किसी भी भाषा में साहित्य की रचना प्रायः पद्य विधा से आरम्भ होती है तथा बाद में गद्य विधा को अपनाया जाता है। संस्कृत भाषा एवं उससे निःसृत समस्त भाषाओं में पद्य के बाद ही गद्य आया। राजस्थानी पद्य साहित्य की रचना परम्परा में भी ऐसा ही देखने को मिलता है। राजस्थानी भाषा में साहित्य का लिखित रूप पहले पद्य में तथा उसके बाद राजस्थानी गद्य के रूप में सामने आया।
राजस्थानी भाषा में ई.788 में जालोर में उद्योतन सूरि द्वारा रचित ‘कुवलयमाला’ (प्राकृत ग्रंथ) से लेकर, 12वीं शताब्दी ईस्वी में सिरोही में सिंह कवि द्वारा रचित ‘पज्जुन्न कहा’ (अपभ्रंश ग्रंथ), 15वीं शताब्दी में श्रीधर व्यास द्वारा रचित ‘रणमल्ल छंद’ (प्राचीन राजस्थानी ग्रंथ) आदि समस्त महत्वपूर्ण रचनाएं पद्य विद्या में हैं।
राजस्थानी पद्य में मुख्यतः ब्राह्मण, जैन एवं चारण कवियों द्वारा लिखी गई रचनाएं मिलती हैं। इनसे इतर कवियों द्वारा भी पद्य रचनाएं लिखी गईं जिन्हें सामान्यतः ब्राह्मण परम्परा के अंतर्गत रखा जा सकता है।
राजस्थानी पद्य साहित्य की रचना परम्पराएं
राजस्थानी पद्य साहित्य गीत, निसाणी, झूलणा, वेलि (बेलि), गुटका, दूहा, सोरठा, कुण्डलियां, छंद, छप्पय, झमाल, कवित्त, प्रबंध आदि में विस्तृत है। छंद के प्रयोग से गद्य एवं पद्य का अंतर स्पष्ट किया जाता है।
राजस्थानी पद्य में मात्रिक एवं वर्णिक दोनों प्रकार के छंदों का प्रचलन रहा है। राजस्थानी पद्य में छंदों का विशाल भण्डार है। गीत नामक छंद के ही एक सौ चार भेद हैं। राजस्थानी भाषा का सर्वाधिक प्रिय छंद दूहा है। वैणसगाई, राजस्थानी पद्य का प्रमुख अलंकार है।
दूहा
यह मात्रिक छंद है तथा अपभ्रंश साहित्य से राजस्थानी भाषा में आया है। इसमें सभी रसों एवं विषयों की व्यंजना हुई है। दोहे में चार चरण होते हैं। इसके प्रथम तथा तृतीय चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं और दूसरे तथा चौथे चरण में 11-11 मात्राएं होती हैं। राजस्थानी में दोहे के 21 भेद हैं जिनमें से 5 सर्वाधिक प्रयुक्त होते हैं- दूहो, सोरठियो दूहो, बड़ो दूहो, तूंबरो दूहो तथा खोड़ियो दूहो। इनके अतिरिक्त रंग दूहा, परिजाऊ दूहा, सिंधू दूहा, विसहर दूहा इत्यिादि भी प्रयुक्त होते रहे हैं।
सोरठा
यह दूहा-छंद का प्रमुख प्रकार है तथा दोहों के 21 भेदों में से एक है। गुजराती और राजस्थानी भाषा में इसे सोरठिया दूहा कहते हैं। यह मात्रिक छंद है। दोहे की मात्राओं को उलटा करने से सोरठा बनता है। सोरठे के प्रथम तथा तृतीय चरण में 11-11 और दूसरे तथा चौथे चरण में 13-13 मात्राएं होती हैं।
छोटो साणेर
यह भी राजस्थानी गीत का प्रमुख मात्रिक छंद है। इसमें भी चार चरण होेते हैं। पहले एवं तीसरे चरण में 16-16 तथा दूसरे एवं चौथे चरणों में 14-14 मात्राएं प्रयुक्त होती हैं।
त्रिबंकड़ो
यह भी मात्रिक छंद है। इसमें पहले चरण में 18 मात्राएं तथा शेष चरणों में 16-16 मात्राएं होती हैं। अंत में दो गुरु होते हैं तथा 16 मात्राओं पर यति आती है।
निसाणी
निसाणी संज्ञक गीतों में 11 भेद पाए गए हैं- शुद्ध निसाणी, गरवत निसाणी, गघ्घर निसाणी, निसाणी पैड़ी, निसाणी सिर खुली, निसाणी सोहणी, निसाणी रूपमाळा, निसाणी मारू, निसाणी झींगर, निसाणी वार तथा निसाणी सिंहचली। इनमें से शुद्ध निसाणी का अधिक प्रचलन रहा है। यह चतुर-चरणीय मात्रिक छंह है। इसके प्रत्येक चरण में 23 मात्राएं होती हैं। 13 और 10 पर यति होती है। प्रत्येक चरण में तुकांत तथा दो गुरु होते हैं।
कवित्त
हिन्दी छप्पय के समान राजस्थानी कवित्त भी षट्पदीय छंद है। इसके तीन भेद हैं- कवित्त, शुध कवित्त तथा दोढौ कवित्त। कवित्त के पहले चार चरण रोला के होते हैं तथा अंत में दोहा होता है। शुध कवित्त में प्रथम चार चरण रोला के तथा अंतिम दो चरण उल्लाला के होते हैं। दोढौ कवित्त में आठ चरण होते हैं, पहले छः चरण रोला के तथा अंतिम दो चरण उल्लाला के।
सुपंखरो
यह एक वर्णिक छंद है। इस छंद के विषम चरणों में 16 वर्ण और सम पदों में 14 वर्ण होते हैं। इस प्रकार प्रत्येक दोहले में 60 वर्ण होते हैं किंतु इसके प्रथम दोहले के प्रथम चरण में 19 वर्ण हाते हैं।
वैणसगाई
वैणसगाई, राजस्थानी पद्य का प्रमुख अलंकार है। कुछ विद्वान इसे भी छंद मान लेते हैं। राजस्थानी काव्य में अलंकारों का वैशिष्ठ्य देखने को मिलता है। वैणसगाई का अर्थ होता है- वर्णों का सम्बन्ध। यह मूलतः डिंगल का अलंकार है। रीति ग्रंथों में इसकी बड़ी महिमा गाई गई है। जिस स्थान पर वैणसगाई संगठित हो जाती है, वहां अशुभ गण, दग्धाक्षर इत्यिादि दोष नहीं रहते।
कविता के किसी चरण के प्रथम शब्द का प्रथम अक्षर उसी चरण के अंतिम शब्द के किसी अक्षर से मेल खाता है तो उसे वैणसागाई अलंकार माना जाता है। वैणसगाई के महत्व को प्रतिपादित करते हुए लाक्षणिक ग्रंथ ‘रघुनाथ रूपक गीतां रो’ में कवि मंछाराम ने लिखा है-
आवे इण भाषा अमल, वैणसगाई वेश।
दगध अगण वद दुगण रो, लागे नह लवलेस।।
खून कियां जांणै खलक, हाड़ वैर जो होय।
वणै सगाई बयण जो, कल्मस रहे न कोय।।
अर्थात् किसी व्यक्ति की हत्या हो जाने पर दो परिवारों में जो वैर पड़ जाता है, वह वैण सगाई अथवा विवाह के दस्तूर से दूर कर दिया जाता है। इसी प्रकार काव्य में यदि कोई दोष अथवा दग्धाक्षर होता है तो वह वैणसगाई अलंकार के प्रयोग से दूर हो जाता है। सूर्यमल्ल मीसण ने वीर सतसई में लिखा है-
वयण सगाई वाळियां, पेखीजै रस पोस।
वीर हुतासण बोल में दीसै हेक न दोस।।
वैणसगाई अलंकार के सात भेद हैं जिनमें से प्रमुख तीन हैं- आदि मेल, मध्य मेल एवं अंत मेल। इन्हें अधिक सम एवं न्यून भी कहा जाता है। उदाहरणार्थ-
जिण वन भूल न जावता, गैंद गवय गिड़राय।
तिण वन जंबक ताखड़ा, ऊधम मंडै आय।
जब किसी छंद के एक चरण के प्रथम शब्द का प्रथम अक्षर उसी चरण के अंतिम शब्द के प्रथम अक्षर से मिलता हो तो वहां आदि मेल वैणसगाई होती है तो उसे आदि मेल, उत्तम मेल, प्रथम मेल एवं अधिक मेल कहते हैं।
जब किसी छंद के एक चरण के प्रथम शब्द का प्रथम अक्षर उसी चरण के अंतिम शब्द के मध्य अक्षर से मेल खाता है तो उसे मध्य मेल वैण सगाई अथवा सम वैणसगाई कहा जाता है। उदाहरणार्थ-
नाम लिया था मानवी, सरकै कलुष विसाल।
मह जैसे मेटे तिमर, रसम परस किरमाल।।
जब किसी छंद के एक चरण के प्रथम शब्द का प्रथम अक्षर उसी चरण के अंतिम शब्द के अंतिम अक्षर से मेल खाता है तो उसे अंत मेल अथवा न्यून वैणसगाई कहा जाता है। उदाहरणार्थ-
मर जिकै संसार में, लखजै जीव विसाळ।
रात दिवस रघुनाथ रा, लेवै नाम रसाळ।।
रासो
जिस काव्य में युद्ध और नायक की वीरता का वर्णन हो उसे रासो कहा जाता है। पृथ्वीराज रासो, बीसलदेव रासो, विजयपाल रासो तथा खुमाण रासो राजस्थानी के प्रसिद्ध रासो ग्रंथ हैं।
वेलि
‘वेलि’ शब्द का निर्माण, संस्कृत संज्ञा ‘वल्लि’ से अपभ्रंश होकर हुआ है। संस्कृत, प्राकृत एवं हिन्दी भाषाओं में वल्लि का अर्थ ‘बेल’ होता है। डिंगल में भी ‘वेलि’ को इसी अर्थ में ग्रहण किया गया है। ‘वेलि’ का आशय लम्बी कविता से लिया जा सकता है। वेलि साहित्य 15वीं से 19वीं शती में रचा गया।
वेलि ग्रंथों में राजाओं एवं सामंतों का इतिहास, वीरता, स्वामिभक्ति, विद्वता, उदारता, प्रेम भावना, नायक की वंशावली आदि का उल्लेख होता है। इनकी भाषा डिंगल है। धार्मिक एवं पौराणिक ग्रंथों की कथाओं पर भी वेलि साहित्य रचा गया है। वेलि रचनाओं को मुख्यतः तीन भेदों में विभक्त किया जा सकता है- जैन वेलि रचनाएं, भक्ति रस वेलि रचनाएं एवं वीर रस वेलि रचनाएं। बीकानेर के राजकुमार पृथ्वीराज राठौड़ द्वारा 16वीं शताब्दी ईस्वी में रचित वेलि क्रिसन रुक्मणि इस परम्परा की सर्वप्रमुख रचना है।
महाकाव्य
जिस प्रबंध काव्य में आठ से अधिक सर्ग हों उसे महाकाव्य कहा जाता है। इसके अन्य लक्षणों में धीरोदात्त नायक, शृंगार रस, शांत रस अथवा वीर रस में से किसी एक रस की प्रधानता, प्रकृति चित्रण, देश, काल आदि का यथास्थान वर्णन सम्मिलित किया जाता है। महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग में अलग-अलग छंद होते हैं। प्रत्येक सर्ग का अंतिम छंद नये सर्ग का छंद होता है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता