महाराणा क्षेत्रसिंह के निधन के बाद उसका पुत्र महाराणा लक्षसिंह (ई.1382-1419) चित्तौड़ की गद्दी पर बैठा। वह राजा बनने से पहले ही सम्मुख युद्धों में भाग लेने लगा था। एकलिंगजी के दक्षिण द्वार की प्रशस्ति में लिखा है- ‘युवराजपद पाये हुए लक्ष ने रणक्षेत्र में जोगा दुर्गाधिप को परास्त कर उसके कन्यारूपी रत्न, हाथी और घोड़े छीन लिये। यह जोगा कहाँ का स्वामी था, इसकी जानकारी नहीं मिलती। लाखा ने अपने राजत्वकाल में बदनोर के पहाड़ी प्रदेश में रहने वाले मेरों पर चढ़ाई करके बदनोर के क्षेत्र को अपने अधीन किया।
कुंभलगढ़ प्रशस्ति में कहा गया है कि ‘उग्र तेज वाले इस राणा का रणघोष सुनते ही मेदों (मेरों) का धैर्य ध्वंस हो गया। बहुत से मारे गये और उनका वर्धन (बदनोर) नाम का पहाड़ी प्रदेश छीन लिया गया। ‘
महाराणा लाखा ने काशी, प्रयाग तथा गया को यवनों के कर से मुक्त करवाया। इसके लिये उसने मुसलमान शासकों को विपुल धन एवं घोड़े प्रदान किये। उसके शासन काल में मेवाड़ राज्य के जावर क्षेत्र में चांदी की खान निकल आई। इस खान से कई शताब्दियों तक निकाली गई चांदी एवं सीसे से मेवाड़ राज्य, धरती भर के राजाओं में सर्वाधिक धनी राज्यों में से एक बन गया।
इसी धन के बल पर महाराणा अपनी प्रजा का पालन करते रहे और अपने शत्रुओं से सफलता पूर्वक लड़ते रहे। लाखा के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उसके पास धन संचय बहुत हो गया था। इसलिये उसने बहुत कुछ दान और सुवर्णादि की तुलाएं दीं। उसने अलाउद्दीन खिलजी तथा खिज्रखां द्वारा तोड़े गये चित्तौड़ के महल, मंदिर आदि वापस बनवा लिये तथा कई तालाब, कुंड और किलों का निर्माण करवाया।
महाराणा मोकल द्वारा नागौर एवं गुजरात के शासकों का मर्दन
महाराणा मोकल (ई.1419-1433) प्रतापी राजा हुआ। उसने मारवाड़ के राजकुमार रणमल को अपनी सेवा में रखा तथा उसे अपनी सेना देकर ई.1427 में मण्डोर राज्य पर रणमल का अधिकार करवाया। रणमल की सेवाओं से मेवाड़ राज्य को बहुत लाभ हुआ। रणमल ने लम्बे समय तक मेवाड़ की सेनाओं का नेतृत्व किया तथा मोकल एवं कुम्भा के समय, अनेक युद्ध जीतकर बहुत से किले एवं भूभाग, मेवाड़ राज्य में सम्मिलित किये।
मोकल ने ई.1428 में उत्तर के मुसलमान नरपति पीरोज (नागौर के शासक फीरोजखां) पर चढ़ाई कर लीलामात्र से युद्धक्षेत्र में उसके सारे सैन्य को नष्ट कर दिया। पातसाह अहमद (गुजरात का सुल्तान अहमदशाह) भी रणखेत छोड़कर भागा। मोकल ने सपादलक्ष (सांभर) देश को बरबाद किया और जालंधर (जालौर) वालों को कंपायमान किया। शाकंभरी (सांभर) को छीनकर दिल्ली को अपने स्वामी के सम्बन्ध में संशय युक्त कर दिया और पीरोज तथा मुहम्मद को परास्त किया।
शृंगी ऋषि के वि.सं. 1485 के शिलालेख में फीरोजशाह के भागने के साथ ही यह लिखा है कि पात्साह अहमद भी रणखेत छोड़कर भागा। संभवतः यह पात्साह, गुजरात का सुल्तान अहमदशाह (प्रथम) था तथा उसी को कुंभलगढ़ अभिलेख में भ्रमवश अहमद की जगह मुहम्मद लिख दिया गया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता