गुलाब की सुगंध मेहरानगढ़ में समाती ही चली गई थी। मरुधरपति एक क्षण के लिये भी उसे अपने से अलग न करता। एकांत होते ही उसके केशों के वलय बनाकर उन्हें सुलझाता। या फिर उसके गुलाबी अधरों पर दृष्टि गड़ाकर बैठ जाता। गुलाब भजन गाती तो वह सितार बजाता। मरुधरपति को चारों ओर गुलाब ही गुलाब दिखाई देती। गुलाब की संतुष्टि के लिये वह तरह-तरह के जतन करता किंतु गुलाब तो बिना कोई जतन किये ही संतुष्ट थी। उसके लिये तो इससे बड़ी कोई प्रसन्नता ही नहीं थी कि मरुधरपति आठों प्रहर उसके साथ लगा रहता। इस समय सामंतों का विद्रोह पूरी तरह शांत था और मराठे दक्खन में उलझे हुए थे। यही कारण था कि इन दिनों मेहरानगढ़ में सुख और शांति की गंगा बह रही थी।
समय पाकर गुलाब की कोख हरी हुई और गुलाब की तरह दिखने वाला छोटा सा सुकोमल फूल खिला। मरुधरपति ने उसका नाम तेजकरण रखा। माँ बनने के बाद गुलाब का लावण्य और भी बढ़ गया। धीरे-धीरे दस साल बीत गये। इधर बालक तेजकरण बड़ा होता चला गया और उधर महाराजा की कनपटियाँ श्वेत केशों से ढंकती चली गईं। अपनी इस अद्भुत पड़दायत के प्रति महाराजा के प्रेम की उष्मा भी हर दिन वैसी ही बनी रही जैसी उसे पहली बार देखने के दिन उत्पन्न हुई थी। यदि उस ऊष्मा में कुछ अंतर आया था तो केवल इतना कि वह ऊष्मा समय के साथ कुछ बढ़ ही गई थी।
जब गुलाबराय को जोधाणे के गढ़ में आये हुए दस साल हो गये तो महाराजा ने उसे पासवान की पदवी प्रदान की। अर्थात् अब गुलाब के लिये पर्दे के भीतर रहना अनिवार्य नहीं रह गया। अब वह हर समय महाराजा के पास रह सकती थी। बडारण गुलाबराय उपलब्धि के चरम शिखर पर थी। प्रारब्ध के प्रभाव से वह राणी तो नहीं बन सकती थी किंतु राजा की पासवान होकर वह राणियों से खुलकर प्रतिस्पर्धा कर सकती थी। इतना ही नहीं, सफलता के जिस उच्च शिखर पर अब वह आरूढ़ थी, राणियों और महाराणियों के लिये खुले तौर पर ईर्ष्या का विषय बन गई थी।
जब महाराजा ने गुलाब को पासवान बनाया तो उसने करबद्ध होकर मरुधरानाथ से विनती की- ‘महाराज! वृंदावन के कंुजों में विचरण करने वाले भगवान कृष्ण का भव्य मंदिर बनवाने की इच्छा है। यदि आपकी आज्ञा हो तो यह दासी इस इच्छा को पूरा करना चाहती है।’ महाराजा ने न केवल अपनी पासवान के प्रस्ताव का स्वागत किया अपितु स्वयं भी उसी दिन से गुलाब की इच्छापूर्ति करने में जुट गया। गुलाब की हर इच्छा को वह उसका आदेश समझकर स्वीकार करता था। यही कारण था कि कुछ ही दिनों में जोधपुर में कुंजबिहारीजी का भव्य मंदिर दिखाई देने लगा। उसने गुलाब के कहने पर चौपासनी गाँव में एक महल भी बनवाया जहाँ सिहाड़ पधारने से पूर्व कुछ दिनों के लिये श्रीनाथजी विराजे थे।