पाठकों को स्मरण होगा कि किशनगढ़ के महाराजा बिड़दसिंह ने मेवाड़ में अठारह मास तक दी गई सेवा के बदले में महाराजा विजयसिंह से पुरस्कार के रूप में परबतसर का परगना मांगा था। मरुधरानाथ ने उसे परबतसर देने के स्थान पर उसकी रियासत के गाँव लूट लिये थे। इस पर महाराजा बिड़दसिंह जोधपुर से नाराज होकर चला गया था। उसके बाद से दोनों रियासतों में मनमुटाव चला आ रहा था।
बिड़दसिंह भगवान कृष्ण का अनन्य भक्त था। वह जब से राज्य गद्दी पर बैठा था, इसी तरह के छलछंद भोगता आया था। मरुधरपति के व्यवहार के कारण उसे राज्य से विरक्ति हो गई और वह राजपाट अपने पुत्र प्रतापसिंह को सौंपकर वृंदावन जा बैठा। जब मरुधरपति ने तुंगा के मैदान में मराठों को ललकारा तो किशनगढ़ के राजकुमार प्रतापसिंह ने राठौड़ अधिपति का साथ देने के स्थान पर उसके शत्रु महादजी सिंधिया का साथ दिया। इससे मरुधरपति किशनगढ़ वालों से कुपित हो गया।
इन्हीं दिनों किशनगढ़ रियासत के करकेड़ी ठिकाणे का राजा अमरसिंह, जोधपुर नरेश विजयसिंह के पास सहायता मांगने के लिये आया। वह किशनगढ़ रियासत का शासक बनना चाहता था। मरुधरपति ने अमरसिंह के नाम रूपनगर की जागीर लिख दी। इसी समय जयपुर नरेश प्रतापसिंह ने भी अमरसिंह को रूपनगर का राज्य दिलवाने का आश्वासन दिया।
मराठों के साथ तुंगा का युद्ध समाप्त होने के बाद जयपुर नरेश प्रतापसिंह ने चार हजार सैनिक देकर अमरसिंह को रूपनगर पर चढ़ाई करने भेजा। इस पर जोधपुर नरेश विजयसिंह ने अपने मुत्सद्दियों के सामने चिंता प्रकट की कि महाराजा प्रतापसिंह तो अपने सगे भाईयों को मरवा रहा है इसलिये उस पर विश्वास कैसे किया जाये। इस पर महेशदास कूँपावत ने महाराजा को सलाह दी कि आप भी अमरसिंह को सहायता उपलब्ध करवा दें। मैं अमरसिंह को यहाँ बुलवा लेता हूँ। महाराजा ने अमरसिंह को बुलाने के लिये अपने हाथ से रुक्का लिखकर दिया। महेशदास ने अमरसिंह को बुलाकर महाराजा विजयसिंह से उसकी भेंट करवाई। विजयसिंह ने डेढ़ महीने तक उसे अपने पास रखा तथा बहुत सा सम्मान और चार हजार सेना देकर रवाना किया। उसे चार तोपंे और गरनालें भी दीं।
जोधपुर नरेश विजयसिंह के चार हजार घुड़सवारों और एक हजार पैदल सैनिकों ने किशनगढ़ रियासत को घेर लिया। किशनगढ़ रियासत के पास इस घेराबंदी से निबटने का कोई उपाय नहीं था। रूपनगर दुर्ग की मरम्मत की गई किंतु दुर्ग में नमक, तेल घी, तम्बाखू आदि सामग्री समाप्त होने लगी। इस पर किशनगढ़ के दीवान सूरतसिंह ने जोधपुर के सेनापति से संधिवार्त्ता चलाने का नाटक किया और स्वयं अवसर पाकर तुकोजी राव होलकर के पास पहुँच गया। उसने होलकर को आठ लाख रुपये देकर अनुरोध किया कि आप अपनी तथा महादजी सिंधिया की सेनाओं को लेकर किशनगढ़ आयें और जोधपुर की सेना द्वारा की गई घेराबंदी को तोड़ दें। लौटते समय दीवान सूरतसिंह ने रसद सामग्री खरीद कर दुर्ग के भीतर पहुँचाई तथा किसी तरह अवरोध तोड़कर स्वयं भी भीतर पहुँच गया। जोधपुर रियासत के सरदार बातचीत के भरोसे बैठे रहे और दीवान की चाल में फंस गये।
