़ जयमल, अकबर की बंदूक की गोली से घायल हो गया तथा उसकी एक टांग बेकार हो गई, फिर भी हिन्दू सरदार डटे रहे।

जब दुर्ग में भोजन सामग्री समाप्त होने को आई तो हिन्दू सरदारों ने केसरिया करने का निर्णय लिया। एक रात हिन्दू स्त्रियों और बच्चों ने जौहर किया। दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही हिन्दू वीर, दुर्ग का द्वार खोलकर शत्रु पर टूट पड़े। जयमल ने अपने कुटुम्बी कल्ला राठौड़ के कंधे पर बैठकर युद्ध किया। वे दोनों वीर, हाथों में नंगी तलवारें लेकर लड़ते हुए हनुमान पोल और भैरव पोल के बीच में काम आये।  डोडिया सांडा घोड़े पर सवार होकर शत्रु सेना को काटता हुआ गंभीरी नदी के पश्चिमी तट पर काम आया।  राजपूतों का प्रचण्ड आक्रमण देखकर अकबर ने कई सधाये हुए हाथियों को सूण्डों में खाण्डे पकड़ाकर आगे बढ़ाया। कई हजार सवारों के साथ अकबर भी हाथी पर सवार होकर किले के भीतर घुसा। ईसरदास चौहान ने एक हाथ से अकबर के हाथी का दंात पकड़ा और दूसरे हाथ से संूड पर खंजर मारकर कहा कि गुणग्राहक बादशाह को मेरा मुजरा पहुँचे। 

हिन्दू वीरों ने कई हाथियों के दांत तोड़ डाले और कइयों की सूण्डें काट डालीं जिससे कई हाथी वहीं मर गये और बहुत से दोनों तरफ के सैनिकों को कुचलते हुए भाग निकले। पत्ता चूण्डावत बड़ी बहादुरी से लड़ा परंतु एक हाथी ने उसे सूण्ड से पकड़कर पटक दिया जिससे वह सूरजपोल के भीतर काम आया।  रावत साईंदास, राजराणा जैता सज्जावत, राजराणा सुलतान आसावत, राव संग्रामसिंह, रावत साहिबखान, राठौड़ नेतसी आदि राजपूत सरदार मारे गये।  सेना के साथ प्रजा का भी खूब विनाश हुआ क्योंकि इस युद्ध में प्रजा ने भी बड़ी संख्या में भाग लिया था। राजपूत सेना के नष्ट होने जाने के बाद ‘अकबर महान’ ने चित्तौड़ दुर्ग में कत्लेआम की आज्ञा दी। दुर्ग में एक भी हिन्दू जीवित न बचा। 25 फरवरी 1568 को दोपहर के समय अकबर ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया और तीन दिन वहाँ रहकर अब्दुल मजीद आसफखां को दुर्ग का अधिकारी नियुक्त करके वह अजमेर की तरफ रवाना हुआ।  जयमल और पत्ता को तो अकबर अपने अधीन नहीं कर सका किंतु हाथियों पर चढ़ी हुई उनकी पाषाण प्रतिमाएं बनाकर आगरा के दुर्ग के द्वार पर खड़ी करवाईं। 

चित्तौड़गढ़ हाथ से निकल जाने के चार-पांच माह बाद उदयसिंह अपने बचे हुए हिन्दू सैनिकों के साथ उदयपुर पहुँचा और अपने अधूरे पड़े महलों को पूरा कराया।  चित्तौड़ पतन के एक वर्ष बाद, फरवरी 1569 में अकबर ने महाराणा के दूसरे सबसे सुदृढ़ दुर्ग रणथंभौर पर घेरा डाला। उस समय राव सुरजन हाड़ा रणथंभौर दुर्ग पर महाराणा की ओर से दुर्गपति (किलेदार) नियुक्त था। लगभग एक माह की घेराबंदी और गोलाबारी के बाद सुरजन ने संधि करना स्वीकार कर लिया। राजा भगवानदास कच्छवाहा और उसके पुत्र मानसिंह ने यह संधि करवाई। 21 मार्च 1569 को सुरजन हाड़ा, अकबर की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने अकबर को दुर्ग की चाबियां सौंप दीं तथा महाराणा की सेवा छोड़कर अकबर की सेवा स्वीकार कर ली।  ई.1568 में चित्तौड़ से निष्क्रमण के पश्चात् महाराणा कुम्भलगढ़ में रहने लगा क्योंकि उदयपुर नगर उस समय तक पूरा बसा नहीं था। ई.1572 के आरम्भ में उदयसिंह गोगूंदा आया, 15 फरवरी 1572 को वहीं उसका देहांत हुआ जहाँ उसकी छतरी बनी हुई है। 

इतिहासकारों द्वारा उदयसिंह का गलत मूल्यांकन

उदयसिंह एक वीर राजा था किंतु कर्नल टॉड ने उसे ‘सुयोग्य पिता का अयोग्य पुत्र’ कहकर उसकी अवहेलना की है। गौरीशंकर ओझा ने भी एक स्थान पर उसके लिये ‘लम्पट, विलासप्रिय, एवं विषयी’  आदि शब्दों का प्रयोग किया है। दोनों ही इतिहासकारों द्वारा महाराणा उदयसिंह का उचित मूल्यांकन नहीं किया गया है। दोनों इतिहासकारों ने उन परिस्थितियों को किंचित् भी ध्यान में नहीं रखा है जिनमें, उदयसिंह को मेवाड़ की गद्दी मिली थी। यह नहीं भूलना चाहिये कि उदयसिंह के गद्दी पर बैठने के मात्र 10 वर्ष पूर्व महाराणा सांगा, खानवा के मैदान में अपने लगभग समस्त प्रमुख सरदारों को खो चुका था तथा महाराणा रत्नसिंह केवल 3 साल शासन करके मर गया था। रत्नसिंह के बाद अयोग्य महाराणा विक्रमादित्य ने लगभग 5 साल के शासन काल में मेवाड़ को खोखला बना दिया था।

वणवीर की दुष्टता के कारण मेवाड़ की शक्ति को जर्बदस्त धक्का लगा था तथा उदयसिंह को चित्तौड़ त्यागकर अज्ञातवास में जाना पड़ा था। मालवा तथा गुजरात से चल रहे निरंतर युद्धों में मेवाड़ की शक्ति दिनों-दिन छीजती जा रही थी। अब मेवाड़ के शत्रुओं की पंक्ति में केवल मालवा एवं गुजरात ही नहीं थे अपितु मुगल सल्तनत भी मेवाड़ की शक्ति पर निरंतर चोट कर रही थी। इतना होने पर भी जो इलाके विक्रमादित्य के समय में मुसलमानों ने छीन लिये थे, उनमें से कुछ इलाके उदयसिंह ने वापस प्राप्त कर लिये।  उदयसिंह की असफलताओं के लिये वह स्वयं कम जिम्मेदार था, उसकी बजाय वे हिन्दू राजा अधिक जिम्मेदार थे जो मेवाड़ की चाकरी त्यागकर, अकबर के साथ हो लिये तथा चित्तौड़ के दुर्ग पर शत्रु बनकर चढ़ आये।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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