धीरे-धीरे करके गजनी के तुर्कों ने हिमालय से विंध्य तक का प्रदेश अपने कब्जे में ले लिया। इस पर भी चौहानों ने हिम्मत नहीं हारी तथा हिमालय से विंध्य तक का प्रदेश मुक्त करवा लिया।
महमूद गजनवी को परास्त करने वाले अजमेर के शासक वीर्यराम की मृत्यु के बाद उसका पुत्र चामुण्डराय उसका उत्तराधिकारी हुआ। उसने भी अपने पूर्वजों के कार्य को बड़े उत्साह से जारी रखा तथा अफगान आक्रांताओं के सेनापति हेजामुद्दीन को पकड़ लिया। चामुण्डराय के बाद सिंहट और सिंहट के बाद दुर्लभराज (तृतीय) अजमेर के शासक हुए।
दुर्लभराज (तृतीय) ई.1075 में चौहानों के सिंहासन पर बैठा जिसे दूसल भी कहते हैं। उसने तुर्क सेनापति शहाबुद्दीन को परास्त किया। ई.1080 में मेवात के शासक महेश ने दुर्लभराज (तृतीय) की अधीनता स्वीकार की। ई.1091 में दुर्लभराज ने गुजरात पर आक्रमण किया तथा वहाँ के चौलुक्य राजा कर्ण को मार डाला ताकि मालवा का शासक उदयादित्य, गुजरात पर अधिकार कर सके।
इधर तो चौहानों और चौलुक्यों का मनोमालिन्य अपने चरम पर था और उधर चौहानों तथा मेवाड़ के गुहिलों में भी बुरी तरह ठनी हुई थी। मेवाड़ के गुहिल शासक वैरिसिंह ने चौहान शासक दुर्लभराज (तृतीय) को कुंवारिया में हुए युद्ध में मार डाला।
दुर्लभराज (तृतीय) का उत्तराधिकारी विग्रहराज (तृतीय) हुआ जिसे वीसल भी कहते हैं। पृथ्वीराज रासो के अनुसार वीसल के सिंहासन पर बैठने के कुछ समय बाद गजनी के शासक की तरफ से अजमेर के शासक से कर तथा वफादारी की शपथ मांगी गई। इस पर शाकम्भरी के स्वामी ने अपने सामन्तों को सेनाएं लेकर आने के आदेश जारी किए। इस पर ठट्ठ और मुलतान के सरदारों के साथ मण्डोर और भटनेर के सैन्य समूह भी चौहान शासक की अधीनता में लड़ने क लिए आये।
पृथ्वीराज विजय के अनुसार राजा विग्रहराज (तृतीय) ने मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध एक संघ बनाया। गंगा और यमुना के बीच अंतर प्रदेश के सैनिक तथा समस्त राजपूत शाखाएं विग्रहराज के झण्डे के नीचे एकत्रित हुई। विग्रहराज के नेतृत्व में भारतीय राजाओं ने मिलकर हांसी, थाणेश्वर और नगरकोट से मुस्लिम गवर्नरों को मार भगाया।
इस विजय के बाद इस संघ के राजाओं की ओर से विग्रहराज ने दिल्ली में एक स्तम्भ लेख लगावाया। इस स्तम्भ लेख में लिखा है कि विन्ध्य से हिमालय तक म्लेच्छों को निकाल बाहर किया गया जिससे आयावर्त एक बार फिर से पुण्यभूमि बन गया।
पृथ्वीराज रासो के अनुसार अन्हिलवाड़ा पाटन के चौलुक्य राजा ने, विग्रहराज द्वारा निर्मित राजाओं के संघ में सम्मिलित होने से मना कर दिया। इसलिये विग्रहराज (तृतीय) ने अन्हिलवाड़ा पाटन पर आक्रमण की तैयारी की। इस पर अन्हिलवाड़ा पाटन का चौलुक्य राजा कर्ण भी अजमेर पर आक्रमण करने के लिये चल पड़ा।
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मारवाड़ में सोजत के निकट दोनों राजाओं में युद्ध हुआ। चौलुक्य राजा कर्ण परास्त होकर जालोर की तरफ भाग गया। इस पर भी विग्रहराज ने उसका पीछा नहीं छोड़ा तो चौलुक्य राजा कर्ण गिरनार भाग गया। जब विग्रहराज को लगा कि कर्ण उसे मुंह नहीं दिखाना चाहता तो विग्रहराज उसका पीछा छोड़कर अजमेर लौट आया।
