महादजी युद्ध के मैदान से दूर भागा चला जा रहा था। उसने मन ही मन शपथ ली कि ईश्वर ने अवसर दिया तो वह एक दिन मरुधरपति को अवश्य धूल चटायेगा। यह शपथ वह पहले भी कई बार ले चुका था। हर बार वह यही सोचता रहा था कि आज समय विजयसिंह के साथ है किंतु एक दिन समय घूमकर महादजी के पक्ष में होगा। उस दिन वह मरुधरपति से निबटेगा। इस युद्ध के बाद इतना वह इतना अवश्य समझ गया था कि राजपूतों में एक्य भले ही न हो किंतु उनमें शौर्य की कमी नहीं। यदि राजपूतों को सदा के लिये अपने अधीन करना है तो उनकी वीरता का तोड़ ढूंढना पड़ेगा। वीर तो मराठे भी कम नहीं थे किंतु पिछली आधी शताब्दी में जिस तरह की युद्ध नीति मराठों ने अपनाई थी, उससे वे सैनिक कम और लुटेरे अधिक हो गये थे। मराठों के इस लुटेरेपन को भी दूर करना होगा। विचारों की इसी उधेड़बुन में वह मथुरा तक जा पहुँचा।
कई दिनों के वैचारिक अन्तर्द्वन्द्व के उपरांत महादजी को राजपूतों की वीरता का तोड़ सूझ ही गया। उसने विचार किया कि राजपूत वीर तो हैं किंतु उनके पास युद्ध की पुरानी तकनीक है। वे आज भी प्राचीन भारतीय युद्ध पद्धति को गले से लगाये हुए हैं। उन्होंने मुगलों की कुछ सैन्य पद्धतियों को अपनाया अवश्य है किंतु वे रणकौशल के स्थान पर अब भी बाहुबल पर अधिक विश्वास करते हैं। उनके बाहुबल को युद्ध की यूरोपीय तकनीक से तोड़ा जा सकता है। यह विचार मस्तिष्क में आते ही महादजी ने अपने फ्रांसिसी सेनापति डी बोयने को अपने शिविर में बुलवाया। कुछ ही देर में डी बोयने उसके समक्ष कुर्सी पर बैठा था।
-‘जनरल बोयने! मैं चाहता हूँ कि आप अपने तोपखाने को नये सिरे से तैयार करें।’
-‘सेनापतिजी! आपके ऑर्डर से हम ऐसा आर्टीलरी बनायेगा कि पूरे नॉर्थ इण्डिया में उसका मुकाबला कोई नहीं कर सकेगा। यहाँ तक कि ईस्ट इण्डिया कम्पनी भी नहीं।’ बोयने ने उत्तर दिया।
-‘हमें आपसे यही आशा है जनरल किंतु हम आपसे एक और मदद चाहते हैं।’
-‘वो क्या सेनापतिजी?’
-‘हम चाहते हैं कि इस बार हमारे लिये सैनिकों की भरती आप करें। हमारे मराठा सरदार जब भी सैनिकों की भरती करते हैं तो इस कार्य को भारतीय ढंग से करते हैं। आप यूरोपीय ढंग से सेना की भरती कीजिये।’
जनरल बोयने ने महादजी का यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। उसने मथुरा में भरती शिविर खोला। उसने परम्परागत लड़ाकू जातियों के साथ-साथ हर जाति और हर देश के युवकों को सेना में भर्ती किया और अनुभवी हिपाहियों के स्थान पर नये युवकों को प्राथमिकता दी। कुछ ही दिनों में बोयने के पास पूरी बटालियन खड़ी हो गई। नये सैनिक सुबह शाम अपने फ्रांसिसी कमाण्डरों के निर्देशन में मथुरा की चिकनी पीली मिट्टी में परेड करते और दोपहर में पुराने सैनिकों के साथ मिलकर युद्ध की यूरोपीय शैली से अभ्यास करते। एक दिन बोयने ने महादजी को बुलाकर उसके समक्ष नई बटालियन के युद्धाभ्यास का प्रदर्शन करवाया।
इस प्रदर्शन को देखकर महादजी की आँखें हैरत से चौड़ी हो गईं। उसने मन ही मन निर्णय लिया कि केवल एक बटालियन ही क्यों पूरी सेना को इसी तरह की बटालियनों में बदल दिया जाये और मेरे पास इस तरह की कम से कम ग्यारह बटालियनें हों। उसने उसी समय जनरल बोयने को निर्देश दिये कि वह पूरे उत्तरी भारत में अपने सैनिक भर्ती शिविर खोले तथा कम से कम ग्यारह बटालियनें खड़ी करे। इस कार्य के लिये धन की कोई कमी नहीं। अभी मराठों ने उत्तर भारत के उपजाऊ दोआब का पूरी तरह से दोहन किया ही कहाँ है! इसलिये पैसे की चिंता नहीं। जनरल बोयने मराठा सेनापति के आदेश की पालना में लग गया।