केसरीसिंह बारहठ संस्कृत सहित विभिन्न भारतीय भाषाओं के ज्ञाता थे। वे हिन्दी, डिंगल तथा पिंगल के उत्कृष्ट कवि थे। उन्होंने गद्य एवं पद्य में उल्लेखनीय साहित्य की रचना की। केसरीसिंह बारहठ द्वारा सृजित अनेक पद देश की दुर्दशा का करुण चित्रण करते हैं। ईश भक्ति में निवेदित पद भक्ति काल के किसी भी कवि की रचना से पीछे नहीं हैं। नीति के दोहे रहीम और गिरधर की याद दिलाते हैं। बुद्ध-चरित का हिन्दी अनुवाद हिन्दी जगत को उनकी अनुपम देन है। उनके द्वारा अपने परिवार के सदस्यों, स्वातंत्र्य समर के नेताओं तथा राजपूत संस्थाओं को लिखे गये पत्र हिन्दी साहित्य एवं भारतीय इतिहास की अमूल्य थाती हैं। डॉ. मनोहर प्रभाकर ने लिखा है- ‘यद्यपि राष्ट्रीय गतिविधियों से जुड़े रहने के कारण उन्हें काव्य सृजन का अवकाश नहीं मिल पाता था किंतु उन्होंने जो कुछ भी रचा उसमें जन-जागरण का शंखनाद सुनाई पड़ता है। उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह ने तो इनकी कविता पर मुग्ध होकर जागीर में कई गांव तक दे डाले थे।’
देशी राजाओं को अपनी प्रजा के सुख-दुख के प्रति उत्तरदायित्व की भावना अपनाने की प्रेरणा देने के लिये केसरीसिंह द्वारा लिखी गई एक कविता इस प्रकार से है-
समय पलटता जेज नह, उठे प्रजा झुंझलाय,
धर धूजण की बस चले, पल में महल ढहाय।
रूस चीन जरमन तुरक आदि हुते पतसाह।
वे सिंघासण कित गया, सो चीजै नरनाह।
आछा कामां ऊधमौ, धणिया निज धन रास।
नह तो नैड़ा आवणा, महल मजूरां बास।।
ब्रजभाषा की कविता
ब्रजभाषा में रचित काव्य कुसुमांजलि केसरीसिंह की प्रखर प्रतिभा, चतुर वाक्चातुरी धरीणता और भाषा पर आश्चर्यजनक अधिकार सूचक है। काव्य में निहित शब्द विन्यास दोहरे अर्थों वाला है। प्रत्यक्ष में वह ब्रिटिश सत्ता का प्रशस्ति काव्य प्रतीत होता है पर प्रच्छन्न रूप में तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के दुष्कृत्यों के प्रति रोष और घृणा का ही स्पष्ट दर्शक है। इसका अंग्रेजी भाषा में रूपांतरण रेवरेंड ट्यूड होप ने किया था। ब्रज भाषा में रचित उनके कृष्ण भक्ति संबंधी पद लालित्य एवं माधुर्य से सराबोर है। उनके ईश भक्ति के कुछ पद इस प्रकार से हैं-
भाव अनन्त प्रकाशक छवि तोरी गिरिधारी।
यह घनश्याम मुरति अति सोहे, द्युति अनुकारी।।
मोतिन माल अनेक तरल-युत, चरणन लगि विस्तारी।।
कैधों चिबुक खचित शुभ हीरक, रवि विराट निज धारी।।
भ्रमत असंख्य सूर महासूर जु, रवि-मण्डल चहुँ भारी।
कमल वंश गहि जग जनि मूलक, अनहद शब्द उचारी।
रक्षन हेतु धर्यो गिरि छत्र सु, त्रिविध ताप दुख टारी।
बेणी भयद भुजंग काल-सी, जात-वस्तु संहारी।।
तव स्वरूप को पार न पावै, देव ऋषि बलिहारी।।
एक अन्य पद में वे कहते हैं-
हरि तुम जिय की जानन हार।
त्रिविध ताप प्रज्वलित जगत में, तोउ न मिटत अँधियार।
श्याम मुरति यह एकहि समरथ, करन अटल उजियार।
बिन आधार बह्मो चलि आऊँ, प्रकृति-तरंगनि धार।
अब तो चरन-शरन गहि तेरी, चाहे डुबो चाहे तार।।
अज हूँ ना सुधि तुमने लीन्हीं, का मैं कर्यो बिगार?
मैं अति दीन, दीनबंधु तुम, क्यों न करो उद्धार?
कहत बने दुःख वाही के ढिंग, जो अनजान विचार।
तुम तो हो घट-घट के साखी, तो कहों बनूं लबार?
बंगाली में कविता
हजारीबाग जेल में रहते हुए उन्होंने बंगला भाषा का अध्ययन किया, वे बंगाल के क्रांतिकारियों के निकट सम्पर्क में आये। जेल में रहते हुए ही केसरीसिंह ने बंगाली भाषा में एक कविता लिखकर क्रांतिकारियों को भेजी, जिससे उनका हौंसला बढ़ा। कविता इस प्रकार से थी-
मरिमरि की सुन्दर, बंग वाणीरधर,
प्रतिरत्न दीप्तितर, हरे छै आंधार।
जाचित छि किच्छू खन, मुग्ध करिबार मन।
काटिते कठिन दिन, अंध – कारागार।
जानी ना कत की वेशे, जननी पुस्तकपाणि।
आशिया छै कारादेशे, भक्त वत्सल वाणी,
दिदृक्षा मायेर मुख, सूची रूपे मम,
भाईयेर तरे भाई, लहिबे ‘प्रफुल्ल श्रम’
स्वधर्म
सीतामऊ राज्य के ठाकुर खुमाणसिंह ने कालिया शतक लिखकर उसे संशोधन के लिये केसरीसिंह को भिजवाया। इसमें एक दोहा जर्मन के बादशाह कैसर की पराजय को लक्ष्य करके लिखा गया था। यह दोहा इस प्रकार था-
अंग्रेजों सूं आय, भिड़ियो केसर भूल सूं।
खोपट माहें खाय, कुरब बिगाड़्यो कालिया।
अर्थात् केसर ने बड़ी गलती की जो अंग्रेंजों से आकर लड़ा। इसलिये उसे सिर में चोट खानी पड़ी और उसकी तलवार भी भोंटी हो गई। अर्थात् हानि के अतिरिक्त और कोई परिणाम नहीं निकला।
केसरीसिंह ने इस दोहे को अपने ऊपर व्यंग्य समझा। स्वाभिमानी केसरीसिंह ने क्रोध से तिलमिलाकर पांच दोहे लिखकर ठाकुर खुमांणसिंह को भिजवाये। केसरीसिंह द्वारा लिखे गये पांच दोहे इस प्रकार थे-
धन रे बल धणियाप,, सटल्या नर भी सांचवै।
पोरस तणे प्रताप, कठिन वडप्पण कालिया।।
अर्थात्- सत्ता के बल पर तो निकम्मे मनुष्य भी स्वामित्व का अधिकार पा जाते हैं परंतु हे कालिया! अपने पौरुष के बल पर बड़प्पन प्राप्त करना निश्चय ही कठिन काम है।
जन्मभूत जे जोय, गोरा पगतल गंजती
खत्रवट सारी खोय, कूड़ा अंजसै कालिया।।
जिन्होंने बिना किसी प्रतिरोध के अपनी मातृभूमि को अंग्रेजों के पांवों वले रोन्दे जाते देख, अपना क्षात्रत्व लजाया है, हे कालिया! वे लोग अब व्यर्थ ही थोथी शान बघार रहे हैं।
गरवमेंट री गाय, बणिया ठाकुर वाजवै।
कुरब बतावै काय, करतब हीणा कालिया।।
ब्रिटिश सत्ता के आगे दीन बनकर, बनिये की तरह लेन-देन में’विश्वास रखने वाले भी ठाकुर कहलाते हैं। हे कालिया ! ऐसे ओछे कार्य करने वाले व्यक्ति अब अपनी कौनसी इज्जत का प्रदर्शन कर रहे हैं ?
खोपट मांहे खाय, गोरां पग चूमें गजब।
निजला कुरबां न्हाय, करम बिहूणा कालिया।।
अपने स्वामित्व के सम्मान को खोकर भी आश्चर्य है कि ये शासकगण गोरे अंग्रेजों के तलुवे चाट रहे हैं। हे कालिया ! ये अभागे इसके बावजूद गर्व करते हुए तनिक लज्जित नहीं होते।
केहर री कुळकाण, भिड़णो, सो किम भूलवे।
नाम धरम पहचाण, कोइक जाणे कालिया।।
वनराज सिंह के समान केसरीसिंह की कुल मर्यादा तो टक्कर लेना ही है। उसे वह किस प्राकर भूल सकता है। हे कालिया! अपने नाम और जाति धर्म के अनुकूल कर्त्तव्य निभाना तो बिरले ही जानते हैं।
खुमांणसिंह ने केसरीसिंह को स्थिति स्पष्ट करते हुए लिखा कि मेरा दोहा जर्मनी के कैसर के लिये था न कि आपके लिये। इसलिये अब मैं कालिया शतक में से अपना दोहा निकाल रहा हूँ और आपके लिखे पांच दोहे सम्मिलित कर रहा हूँ।
बुद्ध-चरित का हिन्दी में अनुवाद
प्रमुख बौद्ध विद्वान अश्वघोष ने महात्मा बुद्ध की जीवनी को बुद्ध-चरित के नाम से लिखा जिसे विश्व की समस्त भाषाओं में अनूदित किया गया। स्वतंत्रता प्राप्ति से पहले इसे भारत के विभिन्न विश्वविद्यालयों में संस्कृत भाषा में स्नातक एवं स्नातकोत्तर भाषाओं में पढ़ाया जाता था। जब केसरीसिंह मेवाड़ दरबार की नौकरी में थे तो उन्होंने महाराणा के सरस्वती भण्डार में बुद्ध चरित की एक प्रति देखी। केसरीसिंह को यह इतनी पसंद आई कि उन्होंने इसकी एक हस्तलिखित प्रतिलिपि तैयार करके अपने पास रख ली। ई.1935 में केसरीसिंह ने मात्र दो माह की अवधि में इस पुस्तक के 16 सर्गों का हिन्दी में अनुवाद किया। इससे पहले बुद्ध चरित का कोई प्रमाणिक हिन्दी अनुवाद उपलब्ध नहीं था। केसरीसिंह ने इस पुस्तक का सत्रहवां अध्याय महारानी गर्ल्स हाई स्कूल कोटा की प्रधानाध्यापिका कुमारी रामप्यारी शास्त्री के लिये छोड़ दिया जो चाहती थीं कि उनका नाम भी इस पुस्तक के साथ जुड़े। ई.1940 में जयपुर के विद्याभूषण हरिनारायण ने यह अनुवाद नागरी प्रचारिणी सभा काशी को प्रकाशनार्थ भिजवाया। कुछ समय बाद ही केसरीसिंह का निधन हो गया, इस कारण इस विषय में आगे कोई प्रगति नहीं हो सकी।
कविराजा श्यामलदास की जीवनी
महामहोपध्याय कविराजा श्यामदलास दधिवाड़िया का जन्म ई.1836 में हुआ था। उन्होंने वीर विनोद नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की जिसमें मेवाड़ का इतिहास दिया गया है। यह ग्रंथ भारत के इतिहास की महत्वपूर्ण थाती है। श्यामलदास, केसरीसिंह के पिता कृष्णसिंह के मामा थे। इसलिये केसरीसिंह आजीवन उनके घनिष्ठ सम्पर्क में रहे। केसरीसिंह, कविराजा के अंतिम समय में भी उनके साथ थे। केसरीसिंह ने अपने जीवन के अंतिम वर्ष में कविराजा की जीवनी लिखकर पूरी की। इस जीवनी का राजस्थान के इतिहास में विशेष महत्व है।