नौवीं शताब्दी ईस्वी से ही इस बात के प्रमाण मिलने लगते हैं कि जब गुहिल राजा, विदेशी आक्रांताओं के विरुद्ध युद्ध के मैदान में मोर्चा लेने उतरते थे तब भारत वर्ष के अनेक राजा, गुहिलों के नेतृत्व में लड़ने के लिये आते थे। ई.813 से 833 के बीच किसी समय हुए खलीफा के आक्रमण के समय में खुमांण की तरफ से लड़ने के लिये काश्मीर से लेकर रामेश्वरम् तक के विभिन्न राजाओं के आने का उल्लेख मिलता है।
ई.1520-21 में गुजरात तथा मालवा की संयुक्त सेनाओं ने मेवाड़ के विरुद्ध जबर्दस्त अभियान किया। उनकी सेना में डेढ़ लाख से अधिक घुड़सवार, हाथी, पैदल सैनिक तथा तोपखाना आदि थे। उसी समय रायसेन का राजा सलहदी तंवर (तोमर) एवं आस-पास के समस्त हिन्दू राजा अपनी-अपनी सेनाएं लेकर राणा की सहायता के लिये आये। सांगा का ऐसा प्रताप देखकर शत्रुओं की हिम्मत टूट गई और वे बिना लड़े ही सांगा से संधि करके लौट गये।
ई.1527 में जब सांगा ने बाबर के विरुद्ध युद्ध लड़ा तब भी आम्बेर का राजा पृथ्वीराज, ईडर का राजा भारमल, मेड़ता का राजा वीरमदेव, डूंगरपुर का रावल उदयसिंह, देवलिया का रावत बाघसिंह, बीकानेर का राजकुमार कल्याणमल, जोधपुर का राजा गांगा[1], सांगा का भतीजा नरसिंह देव, अंतरवेद से चंद्रभाण चौहान और माणिकचंद चौहान; तथा अनेक प्रसिद्ध सरदार- दिलीप, रावत रत्नसिंह कांधलोत (चूंडावत), रावत जोगा सारंगदेवोत, नरबद हाड़ा मेदिनीराय, वीरसिंह देव, झाला अज्जा, सोनगरा रामदास, परमार गोकुलदास, खेतसी आदि भी राणा की तरफ से लड़ने के लिये अपनी-अपनी सेनाएं लेकर आये।
मुगलों से स्वाभाविक शत्रुता होने के कारण अलवर का हसनखां मेवाती और इब्राहीम लोदी का पुत्र महमूद लोदी भी अपनी सेनाएं लेकर सांगा की तरफ से लड़ने आये।
यद्यपि भारतीय नरेशों में कभी एकता नहीं रही और वे परस्पर लड़कर एक दूसरे को नष्ट करते ही रहे किंतु जब कभी विदेशी आक्रांताओं का आक्रमण होता था तो बहुत सी भारतीय शक्तियां एकता का प्रदर्शन करती थीं। दुर्भाग्य से सोलहवीं शताब्दी में कच्छवाहों ने अपने राजपरिवार की कलह से उबरने के लिये, अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली। अकबर ने इस स्थिति का लाभ उठाया तथा शनैः शैनैः भारतीय राजाओं की एकता भंग करके उन्हें एक-एक करके अपने अधीन बनाया।
महाराणा प्रताप चाहता था कि भारत की समस्त शक्तियां, एकजुट होकर विदेशी शक्तियों के विरुद्ध लड़ें। वह जानता था कि यदि राजपूताने के राजा, अकबर के विरुद्ध खड़े हो जायेंगे तो अकबर की शक्ति कुछ भी न रह जायेगी किंतु आम्बेर के कच्छवाहों की ही भांति जोधपुर और बीकानेर के राठौड़ों ने भी राजपरिवार तथा सामंतों की कलह से बचने के लिये अकबर का सहारा लिया और राजपूताने को स्वतंत्र रखने की, महाराणा प्रताप की इच्छा पूरी न हो सकी। यहाँ तक कि हाड़ा भी मुगलों के अधीन हो गये और हल्दीघाटी के मैदान में महाराणा प्रताप को ग्वालियर के तंवरों, झाला सरदारों तथा अफगान हकीमखां सूर के अतिरिक्त किसी प्रमुख शक्ति की सहायता प्राप्त नहीं हुई।
राजपूताने की एकता स्थापित करने तथा राजपूताने को विदेशी शक्तियों के शासन से मुक्त करने का महाराणा प्रताप का स्वप्न, वृहद् राजस्थान के निर्माण से पूरा हुआ। यही कारण था कि 30 मार्च 1949 को वृहद् राजस्थान का उद्घाटन करते समय, सरदार पटेल ने महाराणा प्रताप को श्रद्धांजलि देते हुए कहा कि हमने महाराणा प्रताप का स्वप्न साकार कर दिया है।
[1] राव गांगा की तरफ से मेड़ता का राजा वीरमदेव 4000 सैनिक लेकर आया था।