Friday, November 22, 2024
spot_img

75. आमिष

डांगावास विजय का समाचार सुनकर महादजी की बांछें खिल गईं। राठौड़ों पर विजय पाने के समाचार को सुनने के लिये उसके कान बरसों से तरस रहे थे। इस विजय का पूरा-पूरा लाभ उठाने के उद्देश्य से वह तत्काल मथुरा से चल पड़ा और रेवाड़ी होता हुआ सांभर आ पहुँचा। यहाँ मरुधरानाथ का दूत नवलराम व्यास उसकी सेवा में उपस्थित हुआ। उसने मराठा सेनापति के समक्ष, मरुधरानाथ की ओर से संधि का प्रस्ताव रखा। सिंधिया गर्व से ग्रीवा फुलाये हुए उस मयूर की भाँति अपने आसन पर बैठा रहा जो काले-काले बादलों को देखकर घमण्ड से भर गया हो। उसे चारों ओर से चांदी के रुपये बरसने की आवाजें आ रही थीं इसलिये उसे नवलराम व्यास की आवाज सुनाई ही नहीं दी। मरुधरानाथ का दूत अपमानित होकर लौट गया।

जब मराठों के साथ कोई सुलह नहीं हो सकी तब मरुधरानाथ ने राज्य कार्य से उदासीन होकर गोकुलस्थ गुरु गुसाईं के साथ ईश्वर भक्ति और पाठ पूजा में तल्लीन होने का प्रयास किया किंतु गोवर्धन खीची ने मरुधरानाथ को समझाया-‘ऐसे निराश मत होईये। अकेला महादजी ही सब-कुछ नहीं है।’

-‘ठाकरां यदि आप महादजी के समक्ष तुकोजीराव होलकर को खड़ा करना चाहते हैं तो अच्छी तरह सुन लीजिये कि तुकोजी तो पहले से ही हमसे खार खाये हुए है।’

-‘तुकोजीराव तो एक नम्बर का मक्कार है, उसे तो मेवाड़ का रक्त चूसने से ही अवकाश नहीं है। राणेखान तथा त्र्यम्बक भी तो हैं, हम उनसे सम्पर्क करते हैं।’

-‘सारे मराठे एक जैसे हैं। फिर भी तुम चाहो तो प्रयास करके देख लो।’ मरुधरानाथ ने गोवर्धन को स्वीकृति प्रदान की।

गोवर्धन ने संधि की नई शर्तों के साथ अपना दूत राणेखान तथा त्र्यम्बक राव के पास भिजवाया। मराठा सरदारों को ये शर्तें अच्छी लगीं। वैसे भी ये मराठा सरदार पिछले काफी समय से अनुभव कर रहे थे कि महादजी उनकी उपेक्षा करके उत्तर भारत की सारी चौधराहट स्वयं कर रहा है इसलिये राणेखान ने महादजी को संदेश भेजा कि वह अविलम्ब राठौड़ों से संधि की वार्त्ता करे। हमारा उद्देश्य मारवाड़ रियासत पर अधिकार जमाना नहीं है अपितु खण्डनी का पैसा वसूल करके पेशवा सरकार में जमा करवाना है।

महादजी ने इस संदेश में छिपी हुई रोष की आँच को पहचान लिया। महादजी चाहता था कि इस बार वह राठौड़ों को सदैव के लिये परास्त करके उनका सिर कुचल दे किंतु वह समझ गया कि दूसरे मराठा सरदार उसे ऐसा नहीं करने देंगे। महादजी के अकेले के वश में यह काम था भी नहीं। इसलिये उसने जोधपुर के दूत से संधि की बात करना स्वीकार कर लिया। फिर भी उसने इस बात का पूरा प्रयास किया कि संधि की शर्तें इतनी कठोर रखी जायें कि मरुधरानाथ स्वयं ही संधि करने से इन्कार कर दे।

महादजी ने मरुधरानाथ के दूत से युद्ध की क्षति पूर्ति के दो करोड़ पैंतीस लाख रुपये, पुरानी बकाया के पन्द्रह लाख छासठ हजार रुपये, मृत रामसिंह के हिस्से का आधा राज्य, अजमेर की तीन साल की मामलत के नौ लाख रुपये, सेना खर्च के लिये दो अच्छे परगने तथा सांभर देने की मांग की। उसने जयप्पा के समय का छप्पन लाख रुपया तथा उसका ब्याज मिलकार कुल एक करोड़ रुपये की और मांग की। इतनी भारी मांगों को सुनकर मरुधरानाथ का माथा चकरा गया। उसने अजमेर का पूरा क्षेत्र तथा पुराने कर सहित युद्ध की क्षति पूर्ति के रूप में पंद्रह लाख साठ हजार रुपये देने स्वीकार किये और शेष शर्तें मानने से मना कर दिया।

महादजी यही चाहता था, उसने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया और संधिवार्त्ता विफल रहने की घोषणा कर दी। जिस समय सांभर में संधिवार्त्ता असफल हुई ठीक उसी समय मिर्जा इस्माईल बेग अपने पाँच हजार घुड़सवारों को लेकर जोधपुर के बाहर चैनपुरा पहुँचा। उसकी अगवानी के लिये मरुधरानाथ स्वयं नगर से निकलकर चैनपुरा गया। मिर्जा ने शहर में प्रविष्ठ होकर महाराजा को नजर पेश की तथा उसके दरबार में हाजिर होकर तस्लीम आदाब की। महाराज ने उसी समय उसे चार हजार रुपये मूल्य के चार घोड़े, हाथी, कुर्ता, सिरपेंच तथा मोतियों की कण्ठी भेंट की तथा उसे चांद रात से चांद रात तक का सत्तर हजार रुपया दिया। किले में से सात अच्छी तोपें निकलवाकर उसे भेंट कीं। महाराजा ने मिर्जा इस्माईल को छः हजार सैनिकों के खर्च के लिये पचास हजार मुहरें भी दीं।

मिर्जा इस्माईल बेग ने महाहाज द्वारा किये गये स्वागत सत्कार से प्रसन्न होकर, मुल्तान के मोर्च पर नियुक्त अपने सैनिकों को पूगल के रास्ते नागौर के पास ताऊसर में पाँच-पाँच सौ के जत्थे के रूप में पहुँचने के आदेश दिये। इस सेना को उपलब्ध करवाने के लिये जोधपुर में युद्ध सामग्री तैयार की जाने लगी। बीकानेर से भी मिर्जा के तीन हजार सैनिक जोधपुर पहुँच गये।

जिस दिन मिर्जा इस्माईल चैनपुरा पहुंचा था उसके दो दिन बाद महाराजा के बख्शी भीमराज सिंघवी ने भी अपने चार हजार घुड़सवारों के साथ चैनपुरा पहुँच कर मुकाम किया। मरुधरानाथ ने उसे भी पूरे सम्मान के साथ गढ़ में बुला लिया।

2 नवम्बर 1790 को मरुधरानाथ ने नाना साहब के वकील कृष्णाजी जगन्नाथ को अपने दरबार में बुलवाया और उससे कहा-‘नाना साहब यदि वास्तव में संधि करना चाहते हैं तो हमारी हैसियत के अनुसार हमसे सेना का खर्च ले लें। हम कुछ राशि नगद देंगे तथा शेष राशि के लिये एक दो परगने और देंगे। पहले की तरह बकाया वसूली की राशि का चुकारा कर देंगे। तीन साल के चुकारे सहित अजमेर दे देंगे। हम यह बात शपथ पूर्वक लिख कर देने को तैयार हैं। यदि नाना साहब, श्रीमन्त पेशवा तथा महादजी सिन्धिया को ये शर्तें स्वीकार हों तो इन्हें मानकर विवाद समाप्त कर दें। यदि ये शर्तें महादजी सिन्धिया को स्वीकार न हों तो नाना साहब को समझ लेना चाहिये कि स्वर्गीय रामसिंह हमारा भाई था। आपके कहने से हमने उसे आधा हिस्सा दिया था और उस समय सम्पत्ति पर विचार नहीं किया था। हमें ईश्वर ने राज्य दिया है, हमने उसे जीत कर लिया है। महादजी सिन्धिया मृत रामसिंह का पक्ष लेकर जालौर के किले सहित आधा राज्य हड़पना चाहते हैं तो हमारे पास क्या शेष रह जायेगा? यदि ऐसा ही होना है तो हमारे पास जो बीस हजार राठौड़ हैं। वे सब काम आ जायेंगे। मरुधरदेश राठौड़ों का ही है और रहेगा।’

-‘आप जयप्पाजी के समय से बाकी चल रहे छप्पन लाख रुपये भी नहीं देंगे क्या?’ कृष्णाजी ने पूछा।

-‘पानीपत के युद्ध के बाद जब नाना साहब पेशवा उज्जैन में थे तब अप्पाजी, हमारी ओर से जमानत के लिये चार व्यक्तियों को अपने साथ ले गया था। तब श्रीमन्त पेशवा ने उन्हें बुलाकर सम्मानित किया था तथा उनसे छप्पन लाख रुपये का कागज लेकर फाड़ दिया था। वे चारों व्यक्ति अब भी उज्जैन में हैं।’

-‘आप श्रीमंत पेशवा सरकार के पास अपना वकील भेजकर वहाँ से छप्पन लाख रुपये की माफी का पत्र प्राप्त कर लेवें। पाटीलबाबा उस कागज को मानने से मना नहीं करेंगे।’

