खोखर बड़ो खुराकी, खाय ग्यो अप्पा सरीखो डाकी।
जून 1755 में जालौर से पहला शुभ समाचार आया कि महाराजा विजयसिंह के सेनापति पोमसी भण्डारी ने मराठों को जालौर शहर से खदेड़ कर दूर तक दौड़ा दिया। बहुत समय बाद महाराजा ने कोई शुभ समाचार सुना था। उधर जोधपुर से भी लगातार शुभ समाचार मिलने लगे कि सिंधिया की सेना लाख प्रयास करने पर भी जोधपुर दुर्ग में प्रवेश नहीं कर पा रही।
अब तक मारवाड़ रियासत के प्रत्येक गाँव तक यह समाचार पहुँच चुका था कि उनके राजा को मराठों ने नागौर के दुर्ग में घेर रखा है। इसलिये मारवाड़ की जनता अपने राजा की रक्षा करने के लिये घरों से निकल पड़ी। दूरस्थ गाँवों से भी मई-जून की भयानक गर्मियों की परवाह किये बिना, सजे-धजे, सजीले नवयुवकों के बड़े-बड़े जत्थे हथियारों से सुसज्जित होकर नागौर पहुँचने लगे।
उन्हीं दिनों पानी की कमी से तंग आकर जयप्पा ने अपनी सैनिक चौकियाँ नागौर से हटाकर ताऊसर में स्थापित कीं। इस परिस्थिति का लाभ उठाकर महाराजा के आदमी कुछ सैनिक और रसद सामग्री दुर्ग में पहुँचाने में सफल रहे।
मारवाड़ रियासत के राठौड़ राजा को मराठों द्वारा घेर लिया गया जानकर आसपास की राजपूत रियासतों से भी सैनिकों के दल स्वेच्छा से नागौर पहुँचने लगे। जयप्पा सिंधिया समझ गया कि जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा, महाराजा का पलड़ा भारी होता जायेगा। इसलिये उसने तुरंत ही कोई कार्यवाही करने का मन बनाया।
महाराजा विजयसिंह अब भी मराठों को पचास लाख रुपये और अपदस्थ महाराजा रामसिंह को बड़ी जागीर देने को तैयार था किंतु जयप्पा सिंधिया रामसिंह को जोधपुर की गद्दी पर बैठाये बिना विजयसिंह का पीछा छोड़ने को तैयार नहीं था।
जय अप्पा सिंधिया अत्यंत हठी व्यक्ति था। हठी व्यक्ति अपने आगे किसी को कुछ नहीं गिनता। हठ के कारण वह अपने लिये सारे रास्ते बंद कर लेता है। उसके लिये तो विधाता की ओर से अंत में केवल सर्वनाश का मार्ग ही खुला छोड़ा जाता है। जयप्पा के लिये भी अब केवल यही मार्ग बचा हुआ था। उसका विनाश शनैः शनैः निकट आता जा रहा था।
जब तक मई जून की गर्मियाँ थीं, तब तक तो जय अप्पा सिंधिया अपने घोड़ों के लिये घास और पानी के लिये चिंतित रहा किंतु जब वर्षा आरंभ हो गई तब उसकी यह चिंता भी जाती रही। अब उसने महाराजा पर नये सिरे से शिकंजा कसने की तैयारी की।
महाराजा ने देखा कि जयप्पा किसी तरह से नहीं पसीज रहा तो उसने कुटिल राजनीति का मार्ग अपनाने का निर्णय लिया। उसने एक गुप्त योजना बनाई और अपने विश्वस्त साईंदास चौहान को आदेश दिया कि दो साहसी, स्वामीभक्त और चतुर आदमियों को मेरे पास भेजो। साईंदास ने उसी दिन अपने विश्वास के दो सिपाही केसरखां खोखर और कान्हा गहलोत को महाराजा की सेवा में प्रस्तुत किया।
अगले ही दिन मराठों ने दो व्यापारियों को अपने सेनापति जयप्पा सिंधिया के शिविर के बाहर जोर-शोर से झगड़ा करते हुए देखा। उस समय जयप्पा अपने शिविर में स्नान कर रहा था। उसके कानों तक भी इन व्यापारियों का झगड़ा पहुँचा। सिंधिया ने झगड़े का कारण जानने के लिये दोनों व्यापारियों को शिविर के भीतर बुलाया। दोनों व्यापारियों ने सिंधिया के समक्ष एक-दूसरे पर आरोप लगाया कि वे साझे में व्यापार चलाते हैं किंतु उसका साथी उसके साथ धोखा करके अधिक धन हड़पना चाहता है। उन्होंने सिंधिया से न्याय करने की भी प्रार्थना की। जयप्पा ने उन दोनों से कहा कि तुम बैठो, मैं स्नान करके तुम्हारा न्याय करूंगा।
सिंधिया फिर से स्नान करने में व्यस्त हो गया। दोनों छद्मभेषधारी सैनिक यही चाहते थे। जैसे ही उन्होंने पाया कि सिंधिया का ध्यान उन पर से हट गया है, वे दोनों सैनिक अपने कटारें निकाल कर सिंधिया पर टूट पड़े। सिंधिया को संभलने का अवसर ही नहीं मिला। शिविर के भीतर मार-पीट और छीना-झपटी की आवाजें सुनकर जब तक बाहर खड़े मराठा प्रहरी भीतर आते, तब तक सिंधिया बुरी तरह घायल हो चुका था। 24 जुलाई 1755 का स्नान वह सिंधिया के जीवन का अंतिम स्नान सिद्ध हुआ।
मराठा सैनिकों ने उसी समय केसरखाँ खोखर और कान्हा गहलोत को पकड़कर मार डाला। मरूधरपति के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग करने वाले इन सिपाहियों का नाम सदा के लिये मारवाड़ के इतिहास में अंकित हो गया। उसके बाद से मारवाड़ के गाँवों में यह कहावत चल निकली-
खोखर बड़ो खुराकी, खाय ग्यो अप्पा सरीखो डाकी।