कुछ समय पश्चात् कर्ण ने अपनी सेना दुबारा से खड़ी कर ली और विग्रहराज को संदेश भेजा कि वह विग्रहराज के बराबर है तथा ‘कर’ के रूप में विग्रहराज को तलवार के टुकड़े देने को तैयार है, यदि विग्रहराज ले सके तो ले ले।
इस पर विग्रहराज ने गुजरात से लाये गये बंदियों को मुक्त कर दिया तथा स्वयं फिर से सेना सजा कर गुजरात पर चढ़ बैठा। उसने अपनी सेना को एक वृत्ताकार क्रम में जमाया तथा पहले ही धावे में 2000 चौलुक्यों को मार डाला।
उसके अगले दिन दोनों पक्षों में संधि हुई। कर्ण ने अपनी पुत्री का विवाह विग्रहराज के साथ कर दिया। विग्रहराज ने विजय स्थल पर अपने नाम से वीसलनगर नामक नगर की स्थापना की। यह नगर आज भी विद्यमान है।
वीसलदेव का उत्तराधिकारी पृथ्वीराज (प्रथम) हुआ। उसके समय में चौलुक्यों की सेना पुष्कर को लूटने आई। इस पर पृथ्वीराज (प्रथम) ने चौलुक्यों पर आक्रमण करके 500 चौलुक्यों को मार डाला। उसने सोमनाथ के मार्ग में एक भिक्षागृह बनाया। शेखावटी क्षेत्र में स्थित जीणमाता मंदिर में लगे वि.सं.1162 (ई.1105) के अभिलेख में अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान (प्रथम) का उल्लेख है।
पृथ्वीराज (प्रथम) के बाद अजयदेव अजमेर का राजा हुआ जिसे अजयराज एवं अजयपाल भी कहा जाता है। अधिकांश इतिहासकारों के अनुसार अजयराज ने ई.1113 के लगभग अजमेर को अपनी राजधानी बनाया किंतु यह बात सही नहीं है क्योंकि अजमेर तो सातवीं शताब्दी ईस्वी से ही चौहानों की राजधानी था।
अजयराज ने चांदी तथा ताम्बे के सिक्के चलाये। उसके कुछ सिक्कों पर उसकी रानी सोमलवती का नाम भी अंकित है। अजयराज शैव होते हुए भी धर्म सहिष्णु था। उसने जैन और वैष्णव धर्मावलम्बियों को सम्मान की दृष्टि से देखा। उसने जैनों को अजमेर में मंदिर बनाने की अनुमति प्रदान की और पार्श्वनाथ मंदिर के लिये सुवर्ण कलश प्रदान किया।
राजा अजयराज ने दिगम्बर जैनों और श्वेताम्बर जैनों के बीच हुए शास्त्रार्थ की अध्यक्षता की। यह इस बात का प्रमाण है कि राजा अजयराज दोनों मतावलम्बियों का विश्वास-भाजन था और उनके शास्त्रों का मर्मज्ञ था।
पृथ्वीराज विजय के अनुसार अजयदेव ने संसार को सिक्कों से भर दिया। उसकी रानी सोमलदेवी नये सिक्कों की डिजाइन बनाने में रुचि रखती थी। ई.1123 में अजयदेव ने मालवा के मुख्य सेनापति साल्हण को पकड़ लिया। उसने अजमेर पर चढ़कर आये मुस्लिम आक्रांताओं को परास्त कर उनका बड़ी संख्या में संहार किया।
अजयराज ने चाचिक, सिंधुल तथा यशोराज पर विजय प्राप्त की तथा उन्हें मार डाला। वह मालवा के राजा नरवर्मन को परास्त करके उसके प्रधान सेनापति सल्हण को पकड़ कर अजमेर ले आया तथा एक मजबूत दुर्ग में बंद कर दिया।
राजा अजयराज ने तुर्कों को परास्त करके बड़ी संख्या में उनका वध किया। उसने उज्जैन तक का क्षेत्र जीत लिया। अजयराज को अजयराज चक्री भी कहते थे क्योंकि उसने चक्र की तरह दूर-दूर तक बिखरे हुए शत्रुदल को युद्ध में जीता था। अर्थात् वह चक्रवर्ती विजेता था। ई.1130 से पहले किसी समय अजयराज अपने पुत्र अर्णोराज को राज्य का भार देकर पुष्करारण्य में जा रहा। राजा अजयराज ई.1140 तक जीवित रहा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता