Saturday, July 27, 2024
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38. तारां छाई रात!

मरुधरानाथ अब गढ़ में कम और गुलाब के बाग में अधिक दिखाई देता था। मुत्सद्दियों और सामंतों ने कई बार अवसर पाकर मरुधरानाथ से अनुरोध किया कि इस तरह गढ़ छोड़कर साधारण प्रजा के बीच रहने से दरबार की सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है किंतु महाराज ने उनकी सलाह पर ध्यान नहीं दिया। सब लोग दरबार से यहाँ न आने के लिये तो अनुरोध करते थे किंतु किसी में यह साहस नहीं था कि वे मरुधरानाथ से कह सकें कि इससे तो अच्छा है कि आप पासवान को फिर से गढ़ में ले चलें। ऐसी सलाह देकर कोई भी मुत्सद्दी और सरदार, शेखावतजी के क्रोध को आमंत्रित नहीं करना चाहता था।

धीरे-धीरे गुलाब को उद्यान महल में रहने आये दो साल हो चले। मरुधरपति दिन निकलते ही वहाँ पहुँच जाता और देर रात तक वहीं रहता। कभी-कभी तो रात को भी वहीं रह जाता। जब इस सिलसिले ने थमने का नाम नहीं लिया तो शेखावतजी को चिंता होना स्वाभाविक था। यह तो अच्छा था कि मारवाड़ के अपदस्थ महाराजा रामसिंह का निधन हो चुका था, देवीसिंह चाम्पावत परलोक सिधार चुका था और मराठे भी मारवाड़ से दूर थे। अन्यथा अब तक तो कोई न कोई अनर्थ हो ही जाना था।

 1779 ईस्वी की सर्दियाँ अब अपने यौवन पर थीं। कल रात भी दरबार काफी विलम्ब से गढ़ में लौटे थे। आज रात शेखावतजी ने निर्णय लिया के वे दरबार से बात करके रहेंगी। इसलिये वे अर्द्धरात्रि के पश्चात् भी जाग रही थीं। जब चंद्रमा को आकाश के मध्य आये काफी समय हो गया तो शेखावतजी ने दियों में झांक कर देखा, दियों में बहुत कम तेल बचा था। गगन में स्थित चंद्रमा और महल के प्रांगण में टिमटिमाते दिये दोनों ही इस बात की साक्षी दे रहे थे कि अर्धरात्रि से अधिक समय व्यतीत हो गया है। कौन जाने आज दरबार महल में आयें भी या वहीं रह जायें! शेखावतजी ने मन में विचार किया और द्वार पर खड़ी दासी को आवाज लगाई- ‘देख तो, श्रीजी साहब की सवारी आ गई क्या?’ यद्यपि पट्टमहिषी होने के नाते यह उनकी शान के विपरीत था कि वे अर्द्धरात्रि में दासी से यह सवाल पूछें।

-‘नहीं महारानी साहिबा। दरबार की सवारी अभी नहीं आई।’ दासी ने निकट आकर जवाब दिया।

शेखावतजी के माथे पर चिंता की रेखायें और गहरी हो गईं। वे कई दिनों से महाराज के गढ़ में पधारने का समय लक्ष्य कर रही थीं। भीषण शीत में इतनी देर रात तक गढ़ से बाहर रहना और पीनस में आना-जाना, मरुधरानाथ के लिये किसी भी तरह श्रेयस्कर नहीं है। शत्रु किसी भी दिन घात लगाकर अप्रिय कर सकता है। आज उन्होंने निश्चय कर रखा था कि वे मरुधरानाथ से बात करके ही रहेंगी- आखिर आपने अपने मन में क्या विचार रखा है! किंतु करेंगी कैसे! महाराज गढ़ में पधारेंगे तब ही तो! वे अपने विचारों की झंझा में ही थीं कि मरुधरानाथ की सवारी आने का शब्द हुआ।

शेखावतजी लपक कर महल से बाहर आ गईं। उन्होंने देखा, मरुधरानाथ मंथर कदमों से अपने महल की ओर जा रहे थे। उनके विशाल स्कंधों पर ऊनी कम्बल पड़ा था। महारानी को अपनी ओर आते देखकर महाराज का ध्यान उनकी ओर गया-‘क्या बात ही आज आप सोई नहीं?’ मरुधरानाथ ने स्नेह से शेखावतजी के कंधे पर हाथ रखा।

शेखावतजी को उनके प्रश्न का कोई उत्तर नहीं सूझा। वे मरुधरानाथ के साथ उनके महल की ओर ही चल दीं। मरुधरानाथ का स्नेहसिक्त हाथ उनके मृदुल स्कंध पर यूं ही रखा रहा।

-‘कोई चिंताजनक बात है क्या?’ मरुधरानाथ ने फिर पूछा।

-‘जिस औरत का धणी दियों में तेल समाप्त होने से पहले घर नहीं आता हो, उसके लिये तो चारों ओर चिंता ही चिंता है स्वामी।’ अपनी बात पूरी करते-करते शेखावतजी सुबक पड़ीं। उनका यह सुबकना अनायास ही नहीं था। उनके मन की वह पीड़ा भी उनके कण्ठ में उतर आई थी कि जिसे साधारण दासी समझ कर मरुधरदेश की महारानी ने महलों से भाग जाने के लिये विवश कर दिया था, आज वही दासी मारवाड़ नरेश को अपने अंक में समेटे बैठी थी और मरुधरदेश की पट्टमहिषी आँखों में नीर भरे अपने शीत से ठिठुरती रात्रि में पलक पाँवड़े बिछाये अपने पति के घर लौटने की प्रतीक्षा में खड़ी थी। भाग्य की विडम्बना संभवतः इसी को कहते हैं।

-‘आप तो जानती ही हैं कि गुलाब का महल गढ़ से अधिक दूर नहीं।’

-‘दरबार के लिये दूरियाँ कुछ महत्व नहीं रखतीं किंतु हम जैसी दासियों के लिये तो चंद कदम की दूरी भी जान लेवा होती है।’ शेखावतजी ने अपनी कोमल हथेलियों से अपने कपोलों पर बह आये आंसुओं को पौंछते हुए कहा। पर्याप्त प्रकाश न होने से महाराज इन आंसुओं को लक्ष्य नहीं कर पाये।

-‘मारवाड़ की पट्टमहिषी अकिंचन् दासी नहीं होती।’ मरुधरानाथ ने किंचित् परिहास के साथ कहा।

-‘अकिंचनता केवल पट्टमहिषी होने भर से जाती नहीं, वह तो हर हाल में स्त्री के साथ लगी रहती है।’

-‘अपना हृदय छोटा न करें महारानी! आप बतायें, किस चिंता ने आपको चिंतित किया है?’

-‘एक स्त्री की सबसे बड़ी चिंता उसका सुहाग ही है।’

-‘तो क्या आपके सुहाग पर कोई संकट आने की संभावना है?’ मरुधरपति महल में प्रवेश करके पर्यंक पर बैठ चुका था।

-‘सुहाग पर बाहर से संकट आये तो यह क्षत्राणी प्राण देकर भी उस संकट को समाप्त कर सकती है किंतु उस संकट का क्या करे जो भीतर से ही आया हो।’ महारानी ने महाराज के पैरों पर रजाई डालते हुए कहा।

-‘आधी रात में पहेलियाँ मत बुझाओ महारानी, साफ-साफ कहो, हम आपका क्या प्रिय कर सकते हैं?’

-‘आप इतनी रात गये सूनी गलियों से होकर गढ़ पधारते हैं, मारवाड़ धणी के शत्रुओं की कमी है क्या, वे कभी भी घात लगाकर बैठ सकते हैं। कभी भी कोई अनहोनी हो सकती है।’

-‘तो आप कहना चाहती हैं कि हम रात होने से पहले ही गढ़ पर आ जायें!’

-‘हाँ हम यही कहना चाहती हैं अपितु हम तो यह भी कहना चाहती हैं कि नित्य गढ़ से बाहर जाने की आवश्यकता ही क्या है?’

 -‘आवश्यकता तो नहीं है किंतु गुलाब जो रूठ कर वहाँ जा बैठी है, उसका क्या करें?’

-‘क्या गुलाब इतनी प्रिय है?’ महारानी का कण्ठ एक बार फिर सौतिया डाह से थरथरा गया।

-‘आप इस प्रश्न का उत्तर हमसे भी अच्छी तरह जानती हैं।’ महाराज ने स्मित हास्य के साथ कहा।

-‘और हम! हम आपको प्रिय नहीं!’

-‘आप राठौड़ों के विशाल राज्य की पट्टमहिषी हैं। आपके पास महारानी होने का अधिकार है, गढ़ है, दास-दासियां हैं, राज्य का समस्त कोष है। यदि आप हमें प्रिय नहीं होतीं तो…..।’ महाराज ने अपनी बात अधूरी छोड़ दी। दासी दियों में तेल डालने के लिये महल के भीतर आ रही थी।

-‘हमारा पट्टमहिषी होना, आपकी प्रीतपात्री होने के समक्ष बहुत तुच्छ सा अधिकार है महाराज।’ दासी के चले जाने के बाद शेखावतजी फिर से उसी बात पर आ गईं।

-‘आप प्रीतपात्री भी तो हैं।’

-‘यदि हम प्रीतपात्री हैं तो वह गुलाब?’

-‘वह आपकी अकिंचन दासी होने के योग्य है। इसी से वह हमारी प्रीतपात्री है।’ महाराज ने स्नेह से शेखावतजी की पीठ पर हाथ रखा।

-‘बातें मत बनाइये महाराज! किसी दिन गुलाब के कांटे चुभेंगे तो सारी सच्चाई सामने आ जायेगी।’ शेखावतजी ने महाराज के चरण दबाते हुए कहा।

-‘जब गुलाबों से प्रीत की है तो उसके काँटे भी सहन करने ही होंगे।’

-‘विषयांतर हो रहा है महाराज! हम तो यह चाहते थे कि आप नित्य प्रतिदिन गढ़ से बाहर न जायें।’

-‘यह तो तभी संभव है जब गुलाब गढ़ में आ जाये किंतु वह दासी के रूप में गढ़ में आने को तैयार नहीं।’

-‘तो क्या रानी बनकर आयेगी?’

-‘संभवतः उसकी यही इच्छा हो।’

मरुधरानाथ का उत्तर सुनकर शेखावतजी कांप उठीं। फिर भी किसी तरह साहस करके बोलीं- ‘एक पासवान को मारवाड़ के सामंत महारानी कहकर मुजरा नहीं करेंगे। आपकी हेठी होगी।’

-‘वह बाद की बात है, पहले आप बतायें।’

-‘आप जिसे रानी कहेंगे, रानी तो वही होगी, हमारे कहने या न कहने से क्या होगा?’

-‘तो ले आयें उसे गढ़ में?’ मरुधरपति अचानक पर्यंक से उठ बैठा।

-‘अभी नहीं महाराज, सूर्योदय तो होने दीजिये।’ मरुधरानाथ का अधैर्य देखकर शेखावतजी की आँखों में एक बार फिर आँसू तैर आये। महाराज के इस अधैर्य से शेखावतजी को अपने बहुत से प्रश्नों का उत्तर स्वतः ही मिल गया। गुलाब को महारानी घोषित किये जाने का अर्थ था, उसके पुत्र को राजकुमार घोषित किया जाना और उसके पुत्र के लिये भी मारवाड़ का सिंहासन उतना ही सुलभ हो जाना जितना कि स्वयं शेखावतजी के पुत्रों के लिये था किंतु शेखाावतजी के पास अपने पति को अपनी आँखों के समक्ष रखने के लिये यह त्याग करने के अतिरिक्त और कोई उपाय भी नहीं था।

जब महाराज को नींद आई और शेखावतजी दबे पाँव उनके महल से बाहर निकलीं तो आकाश में कुछ निस्तेज तारे ही शेष बचे थे। तारों छाई रात विदा होने को थी और मरुधरानाथ नींद के गहरे समुद्र में जा धंसा था।

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