Monday, February 3, 2025
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सवाई जयसिंह का सिंहासनारोहण (3)

जिस समय सवाई जयसिंह का सिंहासनारोहण हुआ, उस समय देश की परिस्थितियां अत्यंत विचित्र थीं। दिल्ली में अब भी मुगल शासन कर रहे थे किंतु उनकी सल्तनत खण्ड-खण्ड होकर बिखर रही थी। मराठे, जाट, राजपूत, गोण्ड आदि विभिन्न शक्तियां एक दूसरे के खून की प्यासी थीं।

जन्म एवं प्रारम्भिक जीवन

सवाई राजा जयसिंह (द्वितीय) का जन्म 3 नवम्बर 1688 को आमेर के महलों में राजा बिशनसिंह की राठौड़ रानी इन्द्रकुंवरी के गर्भ से हुआ था। इन्द्रकुंवरी खैरवा के राठौड़ सामंत काशीसिंह जोधा की पुत्री थी।  उस समय राजा बिशनसिंह की आयु केवल 16 वर्ष थी अतः स्वाभाविक है कि राजा जयसिंह की माता की आयु और भी कम रही होगी।

इस बालक का मूल नाम विजयसिंह था और उसके छोटे भाई का नाम जयसिंह था। कहा जाता है कि जब विजयसिंह आठ वर्ष का था, उसे औरंगजेब से मिलवाया गया। औरंगजेब विजयसिंह से इतना प्रभावित हुआ कि उसने बालक का नाम उसके परदादा के नाम पर जयसिंह रख दिया। साथ ही उसे सवाई की उपाधि भी दी क्योंकि औरंगजेब को लगा कि इस बालक में मिर्जा राजा जयसिंह की तुलना में वीरता और वाक्पटुता की मात्रा सवाई अर्थात् सवा गुनी थी। इस घटना के बाद बड़ा भाई जयसिंह के नाम से और छोटा भाई विजयसिंह के नाम से पुकारा जाने लगा।

औरंगजेब ने बालक जयसिंह को तत्काल शाही सेवा में भेजने के निर्देश दिये। महाराजा बिशनसिंह औरंगजेब के इस आदेश से विचलित हो गया। न तो वह शाही आदेश टाल सकता था और न बालक जयसिंह को मोर्चे पर भेज सकता था। इसलिये वह कुछ समय तक बहाने बनाता रहा परन्तु अन्त में 1698 ई. में विवश होकर बिशनसिंह को अपने दस वर्षीय पुत्र सवाई जयसिंह को औरंगजेब की सेवा में दक्षिण के मोर्चे पर भेजना पड़ा। कुछ माह बाद महाराजा बिशनसिंह ने बालक जयसिंह का विवाह करने के बहाने से उसे पुनः आमेर बुलवा लिया।

राज्यारोहण

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राजकुमार जयसिंह के आमेर आने के कुछ दिनों बाद ही उसके पिता महाराजा बिशनसिंह की अफगानिस्तान के मोर्चे पर मृत्यु हो गई। उस समय बालक जयसिंह मात्र 12 वर्ष का था। 25 जनवरी 1700 को जयसिंह को आमेर राज्य का राजा बनाया गया।

भारत की राजनैतिक परिस्थितियाँ

जिस समय उत्तर भारत की विशाल रियासतों में गिनी जाने वाली आमेर रियासत की गद्दी पर बारह वर्ष का बालक जयसिंह विराजमान हुआ, उस समय भारत की राजनैतिक परिस्थितियां अत्यंत विषम एवं विषाद पूर्ण थीं। भारत की केन्द्रीय सत्ता अब भी मुगलों के चंगुल में थीं किंतु औरंगजेब की कट्टरता पूर्ण कार्यवाहियों ने उत्तर एवं मध्य भारत के लगभग समस्त हिन्दू शासकों को मुगलों से विरक्त कर दिया था।

जोधपुर का शासक अजीतसिंह अपने राज्य से वंचित होकर जंगलों में भटक रहा था। किशनगढ़ की राजकुमारी का डोला मंगवाकर औरंगजेब ने मेवाड़ के राणा राजसिंह को अपना सबसे कठिन शत्रु बना लिया था। बीकानेर का महाराजा कर्णसिंह अपमानजनक परिस्थितियों में औरंगजेब द्वारा मरवा दिया गया था। औरंगजेब का अपना पुत्र अकबर पिता से विद्रोह कर उसका शत्रु हो चुका था। दक्षिण में मराठे मुगल साम्राज्य की ईंटें हिला रहे थे।

औरंगजेब ने गोलकुण्डा और बीजापुर जैसे दूरस्थ राज्यों को नष्ट कर देने में केवल इसलिये अपनी ऊर्जा खपा दी थी कि वहाँ के शासक शिया मुसलमान थे। 1682 ई. से स्वयं औरंगजेब दक्षिण भारत में ही मोर्चा जमाये हुए था। इस कारण उत्तर भारत में जाटों ने फिर से सिर उठाना आरम्भ कर दिया था।

आमेर की डांवाडोल स्थिति

यद्यपि जयसिंह के राज्यगद्दी पर बैठने से पहले, कच्छवाहा राज्यवंश की आठ पीढ़ियां- भारमल, भगवन्तदास, मानसिंह, भावसिंह, जयसिंह, रामसिंह, किशनसिंह (यह राजगद्दी पर नहीं बैठा था।) तथा बिशनसिंह ने मुगलों की अनवरत सेवा की थी तथा वे मुगल सल्तनत के सबसे मजबूत एवं विश्वसनीय स्तम्भ बने हुए थे किंतु छत्रपति शिवाजी के आगरा से निकल भाग जाने के बाद से औरंगजेब ने कच्छवाहों पर विश्वास करना बंद कर दिया था।

इसलिये अब आमेर राज्य की वैसी स्थिति नहीं रही थी जैसी कि राजा भारमल से लेकर राजा मानसिंह के समय तक रही थी। औरंगजेब ने आमेर नरेश रामसिंह को उसके पूरे शासनकाल में भयानक युद्धों में उलझाये रखा तथा उसका मनसब भी बहुत नीचा रखा। कच्छवाहा राजाओं ने मुगलों के राज्य को बनाये रखने के लिये अपने लाखों वीर सैनिक खो दिये थे तथा करोड़ों रुपये गंवा दिये थे इतने पर भी वे जहांगीर, शाहजहां और औरंगजेब के लिये अधिक विश्वसनीय नहीं रहे।

मिर्जा राजा जयसिंह (प्रथम) तथा कुंअर किशनसिंह रहस्यमय परिस्थितियों में मृत्यु को प्राप्त हुए थे। इसलिये आमेर राज्य में मुगलों को अविश्वास की दृष्टि से देखा जाता था। कच्छवाहा राजाओं की सात पीढ़ियों के लगातार आमेर राज्य से अनुपस्थित रहने के कारण आमेर के सामंत निरंकुश हो गये थे। इस कारण राज्य की सैनिक तथा शासन व्यवस्था सुचारू नहीं चल रही थी तथा प्रजा-हित का कोई काम नहीं होता था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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