Saturday, February 1, 2025
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रूपनगर का राजकुमार (5)

अपने चाचा से निराश होकर रूपनगर का राजकुमार सरदारसिंह, जयपुर के कच्छवाहा राजा माधोसिंह के पास सहायता मांगने गया किंतु माधोसिंह ने यह कहकर उसकी कोई सहायता नहीं की कि यह राठौड़ों का आपसी मामला है, कच्छवाहे इसमें क्यों कूदें!

सत्रहवीं शती के आरंभ में अकबर के प्रोत्साहन पर मारवाड़ रियासत का एक छोटा सा टुकड़ा टूट कर अलग हो गया था और किशनगढ़ रियासत के नाम से जाना जाता था। यह रियासत थी तो कनिष्ठा अंगुली के बराबर छोटी सी किंतु इसके राठौड़ राजाओं की वीरता की बराबरी करने का साहस देश के अन्य किसी राज्य के राजा में न था। किशनगढ़ के पांचवे राठौड़ राजा रूपसिंह ने रूपनगर नामक कस्बा बसाया था जिसके कारण किशनगढ़ रियासत को रूपनगर रियासत भी कहते थे।

1748 ईस्वी में मुगल बादशाह मुहम्मदशाह की मृत्यु के समय किशनगढ़ के महाराजा राजसिंह का ज्येष्ठ पुत्र सावंतसिंह तथा पौत्र सरदारसिंह दिल्ली में थे। उन्हीं दिनों महाराजा राजसिंह का भी किशनगढ़ में निधन हो गया किंतु दिल्ली में तख्तापलट हो जाने के कारण, सावंतसिंह और सरदारसिंह किशनगढ़ नहीं आ सके।

इसलिये सावंतसिंह का दिल्ली में ही राज्याभिषेक किया गया और उसे किशनगढ़ का महाराजा घोषित किया गया। इधर सावंतसिंह के छोटे भाई बहादुरसिंह ने राजधानी को खाली देखकर किशनगढ़ राज्य पर अधिकार कर लिया। इस पर सावंतसिंह अपनी पासवान बनीठनी के साथ वृंदावन जाकर बैठ गया और हरिभजन करने लगा।

महाराजा सावंतसिंह के पुत्र सरदारसिंह को अपने पिता की यह बात पसंद नहीं आई। उसने अपने पिता से अनुरोध किया – ‘इस तरह राज्य त्यागकर वृंदावन में बैठ जाना क्षत्रियोचित कर्म नहीं है। आप किशनगढ़ का उद्धार करने का प्रयास कीजिये।’

महाराजा सावंतसिंह पर अपने पुत्र के अनुरोध का कोई प्रभाव नहीं हुआ। उसने अपने पुत्र को राज्य से दूर रहने की सलाह देते हुए कहा- ‘धन, सम्पत्ति, राज्य सब कुछ मायाजाल है। क्यों इसमें उलझें? अब परमात्मा ने स्वयं ही राज्य छुड़ा दिया है तो सारा जंजाल त्यागकर वृंदावन में हरि भजन करना ही उचित है। तू भी यहीं मेरे पास बैठकर हरि भजन कर।’

रूपनगर का राजकुमार, पिता को तो कोई जवाब नहीं दे सका किंतु उसका हृदय राज्य के लिये विकल हो उठा। वह पिता को प्रणाम करके वृंदावन से चला आया और अपने पिता के खोये हुए राज्य को फिर से प्राप्त करने का प्रयास करने लगा। सबसे पहले वह अपने चाचा बहादुरसिंह के पास गया और उससे अनुरोध किया कि राजपूतों की परम्परा के अनुसार वह राज्य अपने बड़े भाई सावंतसिंह को सौंप दे।

जब बहादुरसिंह ने उसकी बात मानने से मना कर दिया तो सावंतसिंह ने कहा कि राज्य को दो हिस्से में बांट दिया जाये। बहादुरसिंह किशनगढ़ का राजा बना रहे और सावंतसिंह को रूपनगर की तरफ का आधा राज्य दे दे। बहादुरसिंह ने अपने भतीजे सरदारसिंह का यह अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया।

अपने चाचा से निराश होकर रूपनगर का राजकुमार सरदारसिंह, कच्छवाहा राजा माधोसिंह के पास सहायता मांगने गया किंतु माधोसिंह ने यह कहकर उसकी कोई सहायता नहीं की कि यह राठौड़ों का आपसी मामला है, कच्छवाहे इसमें क्यों कूदें!

रूपनगर का राजकुमार सरदारसिंह राठौड़ों के सबसे बड़े राजा मरुधरानाथ विजयसिंह के पास आया। मरुधरानाथ ने भी उसे टके सा जवाब देकर लौटा दिया कि हमारे लिये तो सावंतसिंह और बहादुरसिंह में कोई अंतर नहीं है। दोनों हमारे भाई हैं।

जब राजपूत राजाओं ने सहायता करने से इन्कार कर दिया तो सरदारसिंह ने मराठा सरदारों से सम्पर्क किया। पहले वह होलकर के पास गया। होलकर ने इन्कार कर दिया। रूपनगर का राजकुमार हर ओर से निराश होता जा रहा था। इस कारण उसने सिन्धिया से सहायता की याचना करने का विचार त्याग दिया किंतु जब उसने सुना कि सिंधिया, मारवाड़ के अपदस्थ राजा रामसिंह को उसका राज्य वापस दिलवाने के उद्देश्य से विजयसिंह पर आक्रमण करने आ रहा है तो वह भी सिंधिया की सेवा में उपस्थित हो गया।

सिंधिया ने सोचा कि यह तो एक पंथ दो काज वाली बात हो जायेगी। यदि राजपूताने में दो राठौड़ राज्य उसकी कृपा पर आश्रित हो जायेंगे तो उत्तरी भारत में उसकी स्थिति और मजबूत हो जायेगी, इसलिये उसने सरदारसिंह को भी अपने साथ ले लिया।

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