जब मरुधरानाथ ने देखा कि दो-चार ठाकुरों को छोड़कर शेष सभी सामंत-सरदार राज्य छोड़कर चले गये हैं और गढ़ में खानसामा से लेकर बख्शी तक सब नमक हराम हो गये हैं। इसलिये उसने विचार किया कि नमक हराम कर्मचारियों तथा सवाईसिंह आदि पाँच-सात षड़यन्त्रियों को मार डालना चाहिये ताकि गुलाब का इन दुष्ट लोगों से पीछा छूट जाये और वह भी सही मार्ग पर आकर दरबार की राजनीति से अलग हो जाये।
दरबार में उपस्थित सरदारों और मुत्सद्दियों के कपटपूर्ण आचरण को देखकर मरुधरानाथ ने राज्य के प्रबंधन के लिये स्वर्गीय खूबचंद सिंघवी के भांजे शाहमल लोढ़ा को अपने पास बुलवाया। किसी समय वह राजा के सबसे विश्वस्त मुत्सद्दियों में से एक था। उमरकोट को बरसों तक उसी ने अपने अधीन रखा था किंतु गुलाब द्वारा खूबचंद सिंघवी की हत्या करवाये जाने के बाद से बागी होकर मिर्जा इस्माईल के साथ मेवाड़ के पहाड़ों में भाग गया था और जब-तब मारवाड़ के गाँवों को लूटता फिरता था।
शाहमल ने मार्ग से भटकी हुई जीवन की गाड़ी को फिर से मार्ग पर लाने के विचार से मरुधरानाथ का निमंत्रण स्वीकार कर लिया। वह स्वर्गीय खूबचंद के छोटे भाई शिवचंद सिंघी तथा खूबचंद के छोटे पुत्र मेहकरण को अपने साथ लेकर मरुधरानाथ की ड्यौढ़ी पर हाजिर हुआ। महाराज ने शाहमल को महाराव की उपाधि देकर उसका सम्मान किया और तीनों मुसाहिबों को फिर से अपनी सेवा में रख लिया। महाराज के आदेश पर शाहमल, मेहकरण और शिवचंद सिंघी ने जहाँ से भी सैनिक मिल सकते थे, उन्हें जोधपुर बुलाकर गढ़ के बाहर नियुक्त कर दिया।
मरुधरापति का विचार था कि सवाईसिंह चाम्पावत को मारने के बाद राजपाट कुँवर सूरसिंह को दे दिया जाये तथा शाहमल को उसका प्रधान बना दिया जाये। शीघ्र ही यह योजना अब तक राजा के निकटवर्ती रहे मुत्सद्दियों और सरदारों को ज्ञात हो गई। मरुधरानाथ की ऐसी मंशा देखकर वे भीतर तक काँप गये। उन्होंने सोचा कि यदि सूरसिंह राजा हुआ और शाहमल उसका प्रधान हुआ तो शाहमल हमें जीवित नहीं छोड़ेगा।
ये सरदार न तो जालिमसिंह को जोधपुर की राजगद्दी पर देखना चाहते थे, न गुलाब के दत्तक पुत्र शेरसिंह को। इसलिये उनके लिये उचित यही था कि ऐसे राजकुमार को राज्यगद्दी पर बैठाने का प्रयास करें जिसका चयन उन्होंने स्वयं किया हो ताकि अपने हित आगे भी सुरक्षित रखे जा सकें। इसलिये उन्हांेने निश्चय किया कि कुँवर भीमसिंह से सम्पर्क करना चाहिये। यदि हमारे प्रयास से वह राजा बनेगा तो हमसे दबा हुआ रहेगा और हमारे कहने में रहेगा। यह सोचकर उन्होंने कुँवर भीमसिंह को पत्र भेजने शुरू कर दिये।