अभी यह घेराबंदी चल ही रही थी कि वंृदावन में महाराजा बिड़दसिंह का निधन हो गया और राजकुमार प्रतापसिंह विधिवत् किशनगढ़ का राजा हुआ। उसके छोटे भाई चिमणाजी ने रूपनगर में मोर्चा संभाल रखा था। चिमणाजी दुर्ग से बाहर निकलकर कुछ लोगों को मारकर फिर से दुर्ग में घुस जाता था और जोधपुर की सेना उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाती थी। महाराजा विजयसिंह के सलाहकार गोरधन खीची के सम्बन्ध स्वर्गीय महाराजा बिड़दसिंह तथा किशनगढ़ के अन्य लोगों के साथ बहुत अच्छे थे। जोधपुर राज्य के बहुत से मुत्सद्दी अपना पैसा जोधपुर रियासत में न रखकर किशनगढ़ रियासत के साहूकारों के पास रखते थे क्योंकि वे जोधपुर महाराजा के कपटपूर्ण व्यवहार से हमेशा आतंकित रहते थे कि कहीं कभी कुपित होकर वह मुत्सद्दियों का सर्वस्व हरण न कर ले।
जब करकेड़ी का राजा अमरसिंह, रूपनगर पर अधिकार नहीं कर सका तब अमरसिंह तथा महाराजा विजयसिंह की सेनाओं ने रूपनगर पर संयुक्त आक्रमण किया। गढ़ी के अंदर से जेजिलों और गोलों के जवाबी हमले से इस आक्रमण को विफल कर दिया गया। इससे महाराजा विजयसिंह और अमरसिंह के लगभग दो सौ आदमी खेत रहे। किशनगढ़ के सैनिक रात में दुर्ग में से निकले और उन्हांेने अमरसिंह के चालीस आदमियों को काट कर फैंक दिया तथा अमरसिंह को धमकी भिजवाई कि यदि जान बचाना चाहते हो तो फिर से आक्रमण मत करना। रूपनगर का कब्जा आसान नहीं है। पाँच हजार सैनिक जब काम आयेंगे उस दिन तुम्हारा किशनगढ़ और रूपनगर पर अधिकार होगा। अमरसिंह ने अपने मोर्चे पीछे हटा लिये और महाराजा विजयसिंह को लिखा कि आप ही हमारा उद्धार कर सकते हैं। अन्यथा हमारी इज्जत बच पाना असंभव है। इस पर महाराजा ने बख्शी भीमराज की सेना में से दो हजार सैनिकों को रूपनगर भिजवाया।
सात मास के घेरे के बाद जोधपुर की सेनाओं ने क्रमशः रूपनगर एवं किशनगढ़ पर अधिकार कर लिया। जब राज्य हाथ से निकल गया तो महाराजा प्रतापसिंह मरुधरानाथ के समक्ष उपस्थित हुआ और मरुधरानाथ के समक्ष दीनता प्रकट करके अपना राज्य फिर से मांगा। मरुधरानाथ ने महाराजा प्रतापसिंह का समुचित आदर-सत्कार किया तथा पिछली बातों को भूल जाने का आग्रह भी किया। प्रतापसिंह ने युद्ध व्यय की पूर्ति के रूप में मरुधरानाथ को दो लाख रुपये नगद तथा पचास हजार रुपये के गहने प्रदान किये और पचास हजार रुपये दो किश्तों में चुकाने का वचन दिया।
महाराजा विजयसिंह ने अमरसिंह को आश्वासन दिया था कि रूपनगर पर अधिकार होने पर दुर्ग लोदीवाला को सौंप देंगे किंतु महाराजा प्रतापसिंह द्वारा दीनता प्रकट करने पर मरुधरानाथ ने अमरसिंह को कहलवाया कि अभी मराठे निकट हैं, मामला आपकी शक्ति से बाहर का है अतः युद्ध समाप्त होने पर रूपनगर आपको ही संभलवा देंगे। तब तक वहाँ हमारा थाना रहेगा।
तुंगा में राठौड़ों की विजय के बाद मरुधरानाथ इतना उत्साहित था कि वह महादजी सिंधिया और तुकोजी राव होलकर दोनों का एक साथ बाजा बजाने को तैयार था। किशनगढ़ के झगड़े का निपटारा आबाजी कर लेंगे इस बात को समझते हुए मरुधरानाथ ने पच्चीस डावदिये राजपूतों को एकांत में बुलाकर किशनगढ़ के सम्बन्ध में कुछ गुप्त आदेश प्रदान किये।