मोहनदास गांधी और केसरीसिंह
पांच साल के कारावास से मुक्त होकर केसरीसिंह जब अपनी कर्मभूमि कोटा में दुबारा पहुंचे तो उन्होंने पाया कि देश का सारा वातावरण बदल चुका था। क्रांतिकारी आन्दोलन मृत-प्रायः हो गया था। रास बिहारी बोस व शचीन्द्र सान्याल जैसे क्रांतिदूतों की योजना पर पानी फिर चुका था। क्रांति वीरों के समाप्त हो जाने के कारण केसरीसिंह अकेले पड़ गये। शिक्षा प्रचार व समाज सुधार का कार्य भी कारावास के कारण अस्त-व्यस्त हो गया था। इस कारण केसरीसिंह को अपने लिये नये सिरे से आगे की दिशा तय करनी थी।
केसरीसिंह ने देखा कि कांग्रेस के आंदोलन के चलते, देश में क्रांतिकारी आंदोलन का कोई भविष्य नहीं रह गया था। भारतीय राजनीति के क्षितिज पर मोहनदास करमचंद गांधी की स्थापना हो रही थी। गांधीजी के अहिंसात्मक आन्दोलन से जनमानस से प्रभावित होने लगा था। क्रांतिकारी संगठन के बिखर जाने के कारण केसरीसिंह के कई साथी गांधीजी की ओर मुड़ गए थे। अर्जुनलाल सेठी व रामनारायण चौधरी जैसे अग्रणी साथी, जमनालाल बजाज के आग्रह पर वर्धा पहुंच गये थे।
केसरीसिंह को देश की सेवा तो करनी ही थी। सदियों से मृत प्रायः जीवन यापन कर रहे भारतीय समाज को तो उठाना ही था। गौरांग महाप्रभुओं को उनके देश में लौट जाने के लिये विवश करने का प्रयास तो करना ही था। इसलिये केसरीसिंह ने भी अर्जुनलाल सेठी एवं रामनाराण चौधरी की राह पकड़ना ठीक समझा।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि देश को रक्त क्रांति के माध्यम से स्वतंत्र करवाने का मार्ग पूरी तरह बंद हो चुका था। देश के जन मानस पर रूस की साम्यवादी क्रांति का प्रभाव पड़ना आरंभ हो गया था तथा गांधीजी धीरे-धीरे अपना एजेण्डा आगे बढ़ा रहे थे। ऐसी स्थिति में केसरीसिंह भी हिंसा के मार्ग का परित्याग कर गांधीजी व कांग्रेस आंदोलन की ओर उन्मुख हुए।
वर्धा से निमंत्रण
अर्जुनलाल सेठी की प्रेरणा से जमनालाल बजाज ने केसरीसिंह को सपरिवार वर्धा आने का निमंत्रण दिया। पुत्री चन्द्रमणि और जामाता ईश्वरदान आशिया भी उनके साथ वर्धा पंहुचे। उस समय राजस्थान के अन्य कई कार्यकर्ता जैसे सागरमल गोपा, कन्हैयालाल कलंत्री आदि भी वहाँ उपस्थित थे। जब ठाकुर केसरीसिंह वर्धा पहुंचे तो इस खबर से वर्धा में बड़ी हलचल हुई। इस क्रांतिकारी ठाकुर परिवार के सम्बन्ध में वहाँ पहिले से ही कई प्रकार की कहानियाँ प्रचलित थीं। वर्धा पहुंचने पर उनका राजाओं जैसा स्वागत किया गया था। नगरवासियों ने बहुत बड़ी संख्या में एकत्रित होकर इस परिवार का स्वागत किया।
वर्धा में पत्रकारिता
वर्धां से राजस्थान केसरी साप्ताहिक पत्र का प्रकाशन कार्य प्रारंभ हुआ। कुछ विद्वानों का मानना है कि इस समाचार पत्र का नामकरण ठाकुर केसरीसिंह के नाम पर किया गया। इस समाचार पत्र का सम्पादन अर्जुनलाल सेठी करते थे। इसमें देशी राज्यों और मुख्यतः राजस्थान की रियासतों से सम्बंधित विचार, समाचार आदि प्रकाशित होते थे। केसरीसिंह बारहठ भी इसमें लेख लिखते थे।
देशी राज्यों का प्रतिनिधित्व
वर्धा में रहते हुए केसरीसिंह ने सितम्बर 1920 में कलकत्ता कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में राजपूताना और मध्य भारत की ओर से देशी राज्यों के प्रतिनिधि के तौर पर भाग लिया।
राजस्थान के निर्माण का स्वप्न
1920 के कांग्रेस अधिवेशन में देशी राज्यों के प्रतिनिधित्व के सम्बन्ध में सुझाव देने के लिये एक उपसमिति गठित की गई। 16 नवम्बर 1920 को केसरीसिंह ने कांग्रेस के महासचिव वी. जे. पटेल को पत्र लिखा जिसमें उन्होंने राजपूताना, मध्य भारत एवं अजमेर को शामिल करते हुए राजस्थान नामक प्रदेश का गठन करने तथा देहली को पंजाब में शामिल करने का सुझाव दिया। उन्होंने यह भी सुझाव दिया कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में राजपूताना एवं मध्य भारत के प्रत्येक देशी राज्य की ओर से कम से कम एक-एक प्रतिनिधि लिया जाये। दिसम्बर 1920 के ऐतिहासिक नागपुर कांग्रेस अधिवेशन में रियासती प्रजा को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी में प्रतिनिधित्व देने की दृष्टि से कांग्रेस के विधान में मौलिक संशोधन किया गया तथा सम्पूर्ण हिन्दुस्थान की आजादी हासिल करना कांग्रेस का ध्येय घोषित किया गया।
इस प्रकार ठाकुर केसरीसिंह राजस्थान के निर्माण का स्वप्न देखने वाले पहले व्यक्ति कहे जा सकते हैं। ई.1920 में इस प्रकार के प्रांत का गठन करने के बारे में सोचना किसी भी अन्य नेता के वश की बात नहीं थी। मोहनदास गांधी और केसरीसिंह बारहठ दोनों ही रियासती एवं सामंती परिवेश से उत्पन्न हुए थे किंतु दोनों ही राजाओं के राज्य के स्थान पर जनता के राज्य का स्वप्न देख रहे थे।
अजमेर से निमंत्रण
नवम्बर 1921 में राजपूताना मध्य भारत सभा की ओर से श्री चांदकरण शारदा ने केसरीसिंह को अजमेर आने के के लिये आमंत्रित किया। शारदा ने अपने पत्र में लिखा- ‘आप पूज्य हैं, कर्मवीर हैं और प्रतिष्ठा के पात्र हैं। मैं आपको अपना पूज्य नेता मानता हूं । आप जब भी चाहें अजमेर आवें। आपके लिये निवास का प्रबंध कर देंगे।
पुनः कोटा में
संभवतः वर्धा के वातवारण में केसरीसिंह का मन नहीं लगा। इसलिये वे कुछ महीने वर्धा आश्रम में रहने के बाद ई.1922 में पुनः कोटा लौट आये। तब तक सिवाय सम्मान के ठाकुर केसरीसिंह बारहठ का सब कुछ लुट चुका था। फिर भी स्वतंत्रता सेनानियों ने उन्हें सादर आमंत्रित किया कि वे आयें और रहें। वे अब अधिकतर अस्वस्थ रहने लगे थे। संपूर्ण संपत्ति जब्त हो जाने के कारण उनके न तो रहने का कोई ठिकाना था और न आजीविका का कोई साधन। घोर अर्थाभाव व कष्टों में उन्हें जीवन बिताना पड़ा, पर उन्होंने दैन्य भाव कभी पास नहीं फटकने नहीं दिया। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. मथुरालाल शर्मा ने अपने संस्मरणों में बारहठजी के उन दिनों के कठिन जीवन का मार्मिक जीवन का मार्मिक चित्रण किया है। केसरीसिंह ने अपना शेष जीवन कोटा में ही व्यतीत किया।
मदनमोहन मालवीय की धमकी
जेल से मुक्त होकर जब वे कोटा आये तो यह बात फैली कि रियासत द्वारा उन्हें पुनः गिरफ्तार करके कारावास देने की योजना बनाई जा रही है। इस प्रकार के समाचार समाचार पत्रों में भी प्रकाशित हुए। इस पर पं. मदनमोहन मालवीय ने कोटा रियासत के दीवान रघुनाथदास चौबे को पत्र लिख कर सावधान किया कि यदि बारहठजी को फिर से जेल में भेजने का उपक्रम किया गया तो स्वयं कोटा आकर सत्याग्रह करेंगे। लेकिन रियासत ने ऐसी कोई कार्यवाही नहीं की।
कोटा नरेश द्वारा आवास भेंट
कोटा वापिस आने पर कोटा नरेश महाराव उम्मेदसिंह ने उनके लिये एक बड़ी कोठी बनवा कर उन्हें भेंट कर दी, जिसमें वह आजीवन निवास करते रहे।
कांग्रेस कार्यकर्ताओं में मन मुटाव और केसरीसिंह
ई.1923-24 में राजपूताने में कार्यरत कांग्रेसजनों में परस्पर वैमनस्य और द्वेष भाव बहुत बढ़ गया। सेठ जमनालाल बजाज, अर्जुनलाल सेठी, विजयसिंह पथिक आदि के बीच कार्यपद्धति को लेकर भारी मतभेद पैदा हो गये और कलह का वातावरण बन गया। इस कारण स्वयं गांधीजी को हस्तक्षेप करना पड़ा। राजपूताना के कई कांग्रेसजनों द्वारा जमनालाल बजाज के प्रति विरोधी भावनायें प्रदर्शित करने के लिये अर्जुनलाल सेठी को दोषी ठहराया गया। इस सम्बन्ध में केसरीसिंह और अर्जुनलाल सेठी तथा केसरीसिंह और गांधी के बीच पत्र व्यवहार हुआ। इस पत्राचार में कानपुर अधिवेशन के सम्बन्ध में केसरीसिंह के पत्र के उत्तर में गांधी ने अपने 6 मार्च 1925 के पत्र में लिखा – ‘ऐसी इच्छा थी कि यंग इण्डिया में कुछ न कुछ लिखूं। अब सोचता हूं, लिखने से कोई लाभ नहीं है। किसी ने ऐसा माना ही न था कि सब प्रतिनिधि सेठीजी के वश में हैं और दोषित हैं।’
इसी समय सेठीजी ने केसरीसिंहजी को लिखे गये एक पत्र में जो विचार व्यक्त किये हैं, वे अत्यंत मार्मिक एवं भावोत्तेजक होते हुए उनकी बेजोड़ मैत्री और अटूट पारस्परिक विश्वास के भी प्रतीक हैं। सेठीजी ने इस विषय में अपने 25 मई 1924 के पत्र में केसरीसिंहजी को लिखे पत्र में उन्हें हृदय मंदिर के पूज्यदेव सम्बोधित करते हुए लिखा- ‘आप दास सेठी को जो आज्ञा देंगे वह मनसा, वाचा, कर्मणा शिरोधार्य होगी। यदि आप मुझे दोषी ठहरायेंगे तो देहान्त प्रायश्चित तक भी वह सहर्ष मंजूर करूंगा।’
जोधपुर रियासत से निष्कासन
ई.1929 में जब वायसराय का जोधपुर आगमन का कार्यक्रम बना, उस समय ठाकुर केसरीसिंह जोधपुर में थे। 28 जुलाई की रात्रि को जोधपुर के पुलिस इंस्पेक्टर ने ठाकुर केसरीसिंह से कहा कि वायसराय मारवाड़ की यात्रा पर आ रहे हैं। राज्य कौंसिल के वाइस प्रेसीडेंट कर्नल विंढम नहीं चाहते कि इस अवसर पर आप जोधपुर में रहें। जोधपुर महाराजा भी यही चाहते हैं कि आप जोधपुर से बाहर चले जायें। इस पर ठाकुर केसरीसिंह कोटा चले आये किंतु 29 जुलाई के तरुण राजस्थान में जब यह समाचार प्रकाशित हुआ कि वायसराय की जोधपुर यात्रा के कार्यक्रम के कारण ठाकुर केसरीसिंह की भूतकाल की राजनैतिक कार्यवाहियों की वजह से अवांछनीय व्यक्ति मानकर राज्य शासन द्वारा उनको जोधपुर से निष्कासित कर दिया गया है तो केसरीसिंह ने इस आदेश का तीव्र विरोध करते हुए जोधपुर स्टेट कौंसिल के वाइस प्रसिडेण्ट को पत्र लिखा और उसकी वैधता को चुनौती दी।
जोरावरसिंह बारहठ का निधन
ई.1937 में जनप्रतिनिधि सरकारें बन जाने के बाद भी जोरावरसिंह पर से आरा केस का मुकदमा नहीं उठाया गया। इस कारण वे फरार चल रहे थे। इस सम्बन्ध में केसरीसिंह ने बिहार के प्रधानमंत्री कृष्णसिंह और गृहमंत्री अनुग्रह नारायणसिंह से पत्र व्यवहार किया। ई.1939 में जोरावरसिंह पर से आरा केस उठा लिया गया। मुक्ति के आदेश समाचार पत्रों में प्रकाशित होने के दिन ही जोरावरसिंह का निधन हो गया।
हिन्दी साहित्य सम्मेलन में केसरीसिंह
ई.1933 में इन्दौर में मोहनदास करमचंद गांधी की अध्यक्षता में हिन्दी सम्मेलन आयोजित किया गया। इसमें केसरीसिंह ने भी भाग लिया। मंच पर महाराज होल्कर भी उपस्थित थे। जब उन्होंने केसरीसिंह को देखा तो उन्हें बुलाकर सम्मानपूर्वक बात की। इन्दौर के दीवान सर सिरहमल बाफना और करोड़पति सेठ सर हुकमचंद तथा सम्मेलन में भाग लेने वाले अन्य कई गणमान्य व्यक्ति उनसे आदर पूर्वक मिले। सुप्रसिद्ध इतिहासकार डॉ. मथुरालाल शर्मा ने अपने संस्मरणों में लिखा है- ‘मैंने इंदौर में देखा कि पुरुषोत्तम दास टण्डन ने मिलते ही उनका आलिंगन किया। पं गेंदालाल दीक्षित और अजीतसिंहजी वहाँ उनसे रात्रि में मिला करते थे। दोनों ही बड़े सक्रिय क्रांतिकारी थे।’
सन्यास लेने की इच्छा
ई.1934 में उन्होंने सन्यास लेने की इच्छा प्रकट की किंतु सगे संबंधियों व पुत्र आग्रह के कारण एकान्तवास ही करना प्रारंभ कर दिया।
पुनः गांधी की ओर
नवीन राजनीति में व्याप्त प्रतिस्पर्द्धा, वैमनस्य और गुटबंदी से केसरीसिंह को गहरी ठेस लगी। देशभक्ति का उनके आदर्श व व्रत की यह किरकिरी उनके लिये असह्य वेदना थी। धीरे-धीरे वे सक्रिय राजनीति से अलग हो गये। जीवन के अंतिम दिनों में वे गांधी के सान्निध्य में रहने को इच्छुक थे। जब ई.1940 में गांधी ने व्यक्तिगत सत्याग्रह प्रारंभ करने की घोषणा की तो केसरीसिंह ने भी उसमें भाग लेने की इच्छा प्रकट करते हुए रामनारायण चौधरी को 7 दिसम्बर 1940 को वर्धा पत्र लिखा- ‘मेरी इस सत्तर वर्ष की बूढ़ी हड्डियों में स्वदेश के लिये शान्त आहुति देने का अभी बल है और प्रबल इच्छा भी है।’ गांधी ने इस प्रस्ताव पर अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।
केसरीसिंह ने अहिंसा दर्शन में आस्था व्यक्त करते हुए राम नारायण चौधरी को लिखे पत्र में लिखा- ‘मैं अहिंसा दर्शन को मानव धर्म का सर्वोपरि अंग समझता हूं क्योंकि हिंसा पाशविक वृत्ति है। आततायी पर अबला की रक्षा में कदाचित हाथ उठाना अपरिहार्य हो भी तो हिंसक का हाथ तोड़कर तुरंत उसकी सुश्रुषा में उतना ही प्रेमपूर्वक लग सकता हूं जितना कि अपने बंधु के लिये आज से पच्चीस वर्ष पूर्व जब हजारीबाग जेल में सिविल सर्जन मि. जॉर्डन ने मनमाना जुर्म इस शरीर पर किया तब भी किसी क्षण मेरे हृदय में उसके या अंग्रेज जाति के प्रति द्वेष उदय नहीं हुआ। अब तो अहिंसा के निर्मल और खुले मार्ग को श्रेय मानता हूं।
बी. एल. पानगड़िया ने लिखा है- ‘केसरीसिंह अंतिम वर्षों में गांधीजी के बड़े प्रशंसक हो गये थे। उनको विश्वास हो गया था कि महात्मा गांधी ही अपने असहयोग आंदोलन द्वारा देश को अंग्रजों से मुक्त करवा सकेंगे।’
गांधीजी भी ठाकुर केसरीसिंह से इतने प्रभावित थे कि जब उन्हें यह ज्ञात हुआ कि ठाकुर केसरीसिंह उनसे मिलने आवंेगे तो उन्होंने कहा-‘केसरीसिंहजी आवेंगे तो मुझे खुशी होगी। उनके उत्कृष्ट जेल-जीवन का मुझसे सर तेज बहादुर सप्रू ने भी जिक्र किया था।’ एक अन्य स्थान पर गांधीजी ने उनके बारे में कहा- ‘भारत की विदेशी सरकार के गृह मंत्री सर तेजबहादुर सप्रू ने मुझे बताया है कि हजारीबाग जेल के अंग्रेज सुपरिण्टेडेण्ट ने केसरीसिंहजी को सन्त की संज्ञा दी थी।’
ई. 1928 में अखिल राजस्थान हिन्दी कवि सम्मेलन के अजमेर अधिवेशन में गांधी की प्रशंसा में उन्होंने एक कविता लिख भेजी थी-
सर्व उपाय छूटे, प्राण सौरभ लेत।
तत्र पर गांधी बिन, आये हैं ठिकाने ना।
असहयोग मंत्र फूंकि, ईशा सदी बीसी में।
शीशी में उतारे बिना भूत यह माने ना।
बारहठ जी ने ई.1940 में अपना शेष जीवन गांधी की सेवा में बिताने की इच्छा प्रकट की। गांधी ने स्वीकृति भी दे दी परन्तु इसी बीच केसरीसिंह बीमार रहने लगे और कुछ समय बाद संसार से चल बसे।
जयपुर प्रजामंडल के दमन का विरोध
जयपुर राज्य ने वहाँ के प्रजामंडल को अवैध करार देकर दमन करने पर कमर कसी। तब तीस जनवरी 1939 को केसरीसिंह ने जयपुर नरेश सवाई मानसिंह को यह पत्र लिखा-
राजन्!
दुख है कि वर्तमान नरेश विपरीत शिक्षा के सांचे में ढल कर वा व्यक्तिगत सुख के प्रलोभन में वास्तविक राजधर्म को भूल गये और चारण भी कुलधर्म को भूलकर चापलूस मात्र रह गये। शुभचिंतक चारण का धर्म ही यही है कि सत्य को निर्भय होकर राजाओं के सामने रखे और स्वधर्म पालन करते हुए राजमद का कोप सिर पर आवे तो शांति से सिर झुकाकर स्वीकार करे क्योंकि ‘स्वधर्मे निधनम् श्रेयम् परधर्मे भयावहः’ तदनुसार वर्तमान जयपुर की नीति से दुखित होकर यदि यह शुभचिंतक श्रीमानों की सेवामें दो शब्द विनम्रता से नजर करे तो आशा है श्रीमानों की उदार भावना क्षमा करेगी। होगा वही जो श्री जगदम्बा को मंजूर है फिर भी कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन्।
दोहा
डंडा बल पशुझुंड पर, पंगहु होत समर्थ
वीर प्रेम बल बलिन पें, समझत शासन अर्थ।
दीन प्रजा अरु नारि पर, क्षत्रि न शस्त्र उठाय
पर हित में निज हानि को, सहत वीर हरषाय।
मान! अभिमान तज, सुत सम जान प्रजान
चमन उजारहि दमन यह, अंत आपकी हान।।
देहावसान
14 अगस्त 1941 को केसरीसिंह बारहठ का देहावसान हुआ। प्रो. चिन्तामणि शुक्ल एवम् डॉ. अवधेश कुमार शुक्ल ने लिखा है- ‘बारहठजी का मन मृत्यु के 10 मिनट पहले तक संतुलित रहा और उन्होंने खूब बातचीत की।’ डॉ. कांति वर्मा ने लिखा है- ‘अपने मन पर उनका इतना काबू था कि मरने के दस मिनट पहले तक वे बातचीत करते रहे थे। मृत्यु के समय भी उनके मुख पर किसी प्रकार की विकृति नहीं थी।’
मंगलरूप बलिदान
केसरीसिंह ने अपनी कोठी के द्वार पर एक शिलालेख लगवाया था, जिस पर उन्होंने अपनी लिखावट में ही अपनी संक्षिप्त जीवनी लिखी है। जिसमें एक सोरठे में उन्होंने कहा है- ‘विपदा धन घिर घिर छुटे सकल परिवार।’ बारहठ ने अपनी पुत्री चंद्रमणि को एक पत्र में लिखा था- ‘भारत के एक महत्वपूर्ण प्रदेश में जागृति का आरम्भ अपने ही कुटुम्ब की महान आहुति से ही हुआ है। इस राजसूय यज्ञ में हम लोगों की बली मंगलरूप में हुई।’