Saturday, July 27, 2024
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18. कटारें

देवीसिंह को कैद करके हाथों में हथकड़ियाँ और पैरों में बेड़ियां डाल दी गईं। उसके माथे का रक्त धीरे-धीरे सूख गया। उसने सैनिकों का विरोध तो उसी क्षण से बंद कर दिया था जिस क्षण उसकी भुजायें कसी गई थीं किंतु उसने राजा के बंदीगृह में अन्न-जल ग्रहण करने से मना कर दिया। धायभाई जगन्नाथ को इसकी सूचना दी गई। जगन्नाथ ने देवीसिंह द्वारा अन्न-जल ग्रहण न किये जाने की सूचना पाकर उससे मिलने का निश्चय किया।

रात काफी बीत चुकी थी जब जगन्नाथ ने देवीसिंह की कोठरी में प्रवेश किया। एक छोटा सा दिया कोने में टिमटिमा रहा था। उसी के क्षीण प्रकाश में जगन्नाथ को देवीसिंह एक कोने में पड़ा हुआ दिखाई दिया।

-‘ठाकरां! एक दिन तुम बापजी को बंदी बनाना चाहते थे ना, आज स्वयं उनके बंदी बन गये।’

-‘यह दगा है।’ देवीसिंह ने शांत स्वर में उत्तर दिया।

-‘हाँ-हाँ। मैं तो भूल गया। एक दिन तुमने मुझसे गढ़ में दगा नहीं होने का वचन मांगा था किंतु आपके साथ तो दगा हो गई। यह तो बुरा हुआ ठाकरां।’

-‘तुम्हारे जैसे अधम मनुष्य से और आशा भी क्या की जा सकती है?’

-‘किंतु आपने तो मुझसे वचन लेने से ही मना कर दिया था।’

-‘बुरा समय आने की प्रतीक्षा कर जग्गू। समय को रंग बदलते देर नहीं लगती।’

-‘बिल्कुल ठीक कह रहे हैं आप। आपसे अधिक इस बात को और कौन जान सकता है!’

-‘रंग तो अभी और भी बदलंेगे जग्गू। जिस मार्ग पर तू चल पड़ा है, उस मार्ग पर रंग भी बदलेंगे और दृश्य भी। चिंता क्यों करता है!’

-‘क्यों ठाकरां, आपकी वह कटार कहाँ है जिसके पड़तले में मारवाड़ की रियासत रहती थी?’ जगन्नाथ ने अगला व्यंग्य बाण छोड़ा। उसे आज वे सब व्यंग्य बाण देवीसिंह को ब्याज सहित लौटा देने थे जिन व्यंग्य बाणों से देवीसिंह ने उसे बखतसागर की पाल पर घायल करके रख दिया था।

-‘यदि वह कटार देखनी थी तो पहले बताना था। अब तो मैं उसे अपने बेटे सबलसिंह के पास छोड़ आया हूँ। वहीं जाकर देख लेना, मारवाड़ का राज्य उसी के पैरों के नीचे पड़ा मिल जायेगा।’ देवीसिंह ने क्रोध से दाँत भींचकर जवाब दिया।

जगन्नाथ ने अपनी कमर में खोंसी हुई कटार बाहर निकाली। उसे देवीसिंह की तरफ घुमाकर बोला-‘यह कटार देख लो ठाकरां। यह मारवाड़ के दरबार की बख्शी हुई कटार है। सारे ठाकुरों की कटारें इस कटार के पड़तले रहती हैं। यह कटार जल्दी से आपका पीछा नहीं छोड़ेगी।’

-‘एक बार हाथ पैर खोल दे, फिर दिखा कटार।’

-‘रस्सी जल गई किंतु उसके ऐंठन नहीं गये।’ जगन्नाथ ने अगला व्यंग्य बाण छोड़ा।

-‘इतना राजी मत हो जगन्नाथ, ऐंठन तो तेरे भी निकल जायेंगे। बड़ों-बड़ों के निकल जाते हैं।’ देवीसिंह फिर क्रोध से फुंफकारा।

-‘यही बात तो मैं ठाकरां को कब से समझाना चाहता था किंतु आज इतने बरस बाद कहीं जाकर यह बात ठाकरां के समझ में आई।’

-‘मेरी समझ की चिंता मत कर, अपना भविष्य विचार। किसी जोशी को जाकर टीपणा दिखा।’

-‘मुझे टीपणा दिखाने की सलाह दे रहे हो ठाकरां! कभी आपने भी तो जोशी को अपना टीपणा दिखाया होता।’ जगन्नाथ, देवीसिंह को उसी की भाषा में जवाब दे रहा था।

-‘सही कहता है तू! यदि मैंने जोशी को समय रहते टीपणा दिखा लिया होता तो तुझ जैसे मक्कार से धोखा खाकर यहाँ नहीं पड़ा होता।’

-‘अब भी कुछ नहीं बिगड़ा ठाकरां। आप कहें तो जोशी को बुलवा लूँ। अब दिखवा लो टीपणा।’

काफी देर तक देवीसिंह चुप रहा। फिर एक लम्बी साँस छोड़कर बोला-‘उस मोडे से तो दरबार का पीछा छूट गया, जल्दी ही तुझसे भी छूट जायेगा।’

-‘आपसे तो दरबार का और भी शीघ्र पीछा छूटने वाला है।’ जगन्नाथ ने तिरस्कार भरी दृष्टि देवीसिंह पर डाली और कोठरी से बाहर निकल गया।

रुतबा

 देवीसिंह चाम्पावत और केसरीसिंह उदावत जैसे सरदारों को मूषकों की भाँति धर दबोचने के बाद धायभाई जगन्नाथ का दबदबा बढ़ गया। महाराजा ने विद्रोही सरदारों से निबटने का सारा कार्य अब उसी को सौंप दिया। जब अन्य चाम्पावत सरदारों को देवीसिंह चाम्पावत आदि सरदारों के साथ हुई दगा के बारे में पता चला तो वे महाराजा के विरुद्ध गोलबंद होने लगे। देवीसिंह के पुत्र सबलसिंह चाम्पावत और श्यामसिंह चाम्पावत तथा पाली के ठाकुर जगतसिंह चाम्पावत आदि जगह-जगह उपद्रव मचाने लगे और लूटमार करने लगे।

जब मारवाड़ के अपदस्थ महाराजा रामसिंह को ज्ञात हुआ कि विजयसिंह की अपने सरदारों से खटक गई तो उसने मेड़तिया राठौड़ों को अपने साथ लेकर मालकोट घेर लिया। उस समय धायभाई जगन्नाथ, चाम्पावत सरदारों को दबाने के लिये जालौर की तरफ अभियान पर था। जैसे ही उसने सुना कि रामसिंह वापस मेड़ता आ पहुँचा तो वह क्रोध में भरकर जालौर से मेड़ता के लिये दौड़ा। रामसिंह को यह सूचना मिली तो उसका खून सूख गया और वह चुपचाप मेड़ता से हटकर परबतसर की ओर भाग लिया। उन दिनों जगन्नाथ के नाम का डंका इसी तरह बजने लगा था। जगन्नाथ ने भागते हुए रामसिंह को परबतसर तक पीछा किया। इस पर रामसिंह मारवाड़ रियासत छोड़कर रूपनगर की तरफ भाग गया।

जगन्नाथ को रामसिंह के पीछे जाता हुआ देखकर चाम्पावतों ने जालौर से निकलकर सोजत पर अधिकार कर लिया। जब जगन्नाथ ने यह समाचार सुना तो उसने रामकरण पंचोली को सेना देकर सोजत के लिये रवाना किया। देवीसिंह के पुत्र सबलसिंह चाम्पावत ने बिलाड़ा पर भी अधिकार कर लिया और रामकरण पंचोली में जमकर मार लगाई। जब सबलसिंह अपनी विजय से उत्साहित होकर आगे का कार्यक्रम बना रहा था, उसी समय उसके मुँह से कूंपावतों के लिये कुछ अपशब्द निकल गये। इस पर एक कूंपावत ने क्रुद्ध होकर ठाकुर सबलसिंह को उसी समय गोली मार दी। सबलसिंह के साथी उसे डोली में लेकर बिलाड़ा से सोजत की ओर भागे किंतु मार्ग में ही सबलसिंह की मृत्यु हो गई।

जब रामकरण पंचोली को यह सूचना मिली तो उसने कूंपावत सरदारों से सम्पर्क करके कहा कि चाम्पावतों की गुलामी करने से तो अच्छा है कि, दरबार की सेवा में आ जाओ। दरबार तुम्हारे सब अपराध भूलकर तुम्हारी जागीरें बहाल कर देंगे। जगराम कूंपावत ने रामकरण का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और वह चाम्पावतों का साथ छोड़कर रामकरण की तरफ आ गया।

रामकरण के कहने से मरुधरानाथ ने जगराम को गच्छीपुरा, रडौद, रतकुड़िया और जालपुरा की जागीर का पट्टा प्रदान किया। जगराम के द्वारा महाराजा की सेवा फिर से ग्रहण कर लेने के बाद अन्य कूंपावत सरदारों ने भी महाराजा की सेवा करना स्वीकार कर लिया। कूंपावतों को अपने पक्ष में करने के बाद रामकरण सेना लेकर सोजत की ओर बढ़ा। उसने धायभाई जगन्नाथ को भी सोजत आने के लिये लिखा। जब चाम्पावतों ने इन सेनाओं के सोजत की ओर आने के बारे में सुना तो वे सोजत खाली करके घाटे की तरफ से अजमेर की ओर भाग गये। कूंपावतों के अलग हो जाने से चाम्पावतों में इतनी शक्ति नहीं बची थी कि वे धायभाई जगन्नाथ का सामना कर सकें। रामकरण ने तत्काल आगे बढ़कर सोजत पर अधिकार कर लिया।

चाम्पावत सरदार, मराठों से सैनिक सहायता पाने के लालच में अजमेर की तरफ भागे थे किंतु ठीक इसी समय अहमदशाह अब्दाली ने पानीपत के मैदान में एक लाख मराठों को मौत के घाट उतार दिया जिससे मराठे अपने प्राण बचाने के लिये उत्तरी भारत से भरतपुर तथा अजमेर होते हुए दक्खिन की ओर भाग रहे थे। इसलिये चाम्पावतों को अजमेर से कोई सहायता प्राप्त नहीं हुई। इस पर वे रायपुर के सामंत केसरीसिंह उदावत की शरण में गये। केसरीसिंह ने उन्हें कुछ सैनिक सहायता उपलब्ध करवाई जिससे उत्साहित होकर चाम्पावत फिर से उपद्रव मचाने लगे। पाली के गढ़ से भी इन विद्रोही चाम्पावतों को सहायता मिलने लगी। इस पर जगन्नाथ ने अपनी सेना के दो टुकड़े किये। पहली सेना को उसने रायपुर की ओर भेजा और दूसरी सेना लेकर वह स्वयं पाली पहुँचा उसने पाली की गढ़ी को घेर लिया।

रायपुर का ठाकुर केसरीसिंह उदावत इस सेना से मार खाकर रास्ते पर आ गया और उसने जगन्नाथ से संधि कर ली। दूसरी ओर पाली की गढ़ी को जगन्नाथ ने बारूद लगाकर उड़ा दिया। इसके बाद श्यामसिंह चाम्पावत और जगतसिंह चाम्पावत मारवाड़ छोड़कर जयपुर रियासत की ओर भाग गये और मारवाड़ के अपदस्थ महाराजा रामसिंह से मित्रता करके मरुधरानाथ के विरुद्ध दुराभिसंधि करने लगे।

इस प्रकार 1762 ईस्वी तक धायभाई जगन्नाथ और रामकरण पंचोली, मरुधरपति के समस्त विरोधी ठाकुरों को ठिकाने लगाने में सफल रहे। कुछ विद्रोही ठाकुर तो मरुधरपति की सेवा में आ गये, शेष विद्रोही ठाकुरों को उन्होंने या तो यमपुर पहुँचा दिया या फिर मारवाड़ की धरती छोड़कर भाग जाने पर विवश कर दिया। इन विजयों के बाद तो धायभाई जगन्नाथ का रुतबा और भी अधिक बढ़ गया। जब विजयी जगन्नाथ जोधपुर लौटा तो महाराजा ने उसे मेड़ता में रहने का आदेश दिया ताकि रामसिंह फिर से मेड़ता की ओर रुख न कर सके। धायभाई जगन्नाथ, मेड़ता में अपनी धाक जमाकर रहने लगा। उन दिनों ऐसी धाक मारवाड़ में बड़े से बड़े ठाकुर की नहीं थी।

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