-‘यदि हमें बातचीत में उलझाकर महादजी सिन्धिया यहाँ आकर युद्ध करेंगे तो हम भी नहीं चूकेंगे। हम जीते जी अपनी जमीन नहीं देंगे। हमारे मरने के बाद पेशवा भले ही इस जमीन को ले ले। आप मारवाड़ के आधे राज्य की मांग करते हैं तो हम मर मिटने के लिये तैयार हैं।’ मरुधरानाथ ने बिगड़ कर कहा।

जगन्नाथ ने ये बातें ज्यों की त्यों नाना साहब को लिख भेजीं। साथ में यह भी लिखा कि महादजी मारवाड़ राज्य को बिगाड़ना चाहता है। इसलिये महाराजा विजयसिंह भी अपनी ओर से सावधान है। उसने अपने समस्त भाई बंधुओं को एकत्रित कर लिया है और केसरिया बाना पहन कर मरने मारने पर उतारू है। महादजी के मारवाड़ में पैर रखते ही संघर्ष शुरू हो जायेगा। यश-अपयश ईश्वर के अधीन है। मरुधरानाथ धोखा देकर महादजी की हत्या करने से नहीं चूकेंगे। आगामी वर्ष का भविष्य अनुकूल नहीं है। अतः श्रेयस्कर यही होगा कि डांगावास तथा अजमेर विजय का जो यश प्राप्त हुआ है उसकी रक्षा करते हुए मारवाड़ के साथ संघर्ष समाप्त किया जाये।

उधर महादजी संधि में विलम्ब कर रहा था और इधर धीरे-धीरे महाराजा की सेना का आकार फूलता जा रहा था। कृष्णाजी जगन्नाथ हर पखवाड़े में एक बार कासिद सांभर भेज रहा था ताकि महादजी जोधपुर की तैयारियों से अवगत रहे। उसने नाना साहब को सूचित किया कि यहाँ परिस्थितियाँ निरंतर विपरीत मोड़ लेती हुई दिखाई दे रही हैं। राठौड़ मरने मारने पर उतारू हैं। उन्हें अपनी जमीन की रक्षा करने के लिये अपना सर्वनाश करवाना भी स्वीकार है। मरुधरानाथ के इस कथन को निश्चयात्मक समझना चाहिये। इन परिस्थितियों में यदि मैदान हाथ से जाता रहा तो फिर यहाँ से निकलना भी दूभर हो जायेगा। यदि समझौता होगा तो इन्हीं शर्तों पर होगा, छप्पन लाख और आधे राज्य की मांग छोड़नी पड़ेगी अन्यथा युद्ध अवश्यंभावी है। फिर अलग बात होगी। यदि हमारी विजय होगी तो ये दगाबाजी करेंगे।

इधर राठौड़, महादजी का स्वागत तलवारों से करने की तैयारियाँ कर रहे थे और उधर जब महादजी ने देखा कि राठौड़ एक बार फिर मरने मारने को तैयार हैं तो उसने दूसरे मराठा सरदारों को उकसाया कि वे सेनाएं लेकर आयंे ताकि जोधपुर पहुँचकर राठौड़ों को पराजय का अंतिम अध्याय पढ़ाया जा सके किंतु मराठा सरदारों ने महादजी का प्रस्ताव ठुकरा दिया तथा उसे मरुधरानाथ से संधि करने की सलाह दी। तुकोजी राव होलकर ने मरुधरानाथ को भी संदेश भेजा कि एक बार फिर वह अपना वकील महादजी की सेवा में भेजे।

महाराजा ने इस बार बुधसिंह चाम्पावत को सांभर भेजा। महादजी ने अम्बाजी चिटणिस को अपनी ओर से संधि की शर्तें तय करने और बुधसिंह से बात करने के लिये नियुक्त किया। कुछ ही दिनों में संधि की नई शर्तें स्थिर कर ली गईं। महादजी ने इन शर्तों को स्वीकार करके उन पर अपनी मुहर लगा दी तथा अम्बाजी चिटणिस और अन्य मराठा वकीलों को बुद्धसिंह चाम्पावत के साथ जोधपुर के लिये रवाना किया। बुद्धसिंह मराठों के इस प्रतिनिधि मण्डल को अपने साथ लेकर जोधपुर पहुँचा ताकि संधि की शर्तों पर मरुधरानाथ की मुहर लगवाई जा सके।

5 जनवरी 1791 को जोधपुर के प्रतिनिधियों एवं महादजी सिंधिया के बीच सांभर की संधि हुई जिसके अनुसार मरुधरानाथ ने मराठों को अजमेर का पूरा परगना, बीठली गढ़, अजमेर नगर, सांभर, सांभर की झील, खरवा, मसूदा और भिणाय सहित उन्तीस गाँव देने स्वीकार कर लिये। नजराना, दरबार खर्च, खासा सवारी, भरणे आदि के लिये चालीस लाख रुपये, फसल की क्षति पूर्ति के रूप में पायमल्ली के बीस लाख रुपये, गोपालराव भाऊ को सेना में वितरण करने के लिये पंद्रह लाख रुपये, चार लाख रुपये का कीमती सामान तथा युद्ध की क्षति पूर्ति के लिये चार साल तक बीस लाख रुपये सालाना देने स्वीकार कर लिये। वार्षिक कर के रूप में पाँच साल तक तीन लाख रुपया वार्षिक देना भी स्वीकार किया। महाराजा ने यह भी स्वीकार कर लिया कि आज के बाद वह मराठों की अनुमति के बिना किशनगढ़ राज्य पर आक्रमण नहीं करेगा तथा जोधपुर राज्य अब मुगल बादशाह के स्थान पर मराठों को कर दिया करेगा। मरुधरानाथ ने अपने कांपते हुए हाथों से संधि पत्र पर हस्ताक्षर करके अपनी मुहर अंकित कर दी। उसने महादजी को आठ लाख रुपये तो उसी समय चुका दिये। सात लाख रुपये के हीरे-जवाहर दे दिये। पन्द्रह लाख रुपये के लिये प्रतिष्ठित मुत्सद्दिदयों ने जमानत दी। शेष पाँच लाख रुपये में हाथी, घोड़े, ऊँट और बैल दे दिये।

दो साल से बरसात नहीं हो रही थी जिससे मारवाड़ में भयानक अकाल की स्थिति थी। राज्य की बहुत सी पूंजी पहले तुंगा और बाद में डांगावास युद्ध में खर्च हो चुकी थी। इस पर भी महादजी ने मारवाड़ से कर एवं क्षतिपूर्ति के रूप में इतनी बड़ी राशि मांगकर उसे कंगाली के कगार पर पहुँचा दिया। अब राजकोष में सेना को चुकाने के लिये धन नहीं रहा। इससे कई सेनाएं बिखेर दी गईं।

जब जोधपुर राज्य की कई सेनाएं भंग हो गईं तब खालसा जागीरों की देखभाल करने वाला कोई नहीं रहा। इससे उत्साहित होकर कई मराठा लुटेरे, पिण्डारी और मुस्लिम सेनापति लूटपाट मचाने लगे। जनता के दुःख दर्द की शिकायतें सुनने वाला कोई नहीं था। लुटेरों के उपद्रव से सारा प्रदेश तहस-नहस होने लगा। एक भी गाँव ठीक हालत में नहीं रहा। राज्य की ऐसी दुर्दशा देखकर मरुधरानाथ के शोक का पार नहीं रहा। एक बार फिर से वह शोक के महान सागर में डूब गया।

संधि तो हो गई किंतु इस संधि ने वृद्ध मरुधरानाथ की कमर को झुकाकर रख दिया। इतनी बड़ी रकम का प्रबंध करना संभव नहीं था। सांभर और अजमेर के उपजाऊ क्षेत्र हाथ से निकल जाने के बाद तो यह कदापि संभव नहीं था। फिर भी आसन्न संकट को टालने के लिये सब कुछ चुपचाप स्वीकार कर लेने के अतिरिक्त मरुधरानाथ के पास और कोई उपाय भी तो नहीं था! पाटण और डांगावास के युद्धक्षेत्र मारवाड़ के नामी गिरामी वीरों, सामंतों और सेनापतियों को पहले ही खा चुके थे अब कोष भी रीत गया। महाराजा पूरी तरह श्री-विहीन हो गया। उसके मन में अंधेरा और ठण्डापन छा गया। महाराजा की वाणी ने भी मानो थककर विराम ले लिया। अब वह बहुत कम बोलने लगा। या तो कोई बात उसे सुनाई ही नहीं देती, सुनाई देती तो समझ में नहीं आती, समझ में आती तो वह उसका जवाब नहीं देता। जवाब देता तो स्पष्ट नहीं कहकर हाँ-हूँ कह देता।

महाराजा की ऐसी दशा देखकर गुलाब ने महाराजा के सारे अधिकार ग्रहण कर लिये। अब वही महाराजा की आँख, नाक, कान, वाणी, सब कुछ बन गई। महाराजा की तरफ से अब वही सब निर्णय ले लेती। महाराजा चुपचाप उसके सब निर्णयों को स्वीकार कर लेता। मरुधरानाथ की आयु भी अब ऐसी हो गई थी कि उसके हाथ-पाँव पूरी त्वरा से कार्य नहीं कर पाते थे। मस्तिष्क में एक शून्यता उत्पन्न हो गई थी जिसकी गूंज से उसके कान सनसनाते रहते थे।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source