महाराणा भूपालसिंह, अपने प्रधानमंत्री सर राममूर्ति को, संयुक्त राज्य राजस्थान का सलाहकार नियुक्त करना चाहते थे ताकि उन्हें राजनीतिक विषयों पर उचित सलाह मिलती रहे। चूंकि राज्य में लोकप्रिय सरकार का गठन हो चुका था इसलिये केन्द्र सरकार की स्वीकृति के बिना ऐसा किया जाना संभव नहीं था। अतः महाराणा ने भारत सरकार से वार्त्ता करने का निर्णय लिया।
राजस्थान का उद्घाटन होने के बाद 29 अप्रेल 1948 को वी. पी. मेनन उदयपुर आये। महाराणा ने मेनन से अनुरोध किया कि मेवाड़ के पूर्व प्रधानमंत्री सर राममूर्ति को संयुक्त राजस्थान सरकार का सलाहकार नियुक्त किया जाए। मेनन ने माणिक्यलाल वर्मा से पूछे बिना ही यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। महाराणा ने भी माणिक्यलाल वर्मा को बताये बिना राममूर्ति की नियुक्ति के आदेश जारी कर दिये। इस पर राममूर्ति ने यह कहना आरंभ कर दिया कि राजप्रमुख के सलाहकार होने के नाते वे मंत्रिमण्डल से ऊपर हैं।
वर्मा ने 13 मई 1948 को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि जो अधिकारी सरकार का सलाहकार होगा, वह मंत्रिमण्डल के अधीन रहकर कार्य करेगा। राजप्रमुख को राज्य सम्बन्धी सलाह देने की जिम्मेदारी मंत्रिमण्डल की है। यदि सलाहकार जैसी एक और एजेंसी राजप्रमुख को सलाह देना आरंभ कर देगी तो राज्य में दोहरा शासन आरंभ हो जायेगा जो जनतंत्र के सर्वसम्मत सिद्धांतों के विपरीत होगा। माणिक्यलाल वर्मा ने राममूर्ति से कहा कि वे प्रधानमंत्री के लिये आवंटित आवास खाली कर दें क्योंकि राममूर्ति को दूसरा आवास आवंटित कर दिया गया है।
राममूर्ति ने माणिक्यलाल वर्मा का पत्र राजप्रमुख के सम्मुख रखा तो राजप्रमुख बड़े खिन्न हुए। उन्होंने उसे अपना अपमान समझा। राजप्रमुख ने 15 मई 1948 को सरदार पटेल को एक पत्र लिखा कि आप से अधिक कोई नहीं जानता कि मैंने अपनी रियासत का संयुक्त राज्य राजस्थान में विलय अपनी स्वयं की तरफ से पहल कर पूरी तरह स्वेच्छा से किया है। मुझे विश्वास है कि आप सहमत होंगे कि मेरे साथ जो व्यवहार किया जा रहा है वह मेरे द्वारा प्रदर्शित सद्भावना और सहयोग के अनुरूप नहीं है।………मैं आपसे हृदय से निवेदन करूंगा कि सर राममूर्ति की सलाहकार के पद पर की गयी नियुक्ति में किसी तरह दखल नहीं होना चाहिये।
सरदार पटेल ने माणिक्यलाल वर्मा को दिल्ली बुलाकर कहा कि सर राममूर्ति को लिखे गये पत्र को वापस ले लें। वर्मा ने सरदार के आदेशानुसार अपना पत्र वापस ले लिया। सरदार ने महाराणा को लिखा कि माणिक्यलाल वर्मा ने मेरी सलाह पर 15 मई 1948 का पत्र वापस ले लिया है। मेरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री के निवास स्थान को लेकर राममूर्ति अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न नहीं बना सकते। आप उन्हें इस सम्बन्ध में मंत्रिमण्डल के निर्णय को स्वीकार कर लेने की सलाह दें। बार-बार इस प्रकार की घटनायें होना बताता है कि सर राममूर्ति अपने आपको देश के बदले हुए हालात में ढाल नहीं पाये हैं। राममूर्ति को बता दें कि अपने तौर तरीकों में परिवर्तन करें अन्यथा यह संभावना है कि उनकी गलतियों के कारण आपके और मंत्रिमण्डल के सम्बन्ध बिगड़ जाएं और बेकार में ही आपकी प्रतिष्ठा और पद को आंच पहुँचे।
माणिक्यलाल वर्मा जिद्दी स्वभाव के व्यक्ति थे तथा प्रत्येक बात में अपने हठ पर अड़े रहते थे किंतु महाराणा अपने राज्य को जिस राजनीतिक व्यवस्था को समर्पित कर चुके थे, उसमें इसके अतिरिक्त और कोई चारा नहीं था कि वे राष्ट्रीय नेता की सलाह मान लेते। महाराणा के सौभाग्य से शीघ्र ही राजपूताने की परिस्थितियों ने और तेजी से करवट ली और एक वर्ष से भी कम समय में महाराणा को माणिक्यलाल वर्मा के हठ से मुक्ति मिल गई।