Sunday, December 22, 2024
spot_img

27. कासिम खाँ की नमक हरामी

एक जमाने में कासिम खाँ बहुत छोटा सा सिपाही हुआ करता था किंतु शहजादे दारा की मेहरबानियों से तरक्की करता हुआ अच्छा खासा मनसब पा गया था। दारा ने अपना विश्वसनीय आदमी जानकर ही उसे औरंगज़ेब और मुराद की संयुक्त सेनाओं का रास्ता रोकने के लिए महाराजा जसवंतसिंह का साथ देने भेजा था। कुछ ही दिनों में कासिम खाँ, शाही सेना लेकर महाराजा जसवंतसिंह की सेनाओं से जा मिला।

महाराजा को स्पष्ट आदेश दिया गया था कि उसे क्षिप्रा के उत्तरी तट पर टिके रहना है, क्षिप्रा पार नहीं करती है तथा कासिम खाँ को आदेश दिया गया था कि उसे महाराजा जसवंतसिंह के कहने के मुताबिक रहकर लड़ाई लड़नी है।

हालांकि कासिम खाँ पर दारा के बहुत अहसान थे तथा उन अहसानों के बदले में यदि कासिम खाँ अपनी खाल उतरवाकर दारा के लिए जूतियां बनवाता तो भी कम था किंतु कासिम खाँ नमक हराम किस्म का आदमी था। भाग्य का साथ मिलने से तथा निरंतर तरक्की करते रहने से उसके हौंसले जरूरत से ज्यादा बुलंद हो गए थे। उसे शहजादे दारा का यह आदेश पसंद नहीं आया कि वह महाराजा जसवंतसिंह के मुताबिक रहकर लड़ाई लड़े।

कासिम खाँ चाहता था कि जीत का सेहरा हर हाल में कासिम खाँ के सिर पर ही बंधे इसलिए महाराजा जसवंतसिंह को चाहिए था कि महाराजा, कासिम खाँ के नियंत्रण में रहकर लड़ाई लड़ता लेकिन शाही आदेश जारी होने के कारण कासिम खाँ इन आदेशों में बदलाव नहीं कर सकता था। इसलिए कासिम खाँ ने महाराजा से झगड़ा करने की योजना बनाई ताकि असफलता का ठीकरा महाराजा जसवंतसिंह के सिर पर फोड़ा जा सके।

कासिम खाँ ने शाही सेना का असला-बारूद क्षिप्रा के रेतीले तट पर अपने शिविर के पीछे की धरती में छिपा दिया तथा महाराजा को सुझाव दिया कि अभी औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श की सेनाएं क्षिप्रा के उस पार नहीं आई हैं, इसलिए हम नदी पार करके वहाँ मोर्चा बांधते हैं। कासिम खाँ की योजना थी कि महाराजा को बहला-फुसला कर नदी के उस पार ले जाया जाए तथा ऐन वक्त पर पाला बदल कर औरंगज़ेब से मेल कर लिया जाए। तब महाराजा को कैद करने में आसानी रहेगी।

महाराजा जसवंतसिंह अनुशासन पसंद व्यक्ति थे। उन्होंने शाही आदेशों के खिलाफ जाने तथा कासिम खाँ के सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया। इस पर दुष्ट कासिम खाँ ने मन ही मन एक योजना बनाई जिससे दारा शिकोह तथा महाराजा जसवंतसिंह दोनों से एक साथ पीछा छूट जाए।

आखिर औरंगज़ेब तथा मुरादबक्श की सेनाएं क्षिप्रा के उस तट पर आ पहुँचीं। महाराजा जसवंतसिंह तथा कासिम खाँ की सेनाओं को देखकर औरंगज़ेब को पसीने आ गए।

औरंगज़ेब ने महाराजा को अपने पक्ष में आने का निमंत्रण भिजवाया। महाराजा किसी भी कीमत पर बादशाह से नमक हरामी नहीं करना चाहता था। बादशाह शाहजहाँ तथा वली-ए-अहद दारा शिकोह ने जीवन भर महाराजा से मित्रता निभाई थी तथा सम्मानपूर्वक व्यवहार किया था जबकि धूर्त औरंगज़ेब का व्यवहार और उसके इरादे किसी भी तरह महाराजा से छिपे हुए नहीं थे। इसलिए महाराजा ने औरंगज़ेब के पक्ष में जाने से इन्कार कर दिया।

