जब राज्य के लगभग सारे सरदार एक बार फिर अपने राजा को छोड़कर मालकोसनी जा बैठे और शाहमल भी पुनः राजा को छोड़कर चला गया तो मरुधरानाथ ने उनके पीछे जाने का विचार किया। आज से तीस वर्ष पूर्व भी महाराजा अपने सरदारों को मनाकर लाया था। पासवान कतई नहीं चाहती थी कि मरुधरानाथ किसी भी हाल में राजधानी से बाहर जाये। उसे आशंका थी कि सरदार उसेे या तो बंदी बना लेंगे या घेर कर मार डालेंगे किंतु मरुधरानाथ अब जीवन के उस मोड़ पर पहुँच चुका था जहाँ मृत्यु का भय उसके लिये महत्वपूर्ण नहीं रह गया था। हाँ, अपने ही सरदारों के हाथों अपमानित होकर बंदी बनाये जाने की आशंका अवश्य उसे सताती थी। यही कारण था कि निर्णय लेने में इतने दिन व्यतीत हो गये और मरुधरपति सरदारों को मनाने के लिये राजधानी से बाहर नहीं निकला। अब जबकि विद्रोही सरदारों के राजपूत राजधानी को घेरकर बैठ गये तो मरुधरपति ने सरदारों को मनाने के लिये राजधानी से बाहर जाने का निश्चय किया। उसकी इच्छा थी कि होली आने से पहले वह अपने सरदारों को फिर से गढ़ में ले आये।
महाराज को बिना किसी सेना के नगर से बाहर निकलते देखकर राजधानी को घेर कर बैठे राजपूतों के आश्चर्य का पार न रहा। वे तो आशा कर रहे थे कि किसी दिन उन पर नगर की प्राचीर से तोप के गोलों की बरसात होगी किंतु यहाँ तो कुछ और ही हो रहा था। अपने राजा को निहत्था निकलते देखकर राजपूतों ने हथियार धरती पर रखकर अपने माथे उसके चरणों में धर दिये। मरुधरानाथ उन राजपूतों का अभिवादन स्वीकार करता हुआ मालकोसनी पहुँचा। जब सरदार वहाँ भी नहीं मिले तो वह बीसलपुर पहुँचा।
सरदारों को राजा के आगमन की पल-पल की सूचना थी किंतु वे इस संशय में अब तक दूरी बनाये हुए थे कि पासवान इस आड़ में कोई धोखा न करे किंतु जब राजा अपने निजी सेवकों के साथ बिलकुल निहत्था बीसलपुर पहुँच गया तो पहले की ही तरह चाम्पावत, कूम्पावत, ऊदावत और मेड़तिये सरदार मरुधरानाथ की अगवानी के लिये अपने डेरे छोड़कर सामने आये और बड़े सम्मान के साथ उसे अपने डेरों में ले गये। अपने सरदारों को फिर से अपने समक्ष नतमस्तक खड़े देखकर मरुधर नरेश के नेत्रों से प्रसन्नता के अश्रु निकल पड़े। रक्त ने एक बार पुनः सिद्ध कर दिया था कि वह हर हाल में पानी से मोटा ही होता है!
जब मेल-मिलाप की औपाचारिकताएँ पूरी हो गईं तो मरुधरानाथ ने सरदारों से कहा-‘बाप-दादों का राज छोड़कर यहाँ कहाँ आ बैठे हो?’
-‘महाराज! गढ़ में चलकर क्या करें, वहाँ हमारी तो कुछ बात चलती नहीं, पासवान ही सब कुछ है। ठाकुरों की जागीरें तागीर कर लीं। गोले घोड़ों पर चढ़कर घूम रहे हैं। पासवान का पुत्र गद्दी पर बैठेगा तो यही सब होगा। फिर हमारी क्या आवश्यता है?’
-‘पासवान को अब से दरबार में न आने दिया जायेगा। आप लोग चलकर जोधपुर की जैसी व्यवस्था करेंगे, मैं स्वीकार कर लूंगा किंतु मैं कोई रक्तपात नहीं चाहता।’
-‘आपकी बातों का क्या भरोसा स्वामी? आप अभी तो यह कह रहे हैं किंतु जोधपुर पहुँचते ही बदल जायेंगे।’ सरदारों ने प्रतिवाद किया।
-‘आप लोग भी तो पासवान को चैन से नहीं बैठने देते। नित्य ही गुप्तचर सूचनाएं देते हैं कि सरदार आज पासवान को कैद कर लेंगे और कल मार डालेंगे। जब आप ऐसा करेंगे तो पासवान भी ऐसा ही करेगी।’
-‘यदि पासवान राज चलायेगी और अपने पुत्र को गद्दी पर बैठायेगी तो ऐसा वातावरण बनेगा ही।’
-‘यह क्यों भूलते हैं कि शेरसिंह हमारा कुँवर है?’
-‘आपने उसे दासी की गोद में डाल दिया, इससे वह अब आपका कुँवर नहीं रहा, दासी-पुत्र हो गया।’
-‘तो?’
-‘शेरसिंह किसी हालत में राजा नहीं बनेगा। हमारी औलादें एक दासी-पुत्र की चाकरी नहीं करेंगी।’
-‘तो कौन बनेगा?’ राजा ने कातर होकर पूछा।
-‘शेरसिंह के अतिरिक्त जिसे भी आप चाहेंगे।’
-‘कुँवर सूरसिंह को टीका दे दो।’
-‘स्वीकार है।’
-‘तो फिर ठीक है, अब जोधपुर चलो।’
-‘अन्नदाता कुछ दिन यहीं विश्राम करें। फिर जोधपुर लौट चलेंगे।’ सरदारों ने कहा। राजा ने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया।
मरुधरानाथ यह देखकर प्रसन्न था कि सब कुछ वैसा ही हो रहा था जैसा वह सोच कर आया था किंतु उसे पता नहीं था कि उसके निष्ठुर सामंतों ने इस बार इस प्रहसन की कथा में कुछ प्रच्छन्न प्रसंग भी रचे थे। महाराजा को इन प्रसंगों की जानकारी यवनिका पतन के पश्चात् ही होने वाली थी।
मरुधरानाथ से पुनः मेल मिलाप होने की प्रसन्नता में सरदारों ने कई दिनों तक उत्सव और दावतों का आयोजन किया। उन्होंने महाराजा को पूरी तरह प्रसन्न रखने का प्रयास किया और कोई न कोई बहाना करके उसे बीसलपुर में ही रोके रखा। यहाँ तक कि मरुधरानाथ ने होली भी बीसलपुर में ही मनाई। जब शीतला सप्तमी भी निकल गई तो मरुधरपति ने सरदारों को जोधपुर कूच का आदेश दिया। सरदार इस बार जोधपुर कूच के लिये सहमत हो गये। अभी ये लोग मालकोसनी तक पहुँचे ही थे कि जोधपुर से भयानक सूचना आई- कुँवर भीमसिंह ने जोधपुर नगर और गढ़ पर अधिकार कर लिया।
इस सूचना से मरुधरानाथ का माथा ठनका। अब उसे समझ में आया कि क्यों सरदार उसे कोई न कोई बहाना करके बीसलपुर में रोके हुए थे किंतु अब वह लाचार था। उसे जोधपुर नगर और दुर्ग का वैसे भी कोई चाव नहीं था, जीवन के बचे हुए दिन वह कहीं भी आराम से निकाल सकता था किंतु पासवान जोधपुर में थी, यही एक भय सताता था। कुँवर भीमसिंह अपनी पुरानी शत्रु को अकेली पाकर किसी भी हाल में जीवित नहीं छोड़ने वाला था। इस सूचना के बाद भी महाराजा अपने सरदारों के साथ जोधपुर की तरफ बढ़ता रहा और बालसमंद झील पर पहुँचकर डेरा जमाया। सामंतों द्वारा रचित प्रच्छन्न प्रसंगों पर से कई रहस्यमयी पर्दे उठने अभी शेष थे।