तिमिर को यह अनुमान तो हो चला था कि मिहिरदेव किसी भी समय आकाश में दिखाई दे सकते हैं फिर भी हठी योद्धा की तरह वह अंतिम क्षण तक आकाश छोड़ने को तैयार नहीं था। यही कारण था कि गुलाब को केशव की स्तुतियाँ गाते हुए पर्याप्त समय व्यतीत हो चुका था फिर भी उद्यान में अंधेरा अभी शेष था। यह अलग बात है कि गुलाब को उद्यान के अंधेरे-उजाले से कोई लेना-देना नहीं था। उसके लिये समय की गति निरर्थक हो चुकी थी। गुलाब गा रही थी, गा क्या रही थी, रो रही थी। मानो उसके अंतस की विरह वेदना साक्षात् देह धरकर राग सारंग गाने उद्यान में आ बैठी हो-
जो पै चोप मिलन की होय।
तौ क्यों रहे ताहि बिनु देखे लाख करौ जिन कोय।
जो यह विरह परस्पर ब्यापै तो कछू जीय बनैं।
लोक लाज कुल की मर्यादा एकौ चित न गनैं।
कुम्भनदास प्रभु जाय तन लागी और न कछू सुहाय।
गिरधरलाल तोहि बिनु देखे छिन छिन छिन कलप विहाय।
जब चिड़ियाएँ चहचहाने लगीं तो गुलाब का ध्यान भंग हुआ। अब उद्यान में पर्याप्त प्रकाश हो चुका था। गुलाब को भजन गाते हुए एक घड़ी से अधिक समय हो गया था। जितनी देर वह गाती रही थी, उतनी ही देर रोती भी रही थी जिससे उसके हलक में कांटे से उग आये थे। गुलाब ने अनुभव किया कि उसका कण्ठ सूख रहा है और होठों पर भी सूखी पपड़ी बनने लगी है। उसने आँखें खोलकर केशव के विग्रह के समक्ष शीश झुकाया और तुलसीदल दायें हाथ की हथेली में रखकर भगवान का चरणामृत अंजुरि में भर लिया। जब अभिषिक्त जल की कुछ बूंदें उसके कण्ठ से नीचे उतरीं तो उसे लगा कि कण्ठ की जलन काफी कम हो गई है।
इतनी सुंदर प्रातः थी, महल के उद्यान में कई तरह के फूल खिले थे जिनका आनंद लेने के लिये दूर-दूर से पंछी आये थे और अपने कलरव से पूरा उद्यान गुंजायमान किये हुए थे। इस कलरव को सुनकर कोई भी व्यक्ति असीम आनंद से भर सकता था, फिर भी गुलाब उदास थी। उसका प्रकृति के इन व्यापारों से कोई लेना-देना नहीं था। उसका तो रोम-रोम रो रहा था और हृदय जल रहा था। इस दाह से उसका पीछा छुड़ाने वाला कोई नहीं था। अंतरदाह को बुझाने के लिये गुलाब फिर गाने लगी। विरह अग्नि कम करने के स्थान पर और अधिक बढ़ाने के लिये एक बार फिर राग सारंग उद्यान में प्रकट हुई-
किते दिन व्है जु गए बिनु देखे।
तरुन किसोर रसिक नन्दनन्दन कछुक उठति मुख रेखे।
वह सोभा वह कान्ति बदन की कोटिक चन्द बिसेषे।
यह चितवनि वह हास मनोहर वह नागर नट वेषे।
स्यामसुंदर संग मिलि खेलन की आवत जीय उपेषे।
कुम्भनदास लाल गिरधर बिन जीवन जनम अलेषे।
कपोलों पर जम गये आँसुओं को ओढ़नी के छोर से पौंछकर जैसे ही गुलाब पीछे को मुड़ी तो सन्न रह गई। उसने देखा, मरुधरानाथ उसके ठीक पीछे बैठे थे। पहले तो उसे अपने नेत्रों पर विश्वास नहीं हुआ, जब हुआ तो उसके नेत्रों से एक बार फिर आँसुओं की जमना बह निकली। उधर मरुधरानाथ की दशा भी कुछ भिन्न नहीं थी। उसके नेत्रों से भी आँसुओं की अविरल धारा प्रवाहित हो रही थी। वह काफी शिथिल और कमजोर दिखाई दे रहा था।
गुलाब के मुँह से चीत्कार निकल गया। वह करुण क्रंदन करती हुई महाराज के चरणों में गिर पड़ी। राजा भी बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोने लगा। वह रोता जाता था और प्रश्न पूछता जाता था- ‘गुलाब, तुम मेरे प्रति इतनी कठोर क्यों हुईं? मेरे किस अपराध की सजा तुमने मुझे दी? मुझसे एक बार कहा तो होता कि तुम्हें वहाँ कोई कष्ट है। तुम जिसका कहतीं, उसका सिर उतार कर तुम्हारे चरणों में रख देता।’
-‘मुझे किसी का सिर नहीं चाहिये मरुधरानाथ, मैं तो आपके दर्शनों की भूखी हूं। आप ही मुझे छोड़कर वहाँ गढ़ में विराजे रहे। आपने ही अपनी गुलाब को भुला दिया। मैं तो अबला हूँ, स्वभाव से ही मूर्ख हूँ। मेरी एक मूर्खता का इतना बड़ा दण्ड! आप मेरी गर्दन अलग कर देते, मुझे दुःख नहीं होता किंतु आपने मुझे स्वयं से अलग रखा, मुझसे यह सहन नहीं होता।’ गुलाब ने सिसकते हुए उत्तर दिया।
गुलाब का सारा दुःख आँसुओं के साथ बह गया। ये दुःख के आँसू न थे, प्रसन्नता के थे जो बहुत दिनों बाद उसकी आँखों से प्रकट हुए थे।
महाराज ने बहुत चाहा कि गुलाब की महक फिर से मिहिरगढ़ में जाकर बसे किंतु गुलाब ने मना कर दिया। अब महाराज को ही गुलाब से मिलने के लिये यहाँ बाग में आना था। महाराज ने गुलाब के इस आग्रह को स्वीकार कर लिया। महाराज का पासवान के प्रति ऐसा अनुराग देखकर गढ़ में बैठी राणियाँ, महाराणियाँ और बड़े-बड़े ओहदों पर विराजमान मुत्सद्दी सन्न रह गये। किसी की हिम्मत नहीं थी कि महाराज के इस निर्णय के विरोध में दो शब्द भी कह सके।