गुहिल वंश के राजाओं को मेवाड़ पर शासन करते हुए 550 वर्ष से अधिक समय हो गया था जब ई.1302 में रावल समरसिंह का पुत्र रत्नसिंह मेवाड़ का राजा हुआ। उसे शासन करते हुए कुछ ही महीने हुए थे कि दिल्ली सल्तनत के सबसे शक्तिशाली सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने ई.1303 में चित्तौड़ पर आक्रमण किया। उस समय चित्तौड़, अपने पूर्ववर्ती राजा समरसिंह द्वारा चौहानों, चौलुक्यों एवं परमारों पर विजय प्राप्त कर लेने से उत्साहित था। चित्तौड़ की सेनाओं ने दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन तथा गयासुद्दीन बलबन की सेनाओं पर विजयें प्राप्त की थीं इसलिये भी चित्तौड़ का मनोबल अपने चरम पर था। अतः चित्तौड़ ने पूरी शक्ति से अलाउद्दीन खिलजी का प्रतिरोध किया।
अलाउद्दीन खिलजी का दरबारी लेखक अमीर खुसरो इस घेरे में खिलजी के साथ था। उसने अपने ग्रंथ तारीखे अलाई में इस युद्ध में चित्तौड़ की पराजय एवं सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की विजय के सम्बन्ध में लिखा है- ‘सुल्तान ने गंभीरी और बेड़च नदी के मध्य अपने शिविर की स्थापना की। उसके पश्चात् सेना ने दायें और बायें पार्श्व से किले को घेर लिया। ऐसा करने से तलहटी की बस्ती भी घिर गई। स्वयं सुल्तान ने अपना ध्वज चित्तौड़ नामक एक छोटी पहाड़ी पर गाढ़ दिया। वह वहीं पर दरबार लगाता था तथा घेरे के सम्बन्ध में दैनिक निर्देश देता था।
जब घेरे की व्यवस्था और तुर्की सेना का पड़ाव लम्बी अवधि तक चला तो राजपूतों ने भी किले के फाटक बंद कर लिये और परकोटों से मोर्चा बनाकर शत्रुदल का मुकाबला करते रहे। सुल्तान की सेना ने मजनिकों से किले की चट्टानों को तोड़ने का लगभग 8 महीने तक अथक प्रयास किया पर उन्हें कोई सफलता नहीं मिली। सीसोदे के सामंत लक्ष्मणसिंह ने किले की रक्षा में अपने सात पुत्रों सहित प्राण गंवाये।
चित्तौड़ का दुर्ग जीते बिना अलाउद्दीन खिलजी, दक्षिण भारत की ओर के अभियानों पर नहीं जा सकता था। इसिलये छल-बल से राजा रत्नसिंह को बंदी बनाया गया तथा महारानी पद्मिनी को समर्पित करने की मांग की गई। महारानी के स्थान पर गोरा-बादल ने, शत्रु के बीच पहुंचकर अपने राजा को मुक्त कराया।
जब चारों ओर सर्वनाश के चिह्न दिखाई देने लगे, शत्रुओं से बचने का कोई उपाय नहीं दिखाई दे रहा था और किसी भी मूल्य पर दुर्ग को नहीं बचाया जा सकता था, तब महारानी पद्मिनी के नेतृत्व में राजपूत स्त्रियों और बच्चों ने जौहर की धधकती ज्वाला में प्राण उत्सर्ग कर दिये। मेवाड़ के सैनिक दुर्ग के द्वार खोलकर शत्रु सेना पर टूट पड़े तथा किले का पतन हो गया। यह चित्तौड़ का पहला साका था। इस घेरे में चित्तौड़ की रावल शाखा के समस्त वीरों के काम आ जाने से चित्तौड़ की रावल शाखा का अंत हो गया।
अमीर खुसरो ने तथ्यों को तोड़-मरोड़कर लिखा है- ‘26 अगस्त 1303 को किला फतह हुआ और राय पहले भाग गया परंतु पीछ से स्वयं शरण में आया और तलवार की बिजली से बच गया। अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ दुर्ग में 30 हजार मनुष्यों का कत्ल करने की आज्ञा दी तथा चित्तौड़ का राज्य अपने पुत्र खिजरखां को देकर चित्तौड़ का नाम खिजराबाद रक्खा। टॉड ने लिखा है- ‘अलाउद्दीन खिलजी ने चित्तौड़ को अधीन कर लिया परन्तु जिस पद्मिनी के लिये उसने इतना कष्ट उठाया था, उसकी तो चिता की अग्नि ही उसके नजर आई।’
इस युद्ध में महारानी पद्मिनी द्वारा दिखाये गये अदम्य साहस एवं पातिव्रत्य धर्म के कारण वह भारतीय नारियों के लिये सीता और सती सावित्री की तरह आदर्श बन गई। इसी प्रकार गोरा एवं बादल द्वारा दिखाई गई वीरता के कारण वे मिथकीय कथाओं के नायक बन गये।
पद्मिनी की कथा को आधार बनाकर कई स्वतंत्र ग्रंथों की रचना हुई। छिताईचरित में अलाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौड़ के शासक को बंदी बनाकर जगह-जगह पर घुमाने का उल्लेख है। हेमरतन के गोरा-बादल चौपई में तथा लब्धोदय के पद्मिनी चरित्र में इस कथा को स्वतंत्र रूप से लिखा गया है। मलिक मुहम्मद जायसी ने पद्मिनी के आख्यान को आधार बनाकर ‘पद्मावत नामक ग्रंथ की रचना की। इतिहास की दृष्टि से यह ग्रंथ नितांत अनुपयोगी है।
इस ग्रंथ का साहित्यिक मूल्य भी अधिक नहीं है किंतु सोलहवीं शताब्दी में लिखा हुआ होने के कारण, हिन्दी भाषा के प्रारम्भिक काल की रचना के रूप में इस ग्रंथ का महत्त्व अवश्य है। वास्तव में इसका कथानक, उपन्यास की भांति कपोल-कल्पित है जिसके पात्रों एवं स्थानों के नाम इतिहास से ग्रहण किये गये हैं। महारानी पद्मिनी की कथा पर आधारित होने के कारण इस ग्रंथ को राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त हुई। पद्मावत की रचना के 70 वर्ष बाद फरिश्ता ने और सोलहवीं शताब्दी में अबुल फजल ने इन तथ्यों को और अधिक तोड़-मरोड़कर इस कथा को विस्तार दिया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता