राव सीहा
राव सीहा के बारे में भाटों से लेकर मुहणोत नैणसी तथा कर्नल टॉड ने अनेक कपोल कल्पित बातें लिखी हैं जो ऐतिहासिक घटना क्रम की कसौटी पर खरी नहीं उतरतीं। इन लेखकों ने सीहा का काल 1118 ई. से 1273 ई. के बीच फैला दिया है। जो कि सही नहीं हो सकता। यह संभव है कि इन लोगों द्वारा लिखी गई बातों में से अधिकांश बातें सही हों किंतु सत्य बातें कौनसी हैं, कहा नहीं जा सकता।
जोधपुर राज्य की ख्यात में लिखा है कि राव सीहा, वरदाई सेन का पौत्र और सेतराम का पुत्र था। पाली से लगभग 22 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित बीठू गांव से राव सीहा का मृत्यु स्मारक मिला है जिसे स्थानीय भाषा में देवली कहते हैं। इस देवली के ऊपरी भाग में शत्रु की छाती में भाला मारते हुए अश्वारूढ़ सीहा की सुंदर मूर्ति बनी हुई है। इससे अनुमान होता है कि वह युद्ध क्षेत्र में लड़ते हुए काम आया। इस स्मारक पर एक लेख उत्कीर्ण है जिसके अनुसार राव सीहा की मृत्यु वि.सं. 1330 (1273 ई.) में हुई। केवल यही तथ्य राव सीहा के बारे में निर्विवाद रूप से सही माना जा सकता है। इस आधार पर, राठौड़़ों के मरुस्थल की राजनीति में आगमन का समय 1273 ई. से कुछ दशक पूर्व माना जा सकता है।
राव सीहा अपने 200 आदमियों के साथ मरुस्थल में आया तथा उसने पालीवाल ब्राह्मणों के अनुरोध पर मुसलमान लुटेरों के विरुद्ध युद्ध करके मरुस्थल की राजनीति में हस्तक्षेप आरम्भ किया। इसी के साथ, राठौड़़ों द्वारा मरुस्थल में मारवाड़ राज्य की स्थापना का काम आरम्भ हुआ। सीहा ने कई गांवों पर अधिकार कर लिया। वह मुसलमानों से लड़ते हुए काम आया। सीहा का अधिकार क्षेत्र पाली के निकट था और उसी क्षेत्र में उसकी मृत्यु हुई। मृत्यु के समय सीहा की आयु 80 वर्ष अनुमानित की जाती है। विभिन्न ख्यातों में सीहा की स्त्रियों की संख्या 6 तक बताई गई है। ज्ञात तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि इनमें से एक स्त्री पार्वती, कोलूमण्ड के सोलंकी राजा की पुत्री थी। मूथा नैणसी ने सीहा के पुत्रों की संख्या 5 तथा दयालदास सिंढायच ने 50 बताई है। अधिकांश ख्यातों में उसके 3 पुत्र बताये गये हैं- आस्थान, सोनिंग और अज। ये तीनों पुत्र सीहा की चावड़ी रानी से उत्पन्न हुए।
राव आस्थान
सीहा की मृत्यु के बाद आस्थान (अश्वत्थामा) उसका उत्तराधिकारी हुआ। ख्यातों के अनुसार आस्थान ने खेड़ (इसे भिरड़कोट भी कहते थे।) के गोहिलों को छल से मारकर उनका राज्य छीना तथा खेड़ को अपनी राजधानी बनाया। इस कारण उसके वंशज ‘खेड़ेचा’ कहलाये। आस्थान ने भीलों को मारकर ईडर पर अधिकार किया और अपने छोटे भाई सोनिंग को दे दिया। सोनिंग के वंशज ईडरिया राठौड़़ कहलाये। आस्थान ने अपने छोटे भाई अज को द्वारिका की तरफ भेजा। अज ने वहाँ के चावड़ा राजा विक्रमसेन को मारकर उसका सिर जलदेवी को चढ़ाया तथा द्वारिका के प्रदेश पर अधिकार कर लिया। इस कारण अज के वंशज ‘बाढ़ेज’ कहलाये। जब फीरोजशाह नामक किसी मुस्लिम आक्रांता ने पाली को लूटा और स्त्रियों आदि को पकड़ लिया तब आस्थान ने खेड़ से आकर उससे युद्ध किया तथा पाली के तालाब के निकट अपने 140 राजपूतों के साथ काम आया। जोधपुर राज्य की ख्यात, कर्नल टॉड तथा विश्वेश्वर नाथ रेउ के अनुसार आस्थान के आठ पुत्र हुए। दयालदास की ख्यात तथा बांकीदास ने उसके छः पुत्रों का उल्लेख किया है। निश्चित रूप से इतना ही कहा जा सकता है कि आस्थान वि.सं. 1330 (1273 ई.) में अपने पिता का उत्तराधिकारी हुआ और वि.सं. 1366 (1309 ई.) से पूर्व किसी समय उसकी मृत्यु हुई। रेउ ने आस्थान की मृत्यु तिथि 15 अप्रेल 1291 अथवा 2 मई 1992 को होनी अनुमानित की है।
राव धूहड़
आस्थान के बाद उसका पुत्र धूहड़ राठौड़़ों का राजा हुआ। उसने 140 गांव जीतकर, अपने पिता द्वारा छोडे़ गये राज्य की वृद्धि की। धूहड़ के समय लुम्ब ऋषि नामक एक ब्राह्मण, कन्नौज से राठौड़़ों की कुलदेवी चक्रेश्वरी (आदि पक्षिणी) की मूर्ति लेकर आया। राव धूहड़ ने इस मूर्ति को नागणा गांव में स्थापित किया। ख्यातों में लिखा है कि इस देवी ने धूहड़जी को नागिन रूप में स्वप्न में दर्शन दिये। इस कारण यह नागणेची के नाम से प्रसिद्ध हुई। कुछ स्रोतों के अनुसार राव धूहड़ इस मूर्ति को कर्णाटक से लेकर आया। उन दिनों में मण्डोर परिहारों के अधिकार में था। धूहड़ ने परिहारों को परास्त करके मण्डोर छीन लिया किंतु परिहारों ने फिर से मण्डोर पर अधिकार कर लिया। तरसींगड़ी गांव के निकट परिहारों से युद्ध करते हुए राव धूहड़ की मृत्यु हुई। पचपदरा के निकट तिगड़ी (तरसींगड़ी) गांव के तालाब से राव धूहड़ की देवली (मृत्यु स्मारक) मिली है। इस देवली पर अंकित लेख के अनुसार राव धूहड़ की मृत्यु वि.सं. 1366 (1309 ई.) में हुई। (1366 ई. की एक देवली पचपद्रा के निकट गांव के तालाब से प्राप्त हुई है जिसमें आस्थान के पुत्र धूहड़ की मृत्यु के बारे में लिखा गया है। अतः यह निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि आस्थान भी इस तिथि से पूर्व मृत्यु को प्राप्त हो चुका था।) विश्वेश्वर नाथ रेउ ने धूहड़ का राज्यकाल 1292 से 1309 ई. स्वीकार किया है। राव धूहड़ के सात पुत्र हुए।
राव रायपाल
धूहड़ की मृत्यु होने पर 1309 ई. में उसका ज्येष्ठ पुत्र रायपाल खेड़ की गद्दी पर बैठा। उसने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिये परिहारों पर आक्रमण किया तथा मण्डोर पर अधिकार कर लिया किंतु वह अधिक समय तक मण्डोर पर अधिकार नहीं रख सका। रायपाल ने बाड़मेर के निकट परमारों को पराजित किया तथा उनसे महेवा और आसपास की भूमि छीन ली। एक बार रायपाल के राज्य में अकाल पड़ गया। इस पर रायपाल ने अपनी प्रजा में अन्न बंटवाया। इस कारण उसे महीरेलण अर्थात् इन्द्र कहा जाने लगा। रायपाल संभवतः 1313 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुआ। रायपाल के चौदह पुत्र थे।
राव कनपाल
रायपाल के बाद राव कनपाल 1313 ई. से 1323 ई. के बीच राठौड़़ों का राजा हुआ। उसके समय में खेड़ तथा महेवा का पूरा क्षेत्र राठौड़़ों के अधिकार में था तथा उसकी सीमाएं जैसलमेर के भाटियों के राज्य से लगती थीं। इसलिये भाटियों और राठौड़़ों में युद्ध होते रहते थे। कनपाल के पुत्र भीम ने भाटियों को काक नदी के उस पार धकेल कर काक नदी को राठौड़़ों और भाटियों के बीच की सीमा नियत किया। कनपाल का पुत्र भीम तथा बाद में स्वयं कनपाल भी भाटियों एवं मुसलमानों की संयुक्त सेनाओं से लड़ते हुए काम आये। कनपाल के तीन पुत्र थे- भीम, जालणसी तथा विजपाल।
राव जालणसी
कनपाल के बाद जालणसी 1323 ई. से 1328 ई. के बीच राजा बना। उसने उमरकोट के सोढ़ों को दण्डित किया तथा सोढ़ों के मुखिया का साफा छीन लिया। ख्यातों के अनुसार उसी दिन से मारवाड़ के राठौड़़ों ने साफा बांधना आरम्भ किया। जालणसी ने खेड़ राज्य पर चढ़कर आये मुसलमान आक्रांताओं से युद्ध करके उनके नेता हाजी मलिक को अपने हाथों से मारकर अपने चाचा की मृत्यु का बदला लिया। जालणसी ने भीनमाल पर आक्रमण करके सोलंकियों को दण्डित किया। यह भी भाटियों और मुसलमानों की संयुक्त सेना से युद्ध करते हुए काम आया। उसके तीन पुत्र थे- छाडा, भाकरसी तथा डूंगरसी।
राव छाडा
जालणसी के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र छाडा ने 1328 से 1344 ई. की अवधि में राज्य किया। उसने अपने राज्य की सीमा पर स्थित सोढ़ों तथा जैसलमेर के भाटियों से दण्ड वसूल किया। भाटियों ने अपनी पुत्री की विवाह छाडा से करके सुलह कर ली। इसके बाद छाडा ने पाली, सोजत, भीनमाल और जालोर पर चढ़ाई करके उन प्रदेशों को लूटा। जब राव छाडा इस युद्ध यात्रा के बाद जालोर के निकट रामा गांव में ठहरा हुआ था तब सोनगरों एवं देवड़ों ने अचानक हमला करके छाडा को मार डाला। छाडा के सात पुत्र थे।
राव तीडा
छाडा का उत्तराधिकारी राव तीडा हुआ जिसने 1344 से 1357 ई. तक राज्य किया। ख्यातों में लिखा है कि तीडा महेवा की गद्दी पर बैठा। महेवा को राव रायपाल ने अपने राज्य में मिलाया था। इसलिये अनुमान किया जा सकता है कि रायपाल से लेकर तीडा के शासन की अवधि के किसी काल में राठौड़़ों की राजधानी खेड़ से महेवा स्थानांतरित हो गई तथा यह खेड़ राज्य के स्थान पर महेवा राज्य कहलाने लगा। तीडा के समय में मारवाड़ के अधिकांश क्षेत्रों पर मुसलमानों का शासन हो गया। तीडा की मृत्यु किसी मुसलमान शासक से लड़ते हुए हुई। उसके तीन पुत्र थे- कान्हड़देव, त्रिभुवनसी तथा सलखा। सलखा को तीडा के जीवन काल में ही मुसलमानों द्वारा बंदी बना लिया गया।
कान्हड़देव
नैणसी की ख्यात तथा कुछ अन्य ख्यातों में तीडा के बाद कान्हड़देव तथा त्रिभुवनसी के गद्दी पर बैठने का उल्लेख आता है। जैसे ही कान्हड़देव महेवा की गद्दी पर बैठा, मुसलमानों ने महेवा पर आक्रमण करके महेवा पर अधिकार कर लिया किंतु कुछ ही समय बाद कान्हड़देव ने महेवा पर पुनः अधिकार कर लिया।
त्रिभुवनसी
कान्हड़देव के मारे जाने पर त्रिभुवनसी महेवा का राजा बना। कुछ समय बाद उसे सलखा के पुत्र मल्लीनाथ (मल्लीनाथ, त्रिभुवनसी का भतीजा था।) ने मार डाला और महेवा पर अधिकार कर लिया। ख्यातों में लिखा है कि मल्लीनाथ ने युद्ध में घायल त्रिभुवनसी के घावों पर नीम की पत्तियों में विष मिलवाकर लगवा दिया जिससे त्रिभुवनसी की मृत्यु हुई।
राव सलखा
सलखा को उसके पिता के जीवन काल में ही मुसलमानों ने बंदी बना लिया था जिसे बड़ी कठिनाई से छुड़वाया जा सका। जिस समय कान्हड़देव राजा हुआ, उसने सलखा को एक गांव की जागीर दी किंतु जब महेवा पर मुसलमानों ने अधिकार कर लिया तो सलखा ने महेवा का कुछ भाग मुसलमानों से छीनकर भिरड़कोट में अपना राज्य जमाया। जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार सलखा एक छोटा ठाकुर था और सिवाणा के निकट गापेड़ी गांव में रहता था, जहाँ उसके ज्येष्ठ पुत्र मल्लीनाथ का जन्म हुआ। टॉड के अनुसार सलखा के वंशज सलखावत कहलाये। टॉड के समय में सलखावत राठौड़़, महेवा तथा राड़धरा में बड़ी संख्या में विद्यमान थे तथा वहाँ के भोमिये थे। रेउ ने सलखा का राज्यकाल 1357 से 1374 ई. स्वीकार किया है। मुसलमानों ने एक दिन सलखा पर अचानक चढ़ाई करके उसे मार डाला।
रावल मल्लीनाथ
जोधपुर राज्य की ख्यात के अनुसार राव सलखा के दो रानियां थीं जिनसे उसके चार पुत्र मल्लीनाथ, जैतमाल, वीरम तथा सोमित एवं एक पुत्री विमली हुई, जिसका विवाह जैसलमेर के रावल घड़सी के साथ हुआ। सलखा की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र मल्लीनाथ 1374 ई. में महेवे और खेड़ का स्वामी हुआ। वह अपनी रानी के कहने से तपस्या करके सिद्ध पुरुष बना तथा उसने कूण्डा पंथ की स्थापना की। ख्यातों में मल्लीनाथ को माला कहा गया है। उसके तथा उसके वंशजों द्वारा शासित क्षेत्र मालानी कहलाया। उसने रावल की पद्वी धारण की। उसके वंशज रावल या महारावल कहलाते रहे। उसका पुत्र जगमाल भी प्रतापी योद्धा हुआ। 1378 ई. में मुसलानों ने 13 दलों की एक विशाल सेना लेकर माला पर आक्रमण किया। माला ने 13 दलों की इस विशाल सेना को परास्त कर दिया। इस घटना की स्मृति में मारवाड़ में एक कहावत है- ‘तेरह तुंगा भांगिया माले सलखाणी।’
वीरमदेव
मल्लीनाथ का छोटा भाई वीरमदेव था। मल्लीनाथ के पुत्र जगमाल तथा वीरमदेव में अनबन रहती थी इसलिये वीरम, महेवा में न रहकर, खेड़ में गुढ़ा (ठिकाना) बांध कर रहता था। महेवा में खून करके कोई अपराधी वीरमदेव के गुढ़े में शरण मांगता तो वीरम उसे अपने पास रख लेता। इस पर जगमाल में और वीरमदेव में झगड़ा बढ़ गया और वीरमदेव महेवा राज्य का त्याग कर, जैसलमेर, नागौर तथा जांगलू आदि प्रदेशों में लूटमार करने लगा। बाद में वह जोहियावाटी में जाकर जोहियों के साथ रहने लगा। 1383 ई. में उसने जोहियों को मारकर उनके राज्य पर अधिकार करना चाहा। इस प्रयास में वीरमदेव मारा गया। वीरमदेव की चार रानियां थीं जिनसे उसे पांच पुत्र हुए। वीरमदेव की मृत्यु के समय उसका पुत्र चूण्डा कम आयु का था। उसकी मां भटियाणी, वीरमदेव की पटराणी थी तथा वह वीरमदेव के पीछे सती हो गई। इसलिये चूण्डा अपने ताऊ मल्लीनाथ के पास जाकर महेवा में रहने लगा।
राव चूण्डा (चामुंडराय)
चूण्डा का जन्म कब हुआ और अपने पिता की मृत्यु के समय उसकी अवस्था कितनी थी, यह कहना कठिन है। विभिन्न ख्यातों में चूण्डा के सम्बन्ध में अलग-अलग वृत्तांत दिये गये हैं। इनके आधार पर कहा जा सकता है कि वीरम की मृत्यु के बाद चूण्डा कालाऊ गांव में आल्हा चारण के यहाँ रहने लगा। जब चूण्डा आठ-नौ वर्ष का हुआ तो आल्हा उसे रावल मल्लीनाथ के पास ले गया। जब चूण्डा बड़ा हुआ तो मल्लीनाथ ने उसे गुजरात की तरफ अपनी सीमा की चौकसी करने के लिए नियत किया। एक बार चूण्डा ने घोड़ों के व्यापारियों से उनके घोड़े छीनकर अपने राजपूतों में बांट दिये। जब रावल मल्लीनाथ से इसकी शिकायत की गई तो मल्लीनाथ ने सौदागरों को उन घोड़ों का मूल्य चुकाया तथा चूण्डा को अपने राज्य से निकाल दिया।
चूण्डा, ईंदा परिहारों के पास जाकर रहने लगा। कुछ दिनों बाद उसने डीडवाणा को लूटा। इसके बाद उसने ईंदा परिहारों के सहयोग से मण्डोर पर अधिकार करने की योजना बनाई। एक दिन उसने अपने सैनिकों को घास की गाड़ियों में छिपाकर मण्डोर दुर्ग के भीतर भेज दिया तथा वहाँ के मुस्लिम शासक को मारकर मण्डोर पर अधिकार कर लिया। जब चूण्डा के ताऊ रावल मल्लीनाथ को ज्ञात हुआ कि चूण्डा ने मण्डोर पर अधिकार किया है तब उसने मण्डोर आकर चूण्डा की प्रशंसा की। मण्डोर आठवीं शताब्दी से परिहारों के अधिकार में चला आ रहा था किंतु चौदहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने अधिकार कर लिया था। ईंदा नहीं चाहते थे कि मण्डोर फिर से मुसलमानों के हाथों में जाये। इसलिये ईंदो ने विचार किया कि मण्डोर का दुर्ग राठौड़ों के पास रहने दिया जाये। ईंदों के मुखिया राय धवल ने चूण्डा की शक्ति बढ़ाने के लिये अपनी पुत्री का विवाह चूण्डा के साथ कर दिया तथा उसे दहेज में मण्डोर का दुर्ग दे दिया। इस सम्बन्ध में यह सोरठा प्रसिद्ध है-
इन्दां रो उपकार, कमधज मत भूलौ कदे।
चूंडो चंवरी चाढ, दी मण्डोवर दायजे।।
ज्यातिषियों ने चूण्डा का राज्याभिषेक कर दिया और वह मण्डोर का राव कहलाने लगा। यह घटना 1394 ई. के लगभग घटित होनी अनुमानित है। मण्डोर प्राप्त हो जाने पर चूण्डा ने मण्डोर राज्य में रहने वाले सिंधल, कोटेचा, मांगलिया, आसायच आदि राजपूतों को अपनी सेवा में रख लिया। इसके बाद चूण्डा ने आसपास के मुसलमानों को खदेड़ना आरम्भ किया। उसने खाटू, डीडवाना, सांभर, अजमेर तथा नाडौल आदि स्थानों से शाही अधिकारियों को खदेड़ दिया। इस काल में दिल्ली के तख्त पर तुगलक शासन कर रहे थे तथा उसकी ओर से गुजरात में गवर्नर जफर खाँ नियुक्त था। जब उसे ज्ञात हुआ कि चूण्डा मुसलमानों को उजाड़ रहा है तो वह सेना लेकर मण्डोर पर चढ़ आया। लम्बी घेराबंदी के बाद भी वह चूण्डा को परास्त नहीं कर सका। इस पर वह चूण्डा से नाममात्र की शपथ लेकर कि अब चूण्डा मुसलमानों को तंग नहीं करेगा, वापस गुजरात लौट गया।
1399 ई. में राव चूण्डा ने नागौर पर चढ़ाई की और वहाँ के खोखर शासक को मार कर नागौर पर अधिकार कर लिया। राव मल्लीनाथ ने भी इस कार्य में चूण्डा की सहायता की। चूण्डा अपने पुत्र सत्ता को मण्डोर में रखकर स्वयं नागौर में रहने लगा। चूण्डा ने भाटियों के राजा राणागदे को मारा और उसका माल लूटकर नागौर ले आया। मोहिलों की बहुत सी भूमि पर अधिकार करने के कारण मोहिल आसराव माणिकरावोत ने चूण्डा से अपनी पुत्री ब्याह दी। (मोहिल, चौहानों की एक शाखा है।) कुछ ही समय में चूण्डा ने डीडवाना, सांभर, अजमेर तथा नाडौल पर भी अधिकार कर लिया।
चूण्डा की सफलताएं अपने समय की तुलना में बहुत बड़ी थीं। उस काल में मरुस्थल में भाटी, सांखला, जोहिया, परिहार, चौहान तथा मुसलमान सक्रिय थे। उनसे निरंतर लड़ते रहना और अपने लिये एक नया राज्य बनाकर उसका विस्तार करते रहना अत्यंत कठिन कार्य था किंतु चूण्डा आजीवन इस कार्य को करता रहा। चूण्डा ने अपने राज्य की सीमाएं निर्धारित करने का प्रयास किया तथा अपने अधीनस्थ सहयोगियों को सामंत व्यवस्था में ढालने का काम किया।
जोधपुर राज्य की ख्यात, मुंहणोत नैणसी की ख्यात, कविराजा श्यामलदास तथा कर्नल टॉड ने चूण्डा के चौदह पुत्रों और एक पुत्री का उल्लेख किया है। उनके नामों में कुछ भिन्नता है किंतु सत्ता, रणमल, कान्हा, अरडकमल तथा हंसाबाई सहित अधिकांश नाम एक जैसे ही हैं। चूण्डा का बड़ा पुत्र रणमल था किंतु चूण्डा ने अपनी मोहिल रानी के कहने पर उसके पुत्र कान्हा को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया तथा रणमल से कहा कि वह कहीं और जाकर रहे। रणमल, पिता की आज्ञा मानकर पिता का राज्य त्यागकर मेवाड़ के महाराणा लाखा के पास चला गया जो रणमल का बहनोई भी था।
रणमल के चले जाने के कुछ दिनों बाद मोहिल रानी के दुर्व्यवहार से व्यथित होकर कई राजपूत सरदार चूण्डा से नाराज हो गये और रणमल के साथ चले गये। जब नागौर पर भाटी एवं मुसलमान एक साथ चढ़कर आये तो राव चूण्डा ने उनका सामना किया तथा 15 मार्च 1423 को लड़ते हुए काम आया। चूण्डा के मारे जाने पर सत्ता ने मण्डोर में और कान्हा ने जांगलू में सेना का संगठन किया। नागौर पर मुहम्मद फीरोज का अधिकार हो गया। चूण्डा ने चांडासर बसाया था, जहाँ रणमल की माता रहती थी, जो चूण्डा के साथ सती हुई। टॉड के अनुसार राठौड़़ों के इतिहास में राव चूण्डा का प्रमुख स्थान है।
राव कान्हा
राव चूण्डा की मृत्यु हो जाने पर रणमल ने मेवाड़ से आकर अपने सौतेले छोटे भाई कान्हा को मण्डोर का टीका दिया और स्वयं सोजत में रहने लगा। राव चूण्डा को मारने में देवराज सांखला का भी हाथ था। इसलिये कान्हा ने जांगलू में जाकर सांखलों को मारने का विचार किया।
सांखलों ने रणमल से सहायता मांगी। इस पर रणमल अपनी सेना लेकर सारूंडा पहुंच गया। त्रिभुवनसी के पुत्र ऊदा (राठौड़़) ने रणमल से कहा कि आप ढील करें तो अच्छा होगा क्योंकि यदि कान्हा मारा गया तो आपको ही भूमि मिलेगी और यदि सांखला मारा गया तो जांगलू आपके अधिकार में आ जायेगा। यह सुनकर रणमल सारूंडा में ही ठहरा रहा। इस युद्ध में कान्हा की विजय हुई और सांखला राजा के चारों पुत्र मारे गये। इस आशय का एक दोहा इस प्रकार से है-
सधर हुआ भड़ सांखला, ग्यो भाजै काझाल।
वीर रतन ऊदौ विजो, बछो नै पुनपाल।।
इस युद्ध कुछ दिनों बाद पेट में शूल की बीमारी होने से कान्हा का भी देहांत हो गया। दयालदास की ख्यात के अनुसार कान्हा ने लगभग ग्यारह महीने राज्य किया।
राव सत्ता
कान्हा की मृत्यु के बाद चूण्डा का पुत्र सत्ता राठौड़़ों का राजा हुआ। उसके बारे में ख्यातों में परस्पर विपरीत बातें लिखी हुई हैं। उनमें से सत्य और असत्य का निर्धारण करना कठिन है। ख्यातों के अनुसार सत्ता अपने अंतिम समय में अंधा हो गया था और मदिरा पान बहुत करता था। यह भी निर्विवाद रूप से कहा जा सकता है कि सत्ता के राजा बनने के बाद सत्ता के पुत्र नरबद और सत्ता के भाई रणधीर में विवाद उत्पन्न हो गया। सत्ता के अधिकतर भाई भी सत्ता के विरोधी हो गये। इस कारण उन्होंने सत्ता के स्थान पर रणमल को राजा बनाने का निर्णय लिया।
ख्यातों पर निर्भर है सत्रह राजाओं का इतिहास
राव सीहा से लगाकर राव रणमल तक कुल 17 राजा हुए। इनका वास्तविक इतिहास अब तक अंधकार में है। इन राजाओं के इतिहास के विश्वसनीय स्रोत के रूप में राव सीहा और राव धूहड़ के मृत्यु शिलालेखों को छोड़कर कोई भी विश्वसनीय सामग्री प्राप्त नहीं हुई है। इसलिये राव सीहा से लेकर रणमल तक सत्रह राजाओं के वृत्तान्त के लिए ख्यातों का ही आश्रय लेना पड़ता है। इनमें से कुछ तथ्यों की पुष्टि दूसरे वंशों के समकालीन इतिहास से होती है।