तीसरी रात जब कासिम खाँ, अमावस्या के अंधेरे का लाभ उठाकर चुपचाप क्षिप्रा नदी पार करके औरंगज़ेब से मिला तो औरंगज़ेब की बांछें खिल गईं। उसे उम्मीद था कि महाराजा जसवंतसिंह औरंगज़ेब का प्रस्ताव स्वीकार कर लेगा तथा दारा की रहमतों पर पला-बढ़ा कासिम खाँ कभी भी औरंगज़ेब के पक्ष में नहीं आएगा किंतु हुआ बिल्कुल उलटा ही था। महाराजा अपनी जगह पर अडिग था और नमक हराम कासिम खाँ, औरंगज़ेब के खेमे में था।

कासिम खाँ ने औरंगज़ेब को बताया कि क्षिप्रा के उस तट पर महाराजा अपनी सेनाओं के साथ अकेला पड़ा है तथा शाही सेना का असला-बारूद रेत में दबा हुआ है। अतः जब इस ओर से तोपें छोड़ी जाएंगी तो वे रेत में दबे हुए असले बारूद को भी सुलगा कर दोगुना विध्वंस मचाएंगी। औरंगज़ेब ने मुराद को बुलाया और उसी समय कूच की तैयारियां शुरू हो गईं।

अगली सुबह भगवान सूर्य के क्षितिज पर प्रकट होने से पहले ही औरंगज़ेब और मुराद की सेनाओं ने नावों में बैठकर क्षिप्रा नदी पार कर ली। चूंकि महाराजा के शिविर तथा क्षिप्रा के बीच में कासिम खाँ ने शिविर लगा रखा था और महाराजा को उसकी गद्दारी के बारे में जानकारी नहीं मिल पाई थी, इसलिए महाराजा की सेनाएं तैयार नहीं थीं।

महाराजा ने जहाँ शिविर लगा रखा था, उसके ठीक पीछे धरमत गांव स्थित था। जब शाही सेना की कुछ टुकड़ियों ने धरमत गांव में घुसकर महाराजा की सेना की घेराबंदी आरम्भ की तो महाराजा जसवंतसिंह के आदमियों को उन पर बिल्कुल भी शक नहीं हुआ।

इस प्रकार महाराजा और उसके राजपूत, मुगलिया राजनीति की खूनी चौसर में ऐसे स्थान पर घेर लिए गए जहाँ से न तो महाराजा जसवंतसिंह के लिए और न उसके राजपूतों के लिए बचकर निकल पाना संभव था। देखते ही देखते दोनों पक्षों में भीषण संग्राम आरम्भ हो गया। महाराजा जसवन्तसिंह तथा उसके राजपूत बड़ी वीरता के साथ लड़े किंतु आगे से औरंगज़ेब तथा मुराद की सेना ने और पीछे से दुष्ट कासिम खाँ की शाही सेना ने महाराजा की सेना को ऐसे पीस दिया जैसे दो पाटों के बीच अनाज पीसा जाता है।

जब महाराजा के सिपाही आगे की ओर भागने का प्रयास करते थे तो औरंगज़ेब की तोपों की मार में आ जाते थे, साथ ही धरती में दबा हुआ असला-बारूद भी फट जाता था। इस पर भी महाराजा तथा उसके राठौड़ सदार पूरी जी-जान लगाकर लड़ते रहे। अंत में जब महाराजा बुरी तरह घायल हो गया तथा किसी अनहोनी की आशंका होने लगी तब महाराजा के सामंत, जबर्दस्ती अपने महाराजा को युद्ध क्षेत्र से बाहर ले गए।

युद्ध आरम्भ होने से पहले, महाराजा के साथ अठारह हजार राजपूत योद्धा थे जिनमें से अब केवल छः सौ जीवित बचे थे और उनमें से भी अधिकांश घायल तथा बीमार थे। औरंगज़ेब चाहता था कि महाराजा को जीवित ही पकड़ लिया जाए किंतु महाराजा के राजपूत, महाराजा को लेकर मारवाड़ की तरफ भाग लिए। स्थान-स्थान पर राजपूत योद्धा, मुगलों से लड़कर गाजर-मूली की तरह कटते रहे। अंत में जब महाराजा अपनी राजधानी जोधपुर पहुँचा तो उसके साथ केवल पंद्रह रापजूत सिपाही जीवित बचे थे। जब बादशाह ने ये समाचार सुने तो वह दुःख और हताशा से बेहोश हो गया।

होश आने पर उसने अपने बड़े बेटे दारा शिकोह को अपने पास बुलाया जो कहने को तो वली-ए-अहद था किंतु अपने साथ दस से ज्यादा आदमी लेकर राजधानी आगरा में नहीं घुस सकता था और जो एक रात भी लाल किले में नहीं गुजार सकता था। बादशाह ने दारा शिकोह पर लगीं समस्त पाबंदियां हटा दीं तथा महाराजा रूपसिंह को अपनी सेवा में से हटाकर वली-ए-अहद का संरक्षक नियुक्त कर दिया।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source