यह 2 फरवरी 1760 की एक ठण्डी प्रातः थी। अभी सूर्य देवता का रथ ठीक से आकाश में आया भी नहीं था कि जोधपुर में यह समाचार आग की तरह फैल गया कि महाराजा के गुरु साधु आत्माराम का गोलोकवास हो गया। जब महाराजा के विरोधी सरदारों को यह समाचार मिला तो वे बड़े प्रसन्न हुए। साधु आत्माराम को वे अपनी राह का सबसे बड़ा रोड़ा समझते थे जो आज अनायास ही उनकी राह से हट गया था।
महाराजा ने साधु के अंतिम संस्कार के लिये अपने समस्त सामंतों को गढ़ पर बुलाया। आसोप ठाकुर छतरसिंह कूंपावत, रास ठाकुर केसरीसिंह उदावत, नीम्बाज ठाकुर दौलतसिंह उदावत आदि सारे सरदार एकत्रित होकर प्रसन्न मन से गढ़ पर पहुँचे। पोकरण ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत भी उनके साथ हो लिया। गढ़ में पहुँचकर ये सामंत लोक दिखावे के लिये साधु की बैकुण्ठी यात्रा में सम्मिलित हुए।
धायभाई जगन्नाथ का मन सारे उपद्रवी सरदारों को एक साथ देखकर क्रोध से भर गया। उनके दर्प से मुस्कारते चेहरे जगन्नाथ के हृदय में शूल की तरह गढ़ गये। जब भी जगन्नाथ की दृष्टि किसी ठाकुर से मिलती, वह ठाकुर हँसकर अपनी मूँछों पर ताव देने लगता, मानो पूछ रहा हो कि तुम धायपुत्र हो धायपुत्र ही रहो, हम ठाकुरों की बराबरी मत करो! उनकी इस अपमानजनक चेष्टाओं से जगन्नाथ का मन प्रतिशोध की अग्नि से सुलग उठा। उसने मन ही मन एक योजना तैयार की। उसने एकांत पाकर मरुधरपति को सलाह दी कि यह अच्छा अवसर है, इन उपद्रवियों को गढ़ में बंदी बना लिया जाये। मरुधरपति, जगन्नाथ की बात सुनकर हैरान रह गया! गुरु की असामयिक मृत्यु के कारण वह पहले ही दुःखी था, अभी उसकी अंत्येष्टि भी नहीं हुई थी, ऐसे में मरुधरानाथ का इतना साहस नहीं हुआ कि वह अपने सरदारों को बंदी बनाकर दुःखों का एक नया मोर्चा खोल ले। उसने मना कर दिया।
इस पर जगन्नाथ ने महाराजा के सलाहकार गोवर्धन खीची के निकट जाकर उससे अनुरोध किया कि वह विरोधी सरदारों को बंदी बनाने के लिये मरुधरानाथ से सहमति प्राप्त करे। गोवर्धन खीची एक बुद्धिमान व्यक्ति था, वह कभी कच्ची गोटियाँ नहीं खेलता था। महाराजा को उसके वचनों पर पूरा भरोसा था। उसने सदा ही चाहा था कि महाराजा और ठाकुरों के बीच मधुर सम्बन्ध रहें किंतु वह देख रहा था कि पोकरण ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत के जीवित रहते यह संभव नहीं था। उसे यह भी लगता था कि एक न एक दिन देवीसिंह, मरुधरपति से दगा करेगा। इसलिये इससे पहले कि देवीसिंह मरुधरपति को बंदी बनाये, क्यों न देवीसिंह को ही बंदी बनाकर उससे छुटकारा पा लिया जाये!
सौभाग्य से आज अच्छा अवसर हाथ लगा हुआ था। एक ही प्रयास में सारे उपद्रवी ठाकुर फड़फड़ाती हुई चिड़िया की तरह फंदे में आ फसेंगे। इसलिये गोवर्धन ने मरुधरपति को समझाया कि उपद्रवी ठाकुरों को बंदी बनाने की सहमति प्रदान करे। इस समय तक मरुधरपति भी परिस्थितियों पर अच्छी तरह विचार कर चुका था। इसलिये उसने गोवर्धन को ऐसा करने की सहमति दे दी। गोवर्धन ने यह दुष्कर कार्य धायभाई जगन्नाथ को ही सौंपा।
समय बहुत कम था। जो कुछ भी करना था, तत्काल करना था। यदि कार्य में असफलता हाथ लगी तो मरुधरानाथ के प्राणों पर संकट आ सकता था। जगन्नाथ ने ठाकुरों के निकट जाकर स्थिति का अवलोकन किया। इस समय सारे सरदार अपने आदमियों सहित इमरती पोल और लोहा पोल के बीच खड़े होकर वार्त्तालाप कर रहे थे। वहाँ शोक का वातावरण न था। सारे ठाकुर हँसी-ठट्ठा करने में व्यस्त थे। जगन्नाथ का मस्तिष्क तेजी से काम करने लगा। उसने सरदारों को बंदी बनाने की एक योजना तैयार की और अपने आदमियों से कहा कि महारानी साहिबा जनानी ड्यौढ़ी की औरतों के साथ महात्माजी के अंतिम दर्शनों के लिये आ रही हैं इसलिये सामंतों तथा उनके साथ आये सारे आदमियों को इमरती पोल से बाहर निकालकर दरवाजा भीतर से बंद कर लो। जब सारे आदमी इमरती पोल से बाहर निकल गये तो जगन्नाथ ने अपनी वेतनभोगी सेना के सिपाहियों को जनानी ड्यौढ़ी और घनश्यामजी के मंदिर के नीचे बनी हुई कोटड़ियों में शस्त्र देकर खड़ा कर दिया। इसके बाद उसने लोहा पोल को भी बंद करवा दिया। सिपाहियों को अच्छी तरह समझा दिया गया कि करना क्या है!
इतनी तैयारियाँ करने के बाद जगन्नाथ ने ड्योढ़ीदार गोयन्ददास के हाथों उपद्रवी सरदारों को संदेश भिजवाया कि दरबार को साधु आत्माराम के निधन पर अत्यंत शोक हुआ है इसलिये आप सब सरदार, दरबार बापजी को सांत्वना देने के लिये शृंगार चौकी पधारें। महाराज वहीं आप सबकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।
यह संदेश पाकर देवीसिंह चाम्पावत, छत्रसिंह कूंपावत, केसरीसिंह उदावत, रघुनाथसिंह आदि सरदारों ने महाराज से मिलने के लिये गढ़ के भीतर प्रवेश किया। इमरती पोल से कुछ आगे चलते ही लोहापोल को बंद देखकर देवीसिंह चाम्पावत का माथा ठनका। उसने अपने साथियों का ध्यान इस ओर आकृष्ट किया-‘ठाकरां! लोहापोल क्यों बंद है?’
-‘यह तो नाम की ही लोहापोल है। इसमें एक धक्का सहने की तक की शक्ति नहीं। इसलिये बंद हो या खुली, इससे हमें क्या अंतर पड़ता है।’ केसरीसिंह उदावत ने बात को हँसी में टाल दिया।
उसके इस उत्तर पर देवीसिंह को संतोष नहीं हुआ। उसने अपने साथियों को पुनः संकेत किया-‘आज का दिन तो बहुत भयावना प्रतीत हो रहा है।’
-‘यह सब आपके मन की मिथ्या आशंका है ठाकरां, हम सब साथ में हैं तो फिर किसी भी बात का क्या भय?’ केसरीसिंह ने ही पुनः उत्तर दिया। इस पर देवीसिंह भी चुप लगा गया किंतु उसके मन में संदेह का काँटा गढ़ गया था। इसलिये वह सतर्क हो गया।
जैसे ही ये सरदार बातें करते हुए नगाड़खाने से थोड़े ही आगे बढ़े कि पीछे से इमरती पोल का द्वार फिर से बंद हो गया और कोटड़ियों में छिपे हुए सशस्त्र सैनिक एक साथ सरदारों पर टूट पडे़। समय का फेर इसी को कहते हैं। जिन सरदारों के भय से शत्रुदल तो क्या, स्वयं मरुधर नरेश भी आशंकित रहते थे, वही सरदार आज चूहों की तरह इमरती पोल और लोहा पोल के बीच मूषकों की तरह फंस गये और उन्हें तुच्छ सैनिकों ने तिनकों की तरह पकड़ कर उनकी भुजायें कस लीं।
जगन्नाथ के भड़ैत सैनिकों ने देवीसिंह चाम्पावत, छत्रसिंह कूंपावत और केसरीसिंह उदावत को धरती पर पटक कर उनके दोनों हाथ पीठ के पीछे रस्सियों से बांध दिये गये। सरदारों की पगड़ियां इधर-उधर बिखर गईं। उनके घुटने और कुहनियाँ छिल गये। देवीसिंह चाम्पावत धक्का लगने से सिर के बल गिरा था इसलिये उसके सिर से खून बहने लगा। उसे शीघ्र ही रस्सियों से बांध दिया गया।
भड़ैत सैनिकों में पुरबिया राजपूतों, ईरानियों, मुलतानियों, मकरानियों, अफगानियों, सिन्धियों, अरबियों और रूहेलों की संख्या अधिक थी। भयंकर देहयष्टि और कठोर मुखाकृति वाले ये परदेसी सैनिक राठौड़ सरदारों की बड़ी-बड़ी मूंछों से तनिक भी भय नहीं खाते थे। इसलिये उन्होंने बड़ी सरलता से अजेय राठौड़ सरदारों को अपनी रस्स्यिों में बांध लिया।
देवीसिंह समझ गया कि अब इन रस्सियों को तुड़ा पाना कठिन है। इसलिये वह चिल्लाकर बोला-‘जगन्नाथ! तूने किया सो ठीक। हमें कोई दुःख नहीं किंतु एक बात ध्यान रखना। यह मेेरे बाप दादों का गढ़ है। इस गढ़ में मुझे भड़ैत सैनिकों की गोली से मत मरवाना, किसी राजपूत की तलवार से मरवाना।’
-‘गढ़ की प्रतिष्ठा का ऐसा ही ध्यान था तो ऐसे कर्म ही क्यों किये जो आज तेरी यह दशा हुई?’ जगन्नाथ ने भी उसी तीव्रता से उत्तर दिया। आज से पहले इन दोनों में तू-तड़ाक की शब्दावली में वार्त्तालाप नहीं हुआ था किंतु जगन्नाथ जानता था कि देवीसिंह साम, दाम, दण्ड, भेद, चारों विद्याओं में निपुण है। यदि इस समय सबके समक्ष उसकी बातों को नहीं काटा गया तो पासा उलटा ही पड़ सकता है।
ठाकुर केसरीसिंह उदावत का बेटा दौलतसिंह उदावत जो इन दिनों बल पूर्वक निम्बाज का ठाकुर बना बैठा था, इस समय इमरतीपोल के बाहर बैठा था। जब उसने अंदर हल्ला सुना तो उसने हाथ में नंगी तलवार लेकर इमरती पोल की खिड़की खटखटाई। जगन्नाथ ने भावसिंह को संकेत किया कि इसे भीतर ले लो। दौलतसिंह के भीतर आते ही भावसिंह ने उसे भी पकड़ कर रस्सियों से बंधवा दिया।
इसके बाद जगन्नाथ ने सरदारों को तो बंदीगृह के लिये रवाना किया और उनके साथ आये हुए सैनिकों को धमका कर गढ़ से नीचे उतार दिया। इन सिपाहियों ने ठाकुरों की हवेलियों में पहुँच कर सब समाचार कह सुनाये। इन समाचारों से भयभीत होकर समस्त ठाकुरों के सेवक और सगे सम्बन्धी पोकरण ठाकुर देवीसिंह चाम्पावत की हवेली में एकत्रित हुए और वहाँ से जालौरी द्वार से बाहर निकलकर घोड़ों और ऊँटों पर बैठकर पाली की तरफ भाग गये।
साधु आत्माराम की आत्मा अभी देवलोक पहुँचने के लिये मार्ग में ही विचरण कर रही होगी कि इधर धरती पर मरुधरानाथ की समस्याएं सिमटनी आरंभ हो गई थीं। मरुधरानाथ को जब यह समाचार मिला तो उसे लगा कि सचमुच ही गुरुदेव उसकी समस्याओं को अपने साथ बांधकर ले गये हैं।
मारवाड़ में उसी दिन से एक कहावत चल निकली- ”केहर देवो छत्रसी, दल्लो राजकुमार। मरते मोडे मारिया, चोटी वाला चार।” अर्थात् मरते हुए साधु ने केहरसिंह, देवीसिंह, छत्रसिंह तथा दौलतसिंह नामक चार प्रमुख सरदारों को मार डाला।