जब पोमसी भण्डारी ने मराठों को जालौर से मार कर भगा दिया तब कुछ उत्साही नवयुवक, पुराने सिपाही और नागरिक, मरूधरपति विजयसिंह की सहायता के लिये युद्ध भूमि में जाने के प्रयोजन से जालौर नगर में एकत्रित हुए। उन्होंने गाँव-गाँव में घूमकर बड़ी संख्या में हथियारबंद नवयुवकों को एकत्रित किया और नागौर के लिये रवाना हो गये। ये स्वैच्छिक सैनिक जिस भी गाँव से गुजरे, इनकी संख्या में लगातार वृद्धि होती चली गई। हर कोई अपनी धरती को मराठों से मुक्त करवाना चाहता था। हर कोई अपने राजा को फिर से जोधाणे के दुर्ग में लाकर पाट बैठाना चाहता था। हर किसी की इच्छा थी कि अपनी धरती और अपने राजा के लिये युद्ध भूमि में लड़ते हुए उसके प्राण चले जायें।
जब इन युवकों की संख्या काफी बढ़ गई तब रणचण्डी दुर्गा ने शीघ्र ही इनकी इच्छा पूरी करने का मन बनाया। गूंदोज गाँव के निकट इन युवकों का पहली बार मराठों से सामना हुआ। मराठों ने इनमें कसकर मार लगाई। बहुत से नौजवान मारे गये। जो बचे उन्होंने फिर से स्वयं को गोदावास गाँव के निकट एकत्रित किया। भारी क्षति उठाकर भी उनका उत्साह भंग नहीं हुआ था। गोदावास में एक बार फिर मराठों ने इस स्वतः स्फूर्त सेना को घेर लिया। इस बार यह सेना पूरी तरह टूट गई। इसका एक भी सिपाही नागौर तक नहीं पहुँच सका।
यह मारवाड़ में अकाल का साल था। दूर-दूर तक घास का तिनका दिखाई नहीं देता था। पानी की नाडियाँ कब की सूख चुकी थीं और काफी जनसंख्या मालवा को पलायन कर चुकी थी। मराठों के घोड़े भी बिना पानी और बिना घास के मरने लगे। मराठों को देखकर मारवाड़ के लोग घृणा से मुँह फेर लेते। उन पर पत्थर और धूल फैंककर अपने क्रोध का प्रदर्शन करते और यदि कोई इक्का-दुक्का मराठा सैनिक, मारवाड़ियों के हाथ पड़ जाता तो उसे पीट-पीट कर उसकी जान लिये बिना नहीं छोड़ते थे। इन सब समाचारों से जनकोजी की चिंता बढ़ती जाती थी।
महाराजा विजयसिंह के नागौर दुर्ग से भाग निकलने के बाद नागौर दुर्ग का घेरा निरर्थक हो गया था। अब मराठों के पास, महाराजा को पाने के लिये बीकानेर रियासत पर आक्रमण करने के अतिरिक्त और कोई उपाय नहीं बचा था किंतु जनकोजी इस लम्बे युद्ध से थक गया था। उसमें इतनी इच्छा शक्ति शेष नहीं बची थी कि वह महाराजा विजयसिंह को पकड़ने के लिये बीकानेर दुर्ग का घेरा डाले। पिता की हत्या का बदला लेने का उसका उत्साह मंद हो चला था। सबसे बड़ी बात यह थी कि नागौर का क्षेत्र अपेक्षाकृत हरा-भरा था, जब यहाँ भी घास और पानी अप्राप्य हो गया था, तब सघन रेगिस्तान में बसे बीकानेर में तो उसकी आशा करना ही व्यर्थ था।
इसके अतिरिक्त एक बात और भी थी जो जनकोजी को बीकानेर की ओर जाने से रोकती थी। महाराजा विजयसिंह काकड़की गाँव से उसके पिता के हाथों में से फिसल कर निकल भागा था। उसके बाद वह मालकोट में भी हाथ नहीं आया। चारों ओर मराठा सेनाओं के मौजूद रहते हुए भी वह नागौर से निकल भागने में सफल रहा था। अतः इस बात की कोई निश्चितता नहीं थी कि महाराजा विजयसिंह, बीकानेर के गढ़ में मराठों के हाथ लग ही जायेगा। इसलिये जनकोजी इस बात की प्रतीक्षा करने लगा कि यदि अब राठौड़ों की तरफ से संधि का कोई प्रस्ताव आये तो उसे स्वीकार कर लिया जाये।
उधर नागौर दुर्ग में मोर्चा जमाकर बैठे ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत को जब ज्ञात हुआ कि कच्छवाहा महाराजा माधोसिंह, राठौड़ों का साथ देने के स्थान पर उनका विरोधी हो गया है, तब उसने नये सिरे से मराठों के साथ संधि की बात चलाने का विचार किया। मारवाड़ रियासत के दीवान फतेहचंद सिंघवी ने भी देवीसिंह के विचार का समर्थन किया। उन्होंने महाराजा विजयसिंह के पास अपना संदेशवाहक भेजकर उनकी भी सहमति प्राप्त कर ली। इस प्रकार दोनों पक्षों में नये सिरे से संधि की शर्तों पर विचार-विमर्श आरंभ हुआ।
अंततः 7 फरवरी 1756 को वह बहुप्रतीक्षित दिन भी आ पहुँचा जब दोनों पक्षों में संधि की शर्तों को अंतिम रूप दिया गया। यह दिन मारवाड़ के लिये कोई विशेष प्रसन्नता लेकर नहीं आया था। फिर भी कुछ दिनों के लिये मारवाड़ में शांति अवश्य स्थापित हो जाने वाली थी। महाराजा विजयसिंह ने मराठों को युद्ध क्षतिपूर्ति के रूप में पचास लाख रुपये, वार्षिक कर के रूप में डेढ़ लाख रुपये, अजमेर का दुर्ग और परगना देना स्वीकार कर लिया। इतना ही नहीं उसे मारवाड़ रियासत का विभाजन भी स्वीकार करना पड़ा। उसने मारवाड़ के अपदस्थ महाराजा रामसिंह को मेड़ता, परबतसर, मारोठ, सोजत, जालौर, सिवाना और पाली के परगने तथा भीणाय और केकड़ी के चौरासी गाँव देने स्वीकार कर लिये। यह पूरा क्षेत्र मारवाड़ रियासत का सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्र था। फिर भी राठौड़ों की राजधानी जोधपुर पर अपना अधिकार बनाये रखने के लिये महाराजा विजयसिंह ने इस उपजाऊ क्षेत्र को छोड़ना स्वीकार कर लिया।
महाराजा ने संधि तो कर ली किंतु इस समय तक उसकी आर्थिक स्थिति इतनी खराब हो चुकी थी कि उसके पास संधि की शर्तों के अनुसार मराठों को देने के लिये पर्याप्त धन नहीं था। इसलिये उसने 32 हाथी और एक लाख रुपये की आय वाले प्रदेश सिंधिया को सौंप दिये। इस पर भी जब रकम पूरी नहीं हुई तो बुद्धमल सिंघवी, जगनेश्वर ओझा तथा सदाशिव आसोपा आदि को जमानत के रूप में जनकोजी सिंधिया को सौंप दिया गया। जब जनकोजी को पहली किश्त मिल गई तो उसने नागौर के दुर्ग से घेरा हटा लिया। महाराजा विजयसिंह बीकानेर से चलकर नागौर आ गया। सरदारों ने उसे हाथी पर बैठाया और चंवर झुलाते हुए दुर्ग में लेकर आये। मरुधरानाथ ने सरदारों से मना किया कि मैं कौनसा युद्ध जीतकर आया हूँ जो हाथी पर बैठ कर दुर्ग में प्रवेश करूँ? किंतु सरदार न माने, उन्होंने राजा को हाथी पर बैठा कर ही संतोष प्राप्त किया।
कुछ दिन नागौर दुर्ग में ठहर कर मरुधरानाथ अपनी राजधानी जोधपुर के लिये रवाना हुआ। अब उसके अधिकार में केवल जोधपुर, नागौर, फलौदी और जैतारण का छोटा सा प्रदेश ही रह गया था। इस प्रकार आधा राज्य गंवाकर लगभग दो साल बाद महाराजा विजयसिंह एक बार फिर हाथी पर सवार हो, जोधपुर पहुँचा।
समय रूपी जादूगर अपनी आँखों का रंग पूरी तरह बदल चुका था। मारवाड़, बीकाणा, ढूंढाढ़ और मेवाड़ की जिन नामी रियासतों के राजपूत लड़ाकों से मरहठों की रूहें काँपती थीं, अब वही राजपूत रियासतें मरहठों के नाम से भय खाने लगी थीं।
सत्रह सौ छप्पन की संधि महाराजा विजयसिंह पर भारी पड़ी। रियासत का अधिकांश उपजाऊ क्षेत्र जोधपुर के अपदस्थ महाराजा रामसिंह के पास चला गया। महाराजा विजयसिंह का अधिकांश धन मराठों से लड़ते हुए व्यय हो चुका था। बचा-खुचा धन संधि की शर्तों के अनुसार जनकोजी ले गया। उपजाऊ क्षेत्र हाथ से निकल जाने से राज्य की आय भी बंद हो गई। इन सबसे बढ़कर, लगातार कई साल के अकाल ने कोढ़ में खाज का काम किया। राज्य कंगाली के कगार पर आ खड़ा हुआ। संधि की शर्तों के अनुसार मराठों को खण्डनी चुकाने के लिये महाराजा ने अपने मित्र बीकानेर के राठौड़ राजा गजसिंह से भारी रकम उधार ली। मारवाड़ रियासत के साहूकारों से भी ब्याज पर ऋण प्राप्त किया। इन उपायों से महाराजा की आर्थिक स्थिति सुधरने के स्थान पर और बिगड़ गई। आमदनी का कोई उपाय ही नहीं बचा था।
जब मेड़ता, परबतसर, मारोठ, सोजत, जालौर, सिवाना और पाली के परगने महाराजा रामसिंह के पास चले गये तो इन परगनों के अधिकांश ठिकाणेदार, सामंत और सरदार अपनी ठिकाणों और जागीरों को छोड़कर महाराजा विजयसिंह की सेवा में जोधपुर आ गये। महाराजा ने इन सरदारों के भरण पोषण का जिम्मा भी अपने ऊपर ले लिया। ऐसा करना उसका धर्म था। वह राठौड़ों का राजा था, अपने आदमियों को भूखों मरने के लिये नहीं छोड़ सकता था।
इस प्रकार मराठों से संधि हो जाने पर मारवाड़ की सम्पन्नता जाती रही। कृषि नष्ट हो गई। व्यापार समाप्त हो गया। इसके उपरांत भी मराठों की मांगें दिनों-दिन बढ़ती चली गईं। इन परिस्थितियों के चलते राजा और प्रजा दोनों ही निर्धन हो गये। राज्य की हालत यह हो गई कि जिस दिन दीवान मुजरा करने के लिये नहीं आता तो महाराजा संध्याकाल का दरबार ही नहीं करता। वह समझ जाता कि आज गढ़ में इतना तेल नहीं है कि दरबार में दिये जलाये जा सकें।