सवाईसिंह चाम्पावत एक दुष्ट व्यक्ति था। पोकरण उसकी पुश्तैनी जागीर थी किंतु रेगिस्तान के मध्य स्थित होने के कारण वहाँ साल भर में मुश्किल से केवल इतना बाजरा ही पैदा हो पाता था जिससे निर्धन प्रजा का पेट भले ही भर जाये किंतु राजपूत सैनिकों को वेतन नहीं चुकाया जा सकता था। इसलिये चाम्पावत को धन की आवश्यकता सदैव बनी रहती थी। उसे कितना ही धन क्यों न मिल जाये उसकी भूख मिटती ही नहीं थी। इस समय वह जोधपुर में रहकर दोनों हाथों से पैसा बटोर रहा था। पासवान उसके हाथ की कठपुतली बनी हुई थी इसलिये उसकी पाँचों अंगुलियाँ घी में डूबी हुई थीं। फिर भी उसके मन में प्रज्वलित हो रही धन की आग मिटती ही नहीं थी।
सवाईसिंह ने पोकरण से अपनी सेना भेजकर जैसलमेर रियासत के सोढ़ों, भाटियों और नन्दवाणा बोहरों से पच्चीस हजार रुपयों का अर्थदण्ड वसूल किया। जब यह बात जैसलमेर के यदुवंशी भाटी महारावल तक पहुँची तो उसने अपने ऊँटसवारों को भेजकर पोकरण को लूट लिया। जोधपुर में बैठा सवाईसिंह चाम्पावत यह समाचार पाकर तिलमिलाकर रह गया। उसने फलोधी के कमाविसदार को आदेश दिया कि जैसलमेर के ऊँटसवारों को मार्ग में ही घेरकर मारा जाये। उन्हें किसी भी हालत में जैसलमेर तक जीवित न पहुँचने दिया जाये। इसके बाद उसने जोधपुर से रामदत्त खानसामा एवं शम्भूदान धायभाई को भी पाँच सौ ऊँटसवारों के साथ जैसलमेर की तरफ रवाना किया।
पोकरण ठिकाणे के एक हजार ऊँट सवार पहले से ही जैसलमेर के ऊँटसवारों का पीछा कर रहे थे। उन्होंने जैसलमेर के ऊँटसवारों को जैसलमेर पहुँचने से पहले जा घेरा। गहन रेगिस्तान के ऊँचे रेतीले धोरों में राठौड़ों का भाटी और सोढ़ाओं के साथ जमकर युद्ध छिड़ गया। इस युद्ध में भाटी और सोढ़े, राठौड़ों पर भारी पड़े। इस कारण पोकरण के ऊँटसवारों और फलौदी के कमाविसदार के मैदान छोड़ना पड़ा। ठीक इसी समय धायभाई शम्भूदान ने अपने पाँच सौ ऊँटसवारों के साथ भाटियों और सोढ़ों पर धावा बोला। पीछे की ओर भागते हुए पोकरण के राठौड़ भी लौट आये। इस बार भयानक नरसंहार हुआ। डेढ़ सौ सोढ़ों के सिर कटकर रेतीले धोरों में इधर उधर बिखर गये। युगों से पानी की एक बूंद के लिये प्यासी धरती सैनिकों का रक्तपान करने लगी।
धायभाई शम्भूदान ने भारी वीरता दिखाई। उसके शरीर पर चार गहरे घाव लगे और उसका घोड़ा भी काम आ गया। इस पर भी शम्भूदान तलवार चलाता रहा। उसका ऐसा प्रताप देखकर जैसलमेर के ऊँटसवार प्राण लेकर गहन मरुस्थल में भाग गये। कुछ देर बाद युद्धस्थल पर बिखरे नरमुण्डों और क्षत-विक्षत शरीरों के अतिरिक्त वहाँ कुछ भी शेष न बचा। जीवन का यदि कोई चिह्न दिखाई देता था तो केवल उन गिद्धों के रूप में जो उन नरमुण्डों की पथराई हुई आंखें फोड़-फोड़ कर खा रहे थे।