Thursday, November 21, 2024
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व्यक्तित्व एवं मूल्यांकन

व्यक्तित्व

केसरीसिंह बारहठ का कद ठिगना था। उनका व्यक्तित्व भव्य, सरल और प्रभावी था। सफेद खादी की धोती, कुर्ता और साफा उनका प्रमुख पहनावा था। वे हाथ में छोटी छड़ी रखते थे। उनकी बातों से निर्भयता, गरिमा, विवेक, शालीनता और देश प्रेम टपकते थे। केसरीसिंह बारहठ के व्यक्तित्व की चर्चा करते हुए रामनारायण चौधरी ने लिखा है- ‘केसरीसिंहजी की जबान और कलम में मिठास और संतुलन अधिक था। उनके व्यवहार में अपने पन, धीरज और गम्भीरता का सामंजस्य था। उनकी कोई चेष्टा शान के खिलाफ न होती थी। वे देश के जितने उत्कट प्रेमी और ब्रिटिश शासन के जितने कट्टर शत्रु थे उतने आजकल के सुधारवाद के हिमायती और मध्यकालीन राज्य व्यवस्था के विरोधी नहीं थे लेकिन उनका त्याग अनुपम था। उनका सारा परिवार एक तरह से स्वतंत्रता देवी पर पतंगों की तरह कुरबान हो गया था। ……. कीर्ति के कामों से दूर रहते थे। भाषण नहीं दिया करते थे। वर्धा में उनका राजाओं का सा स्वागत हुआ था।

लक्ष्मीनारायण नंदवाना ने केसरीसिंह के व्यक्तित्व के बारे में लिखा है- ‘वे धर्म प्रचार, समाज सुधार, शिक्षा-प्रसार और जातीय संगठन के माध्यम से राष्ट्रीय चेतना एवं देश भक्ति की भावनाओं के प्रचार-प्रसार के लिये प्रयत्नरत थे। उन्होंने आंग्ल साम्राज्यवाद का जीवन भर प्रखर विरोध किया और अपना जीवन राष्ट्र को समर्पित किया। बारहठजी बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न थे। वे उत्कृष्ट कोटि के बुद्धिजीवी, विचारक, लेखक और कवि थे। साथ ही अद्भुत वक्ता, प्रचारक और संगठक थे। वे बहुभाषाविद्, अनेक विषयों के ज्ञाता और प्रकाण्ड पण्डित थे। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, डिंगल, पिंगल, ब्रज, बंगला, मराठी, गुजराती, हिन्दी आदि भाषाओं के विद्वान तथा भूगोल, ज्योतिष, संगीत, धर्म, दर्शन, इतिहास के ज्ञाता थे। बारहठजी की शैली मार्मिक, प्रभावोत्पादक, सरल व प्रांजल थी। उनके लेखों में भावगर्भीय विचारों की परिपक्वता मिलती है। ठाकुर साहब के प्रत्येक शब्द में विदेशी सत्ता के प्रति क्रांति की हुंकार है। सरल, सुबोध व सशक्त वीररस की अधिकांश काव्य रचनाएं स्वधर्म व राष्ट्रीय भावना की परिचायक हैं।’

जापान से प्रभावित

ठाकुर केसरीसिंह जापान जैसे छोटे एशियाई देश द्वारा ज्ञान विज्ञान में की गई उन्नति से बड़े प्रभावित थे जिसके कारण जापान ने रूस जैसे बड़े देश को पराजित कर दिया था। जापान की विजय ने भारतीय क्रांतिकारियों के हौंसले बढ़ा दिये थे। ई.1907-08 में उन्होंने राजपूताना के प्रतिभाशाली युवकों को सस्ती तकनीकी शिक्षा प्राप्त करने के लिये जापान भेजने की योजना बनाई। उस सदी में अकेला जापान ही ऐसा एशियाई देश था जो तकनीक एवं राष्ट्रीय भावना में यूरोपीय देशों को टक्कर दे सकता था। अपनी योजना के प्रारूप में उन्होंने बड़े ही मार्मिक शब्दों में लिखा- जापान ही वर्तमान संसार के सुधरे हुए उन्नत देशों में हमारे लिये आदरणीय है। हमारे साथ वह देश में देश मिलाकर (एशियाटिक बनकर) रंग में रंग मिलाकर, दिल में दिल मिलाकर, अभेद्य रूप से, उदार भाव से, हमारे बुद्ध भगवान के धर्मदान की प्रत्युपकार बुद्धि से, मानव मात्र की हित कामना-जन्य निःस्वार्थ प्रेमवृत्ति से सब प्राकर की उच्चतर महत्वपूर्ण शिक्षा सस्ती से सस्ती देने के लिये सम्मान पूर्वक आह्वान करता है।

