पट्टराणी शेखावतजी प्रभावशाली राजमहिषी थीं। किसी का साहस न था जो उनके समक्ष आँख उठाकर बात कर सके। उन्होंने बड़े सहज भाव से गुलाब को अपनी सहचरी के रूप में स्वीकार कर लिया। गुलाब ने भी कभी उन्हें किसी अवसर पर उपालंभ का अवसर नहीं दिया। शेखावतजी तो बस इसी बात में प्रसन्नता का अनुभव करती थीं कि गुलाब, महाराजा को प्रसन्नता देती है। उन्हें सदैव उत्साहित रखती है। गुलाब भी उन्हें पट्टराणी होने के कारण कभी उनकी ओर आँख उठाकर बात नहीं करती थी। बरसों से दोनों के मध्य इसी तरह का अनुशासन बना हुआ था। यह अनुशासन संभवतः आगे भी बना ही रहता, यदि बच्चों ने उसमें व्यवधान उत्पन्न न किया होता!
शेखावतजी के दूसरे कुँवर भोमसिंह का पुत्र भीमसिंह और गुलाबराय का पुत्र तेजकरण समवयस्क थे। वे साथ-साथ खेलते और जीत हार को लेकर प्रायः झगड़ पड़ते। जब तक वे छोटे थे तब तक तो ये झगड़े बच्चों के बीच में ही रहे किंतु जैसे-जैसे वे बड़े होने लगे, इन झगड़ों में माताओं के पद, अधिकार और प्रभाव भी सम्मिलित होते चले गये।
एक दिन पट्टराणी शेखावतजी ने गुलाब को चेताया-‘वह तेजकरण को नियंत्रण में रखे और किसी भी स्थिति में कुँवर पर हाथ न उठाने दे।’
गुलाब शेखावतजी की बात का बुरा कदापि न मानती यदि उसे शेखावतजी के स्वर में पट्टराणी होने के अधिकार की गर्मी न दिखाई देती। इस गर्मी से गुलाब बिखर गई। नरम पुष्प पांखुरियों के नीचे छिपे तीक्ष्ण कंटक प्रकट हो गये। उसने भी शेखावतजी को खूब खरी खोटी सुनाई- ‘धमकी किसे देती हो! जैसे भीमसिंह इस गढ़ का कुँवर है, वैसे ही तेजकरण भी इस गढ़ का कुँवर है। यदि कोई कुँवर तेजकरण पर हाथ उठायेगा तो तेजकरण भी उसका समुचित उत्तर देगा। कुँवरों की लड़ाई में राणियाँ न ही पड़ें तो अच्छा।’
यह पहली बार था जब मिहिरगढ़ ने इस तरह की अनहोनी बात सुनी थी। इससे पहले किसी का ऐसा साहस न हुआ था जो पट्टराणी के समक्ष इतने उच्च स्वर में बात कर सके। शेखावतजी से भी सहन नहीं हुआ। सामान्यतः कपूर की तरह शांत रहने वाली शेखावतजी भी चिन्गारी पाकर भभक गईं- ‘कैसा कुँवर और कैसी राणी! तू बडारण है, बडारण की तरह रह।’
-‘पासवान, बडारण नहीं होती महाराणीजी!’ गुलाब ने तमक कर उत्तर दिया।
-‘पासवान क्या होती है, मैं अच्छी तरह जानती हूँ। जोधाणे के गढ़ ने इससे पहले भी कई पासवानें देखी हैं। चार दिन में रूप की कलई उतर जायेगी, फिर बताना मुझे कि पासवान क्या होती है।’ शेखावतजी को हैरानी हुई, कल की एक तुच्छ दासी आज उनसे मुँहजोरी कर रही थी!
ऐसे अति उष्ण संवादों के आदान-प्रदान के बाद तो रनिवास में भूचाल ही आ गया। बालकों का झगड़ा अब बालकों का नहीं रह गया था। वह तो राजा की पट्टराणी और प्रीतपात्री के मध्य शक्ति-तोलन का विषय बन चुका था। निःसंदेह गुलाब, महाराजा से पट्टराणी के विरुद्ध कुछ नहीं कह सकती थी। दूसरी ओर पूरा जीवन राजसी परिवेश में बिता देने के कारण शेखावतजी भी इस बात को भली भाँति जानती थीं कि जो भी अपना झगड़ा लेकर महाराज के पास जायेगी, वही अशक्त और परास्त मानी जायेगी।
गुलाब उसी दिन मरुधरपति का रनिवास त्यागकर अपने पुत्र तेजकरण के साथ, नगर के बीच बने अपने नये महल में रहने चली गई। जब यह सब घटनाचक्र चला, उस समय महाराज गढ़ से बाहर थे। लौटकर उन्होंने गढ़ के भीतर का परिवर्तित दृश्य देखा तो वे हैरान रह गये। उन्होंने शेखावतजी से तो कुछ नहीं कहा किंतु उनका मन गहरी उदासी में डूब गया। बिना गुलाब के उन्हें एक-एक क्षण भारी लगता था। फिर भी उन्हें इस बात से ठेस पहुँची थी कि गुलाब उन्हें बताये बिना, उनकी अनुपस्थिति में गढ़ छोड़कर चली गई थी।
जैसे-जैसे दिन बीतते जाते थे, महाराज की उदासी बढ़ती जाती थी। वे कई बार इस आशा में बालकृष्ण लाल के मंदिर गये कि संभवतः वहाँ गुलाब भगवद्दर्शनों के लिये आये किंतु गुलाब ने तो जैसे स्वयं को अपनी ही कारा में बंदी बना लिया था। गुलाब की यह उदासीनता देखकर महाराजा की उदासी पल-पल बढ़ती जाती थी।
उदास तो गुलाब भी थी किंतु वह उदास होने के साथ-साथ चिंतित भी थी। कुछ दिनों तक तो वह मानिनी नायिका की भाँति इस प्रतीक्षा में बैठी रही कि यदि महाराज आवें तो वह उन्हें अपने तप्त आँसुओं की ऊष्मा से पिघला कर शेखावतजी के विरुद्ध भर सके किंतु जब एक-एक करके कई दिवस बीत गये और महाराज उसे मनाने नहीं आये तो मानिनी के आँसुओं का वेग और बढ़ गया। ये आँसू क्रोध के न थे, ग्लानि और पश्चाताप के थे जिन्हें देखने वाला कोई न था।
राजा की प्रीतपात्री और मानिनी नायिका होने का भ्रम बिखर जाने पर गुलाब को भान हुआ कि उसके सारे अधिकारों का सृजन केवल महाराज के साथ स्नेहमयी सम्बन्धों से होता था। इस स्नेह-सूत्र के टूट जाने के बाद उसके लिये इस संसार में कहीं कोई स्थान नहीं था। वह अपने प्रेम के ठसके पर विश्वास करके गढ़ छोड़ तो आई किंतु गढ़ में पुनः प्रवेश पा सकना, उसके वश में न था। क्षण भर के क्रोध ने उसके जीवन में ऐसी आग लगाई थी जिसमें जलकर केवल उसी को भस्म नहीं होना था अपितु उसके पुत्र तेजकरण का भविष्य भी जलकर मिट जाना था।
क्रोध की अग्नि शांत हो चुकी थी किंतु अब गुलाब के किये कुछ नहीं हो सकता था। न तो उसके पास यह अवसर था कि वह गढ़ में प्रवेश करके शेखावतजी से सुलह-सफाई कर सके, न यह अवसर था कि वह महाराज के समक्ष शेखावतजी के दुर्व्यवहार की शिकायत कर सके। न कोई ऐसा सूत्र ही उपलब्ध था जो उसकी ओर से महाराज तक उसकी बात पहुँचा सके। भाग्य पर विश्वास करके बैठने के अतिरिक्त उसके पास और कोई उपाय न था। वह जंग हार चुकी थी और इस हारी हुई जंग को जीत में बदलने का कोई उपाय अथवा उपकरण उसके पास नहीं था।
दिन पर दिन बीतते जाते थे और गुलाब मुरझाती जाती थी। न महाराज आते थे और उनका कोई संदेश। जो मुत्सद्दी और सरदार दिन रात हाथ में अर्जी लिये, गुलाब की हाजरी और मर्जी में खड़े रहते थे, उनमें से किसी एक ने भी बाग में आकर गुलाब को मुँह नहीं दिखाया। अब जाकर गुलाब को शेखावतजी में और अपने में अंतर ज्ञात हुआ। शेखावतजी अधिकार के उस उच्च शिखर पर स्थित थीं जहाँ से महाराज भी उन्हें च्युत नहीं कर सकते थे। और गुलाब? गुलाब तो प्रेम के मोम से बनी ऐसी टेकरी पर खड़ी थी जिसे क्रोध की जरा सी अग्नि ने पिघला कर बहा दिया था और एक ही झटके में गुलाब धरती पर आ गिरी थी। शेखावतजी के समक्ष वह कहीं भी नहीं टिकती थी।