लार्ड कर्जन पर व्यंग्य

केसरीसिंह ने कोटा महाराव के माध्यम से लार्ड कर्जन को कुसुमांजलि शीर्षक से पद्यबद्ध पुस्तिका भेंट की। प्रत्यक्ष में देखने पर यह पुस्तिका ब्रिटिश सरकार की प्रशंसा जान पड़ती थी किंतु गूढ़ार्थ में उसकी निन्दा थी। लार्ड कर्जन ने जब यह पुस्तिका संस्कृत के किसी विद्वान को दिखाई तो उसने वास्तविकता प्रकट कर दी।

राजपूताना रियासतों में प्रभाव एवं ख्याति

राजपूताना की रियासतों में केसरीसिंह को संस्कृत के उद्भट विद्वान और शास्त्रों के ज्ञाता के रूप में सर्वत्र ख्याति प्राप्त हुई। राजनीति, क्षात्र धर्म, समाज सुधार, शिक्षा प्रसार आदि विषयों के सम्बन्ध में उनके लेख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगे थे। उनकी काव्य प्रतिभा भी प्रस्फुटित हो चुकी थी। राजस्थानी तथा ब्रजभाषा में वे सुंदर काव्य रचना करने लगे। उनकी कविताओं में भी अधिकांश विषय जाति, समाज और राष्ट्र का उद्धार के सम्बन्ध में होते थे। उनकी विद्वता और लेखन शक्ति के कारण ही तत्कालीन राजपूताना के राजपूत व चारण वर्ग में उनका बड़ा आदर था। इस प्रकार केसरीसिंह, बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में राजपूताने में एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में उभर चुके थे। राजपूताने के अधिकांश राजा-महाराजा, जागीरदार एवं क्षत्रियों से लेकर जनसामान्य तक उनको सम्मान की दृष्टि से देखते थे।

केसरीसिंह राजस्थान में नवयुग के प्रथम कवि थे। उनके प्रत्येक शब्द में देशभक्ति का सम्पुट था, प्रत्येक चरण में पूर्व युग की श्रुति थी और प्रत्येक कविता अग्निस्फुलिंग होती थी। कवि के अतिरिक्त वे उच्चकोटि के गद्य-लेखक, पत्रकार एवं समीक्षक थे। उनमें कवि और कर्मयोगी का अभूतपूर्व मिश्रण था। इसी कारण डॉ. कन्हैयालाल राजपुरोहित ने लिखा है- ‘अपनी बहुविज्ञता व प्रभावशाली लेखनी के कारण बीसवीं सदी के प्रथम दशक में वे राजस्थान में एक प्रभावशाली व्यक्तित्व के रूप में उभर चुके थे।’ प्रो. चिंतामणि शुक्ल एवम् डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल ने लिखा है- ‘श्री केसरीसिंह का कार्य क्षेत्र राजस्थान के रईसों और जागीरदारों में विशेष रूप से था। कोटा, उदयपुर, जोधपुर और बीकानेर के राजा उनसे बहुत प्रभावित थे।’ डॉ. कांति वर्मा ने लिखा है- ‘राजस्थान और मध्य प्रदेश के राज दरबारों में केसरीसिंह बड़े सम्मान की दृष्टि से देखे जाते थे। कई राज्यों के नरेशों ने उन्हें पुरस्कार में जागीरें दी थीं।

सुप्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी एवं कांग्रेसी नेता रामनारायण चौधरी ने लिखा है- ‘बारहठ केसरीसिंहजी का कार्यक्षेत्र राजपूताने के रईसों और जागीरदारों में था। कोटा, जयपुर, जोधपुर और बीकानेर में उनका काफी प्रभाव था चारणों में तो उन्होंने कई क्रांतिकारी तैयार किये थे। कुछ राजा और उमराव भी सहानुभूति रखते थे। एक दो आदमियों के दिमाग में राठौर साम्राज्य स्थापित करने की कल्पनाएं भी घूमने लगीं। …….. वे डिंगल भाषा के बढ़िया कवि थे। अपनी इसी काव्य शक्ति के द्वारा उन्होंने सन् 1911 के दिल्ली दरबार में महाराणा फ़तहसिंहजी को हाजिर रहने से विमुख कर मेवाड़ की शान को बचाया था। हिन्दी में गंभीर लेखनशैली के प्रवर्तकों में से थे।’

स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् सम्मान

आजादी के बाद शाहपुरा में गोकुललाल असावा के नेतृत्व में जब अंतरिम सरकार बनी तब प्रधानमंत्री गोकुललाल असावा ने सबसे पहले बारहठ परिवार के शहीदों को श्रद्धा के फूल अर्पित किये। वीरवर ठा. केसरीसिंह की अचल सम्पत्ति जो राज्य सरकार द्वारा जब्त कर ली गई थी, वापस उनके वंशज को सार्वजनिक सभा में स्वागत करके लौटाई गई। स्वतंत्रता की रजत जयंती के अवसर पर ठा. केसरीसिंह बारहठ स्मारक समिति द्वारा जन्म शताब्दी समारोह मनाया गया। इस अवसर पर राजस्थान के मुख्यमंत्री द्वारा बरहठ परिवार के स्मारक का शिलान्यास किया गया। मुख्यमंत्री ने राज्य सरकार की ओर से त्रिमूर्ति स्मारक के लिये 5 हजार रुपये प्रदान करने और हवेली जो बेच दी गई थी, उसका अधिग्रहण किया जाकर स्मारक बनाने की घोषणा की।

राजपूताने का मैक्सविनी

जिन दिनों केसरी वर्धा में ही रह रहे थे, उन दिनों राजस्थान केसरी के दीपावली अंक में ठाकुर केसरीसिंह के क्रांतिकारी जीवन के सम्बन्ध में विशेष सामग्री प्रकाशित की गई। उनको राजपूताने का मेक्सविनी बताया गया।

क्रांति बनाम शांति

केसरीसिंह का मार्ग क्रांति का मार्ग था। वे जिस सामंती परिवेश में जन्मे, पले और बढ़े थे उसमें शक्ति की ही पूजा होती थी। इस कारण उन्हें क्रांति का मार्ग सरल और सहज लगता था किंतु जन सामान्य इस क्रांति मार्ग का साथ नहीं दे सका। सेठ- साहूकारों ने क्रांतिकारियों को धन और साधन उपलब्ध नहीं करवाये। राजाओं ने भी इस क्रांति मार्ग का सहयोग नहीं किया। यहाँ तक कि क्रांति को सशस्त्र सैनिकों का भी समर्थन प्राप्त नहीं हो सका। इसलिये प्रबल अंग्रेज शक्ति द्वारा क्रांति बड़ी सरलता से कुचल दी गई।

क्रांति के असफल हो जाने पर कांग्रेस का काम आगे बढ़ा। ई.1920 में महात्मा तिलक की मृत्यु के बाद गांधी पूरी तरह से कांग्रेस पर छा गये। केसरीसिंह के बहुत से साथी गांधी के साथ चले गये। केसरीसिंह भी उसी मार्ग पर चल पड़े और अपने साथियों के कहने पर वर्धा चले गये परन्तु अति शीघ्र केसरीसिंह का वर्धा से मोह भंग हो गया और वे फिर से कोटा चले आये। शेष जीवन यहीं व्यतीत किया। ई.1927 में पत्नी की मृत्यु से वे अकेले रह गये। इसके बाद उन्होने साहित्य की सेवा की। इसी कार्य को करते हुए ई.1941 में शरीर छूट गया।

राष्ट्रीय नेताओं से सम्पर्क

केसरीसिंह का जन्म, उनका लालन-पालन और उनकी शिक्षा-दीक्षा रियासती वातावरण में हुई थी किंतु वे रियासत की क्षुद्र सीमा में बंधकर रहने वाले नहीं थे। न वे रियासती शासन को अच्छा समझते थे। यही कारण था कि वे भी राष्ट्रीय नेताओं की भांति भारत को एक अविच्छन्न राष्ट्र के रूप में उभरते हुए देखना चाहते थे। इसी कारण उनका देश के समस्त बड़े नेताओं से सम्पर्क था। यह सम्पर्क आजीवन बना रहा। ई.1902 की कलकत्ता यात्रा के दौरान केसरीसिंह बारहठ की भेंट बाबू श्यामसुंदर दास, श्रीमती ऐनीबेसेंट तथा महर्षि अरविंद जैसे देशभक्तों से हुई। ई.1919 में जेल से मुक्त होने के बाद वे दीनबंधु चितरंजनदास के पास गये। वहाँ कुछ दिन ठहरे। लोकमान्य तिलक के देहांत की सूचना उन्हें तार द्वारा खापरडे ने भेजी थी। पुरुषोत्तम दास टण्डन से भी उनकी घनिष्ठ मित्रता थी। डॉ. भगवानदास जिन्हें भारत का प्रथम भारत रत्न दिया गया, माखनलाल चतुर्वेदी जिन्हें राष्ट्रकवि घोषित किया गया, गणेशशंकर विद्यार्थी आदि भी केसरीसिंह के मित्रों में से थे।

कविरत्न की उपाधि

केसरीसिंह की काव्य प्रतिभा को देखते हुए महाराजा दरभंगा ने, जो कि भारत धर्म महामण्डल के अध्यक्ष थे, केसरीसिंह को कविरत्न की उपाधि प्रदान की।

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