मेवाड़ के संयुक्त राजस्थान में विलय हो जाने के बाद जयपुर, जोधपुर, बीकानेर और जैसलमेर के राजाओं को घेरकर राजस्थान की तरफ लाया जाना था। ये चारों राज्य, राजस्थान में विलय किये जाने का जोरदार विरोध कर रहे थे। बीकानेर राज्य में तो विधिवत् विलय विरोधी मोर्चा बना लिया गया था जिसकी सहायता के लिये महाराजा सादूलसिंह ने अपनी थैलियों के मुंह खोल दिये। जयपुर नरेश मानसिंह भी विलय के प्रस्ताव से प्रसन्न नहीं थे। फिर भी विलय अवश्यम्भावी था जिसे टाला नहीं जा सकता था। सरदार पटेल शीघ्रातिशीघ्र इस कार्य को निबटा लेना चाहते थे। उन्होंने वी. पी. मेनन को इस सम्बन्ध में कार्यवाही करने के निर्देश दिये।
11 जनवरी 1949 को वी. पी. मेनन ने जयपुर राज्य के महाराजा तथा दीवान सर वी. टी. कृष्णामाचारी से राज्य के विलय पर वार्त्ता की। इस वार्त्ता के दौरान महाराजा जयपुर ने शर्त रखी कि उन्हें इस नये राज्य का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाये एवं जयपुर नये राज्य की राजधानी हो। मेनन ने महाराजा को जवाब दिया कि इन बातों पर तब विचार किया जा सकता है जब इन मुद्दों पर विस्तार से वार्त्ता की जायेगी।
मेनन का तात्कालिक उद्देश्य राजाओं को उनके राज्य के राजस्थान संघ में विलय के लिये सैद्धांतिक तौर पर सहमत करने का था। इससे सरदार पटेल 14 जनवरी 1949 को प्रस्तावित उदयपुर यात्रा के दौरान वृहत् राजस्थान के निर्माण की योजना की घोषणा कर सकते थे। मेनन ने एक प्रारूप तैयार किया जिसे महाराजा और उनके दीवान, दोनों ने स्वीकार कर लिया। इसका मसौदा तार द्वारा जोधपुर और बीकानेर के महाराजाओं को भेज दिया गया। उसी शाम जोधपुर के महाराजा ने इस घोषणा की सहमति के बारे में मेनन को सूचित किया। बीकानेर के महाराजा ने भी उस प्रारूप पर अपनी सहमति जताते हुए मेनन को वापस तार भिजवाया।
12 जनवरी 1949 को मेनन ने उदयपुर जाकर महाराणा भूपालसिंह से बात की। महाराणा ने जयपुर, जोधपुर, बीकानेर एवं जैसलमेर को राजस्थान में मिलाये जाने की स्वीकृति दे दी। 14 जनवरी 1949 को पटेल ने उदयपुर में एक विशाल जनसभा को सम्बोधित करते हुए वृहत् राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी। सरदार पटेल ने अपने भाषण में कहा कि जयपुर, जोधपुर, बीकानेर एवं जैसलमेर के राजा सैद्धांतिक रूप से राजस्थान संघ में एकीकरण के लिये सहमति दे चुके हैं। अतः वृहत् राजस्थान का निर्माण शीघ्र ही सच्चाई में बदल जायेगा। यद्यपि इस योजना के विस्तार में जाना अभी शेष है।
इस घोषणा का पूरे देश में स्वागत किया गया। इस घोषणा के बाद रियासती मंत्रालय ने वृहत् राजस्थान के निर्माण के कार्य से सम्बद्ध तीन पक्षों से अलग-अलग तथा साथ बुलाकर बात की गयी। पहला पक्ष जयपुर, जोधपुर, बीकानेर तथा जैसलमेर राज्यों के राजाओं तथा उनके सलाहकारों का था। दूसरा पक्ष संयुक्त राजस्थान संघ में पहले से ही सम्मिलित राज्यों के राजाओं का था तथा तीसरा पक्ष हीरालाल शास्त्री, जयनारायण व्यास, माणिक्यलाल वर्मा और गोकुलभाई भट्ट आदि प्रजामण्डल नेताओं का था।
वृहत् राजस्थान का राजप्रमुख, मंत्रिमण्डल, प्रशासकीय स्वरूप तथा राजधानी आदि विषयों पर विचार करने हेतु 3 फरवरी 1949 को रियासती विभाग के तत्वावधान में दिल्ली में एक बैठक आयोजित की गयी जिसमें रियासती विभाग के सचिव वी. पी. मेनन, प्र्रांतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष गोकुलभाई भट्ट, संयुक्त राजस्थान के प्रधानमंत्री माणिक्यलाल वर्मा, जोधपुर राज्य के प्रधानमंत्री जयनारायण व्यास तथा जयपुर राज्य के मुख्य सचिव (मुख्यमंत्री अथवा प्रधानमंत्री) हीरालाल शास्त्री ने भाग लिया।
बैठक में सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि जयपुर के महाराजा सवाई मानसिंह को जीवन पर्यन्त राजप्रमुख बनाया जाए। जोधपुर और बीकानेर के शासक इसके पक्ष में नहीं थे किंतु वे भारत सरकार के दबाव का सामना नहीं कर सके किंतु महाराणा भूपालसिंह ने इसे स्वीकार नहीं किया। महाराणा ने स्वयं को राजप्रमुख बनाये जाने का दावा किया। राजपूताना के अन्य शासकों, जननेताओं और भारत सरकार को महाराणा को राजप्रमुख बनाने में कोई आपत्ति नहीं थी किंतु महाराणा शारीरिक दृष्टि से सक्षम नहीं थे और स्वतंत्रता पूर्वक बाहर आ-जा नहीं सकते थे।
भावनात्मक आधार पर लोकप्रिय नेताओं ने सुझाव दिया कि महाराणा को संघ के सामान्य प्रशासन से अलग कोई अलंकृत स्थिति प्रदान कर दी जाये तथा उन्हें महाराज शिरोमणि की उपाधि दी जाए। महाराणा ने इसे स्वीकार नहीं किया और जोर डाला कि उन्हें महाराज प्रमुख कहा जाए। तब यह निश्चय किया गया कि महाराणा को महाराज प्रमुख बनाया जाये किंतु यह पद तथा उन्हें दिये जाने वाले भत्ते उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाएंगे। महाराणा को आश्वस्त किया गया कि उन्हें समारोहों और उत्सवों पर 21 तोपों की सलामी वाले राजाओं की श्रेणी में सम्मिलित किया जायेगा। जयपुर के महाराजा भी महाराणा के सम्मान को देखते हुए स्वेच्छा से इस पर सहमत हो गये। महाराणा भूपालसिंह ने भी इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया कि उनका पद तथा उनको दिये जाने वाले भत्ते उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाएंगे। उन्हें महाराज प्रमुख बना दिया गया।
बीकानेर द्वारा भारत सरकार की आलोचना
भारत सरकार द्वारा महाराणा मेवाड़ को महाराज प्रमुख बनाया जाना तथा विशेष प्रिवीपर्स स्वीकार किया जाना, बीकानेर को पसंद नहीं आया। बीकानेर के महाराजकुमार करणीसिंह ने भारत सरकार के इस काम की तुलना अंग्रेजों द्वारा राजाओं को तोपों की सलामी के रूप में दिये जाने वाले लालच से करते हुए लिखा है- ‘बहुत से मामलों में आजीवन राजप्रमुख का पद देना एक शासक के लिये विलय स्वीकार करने का बहुत बड़ा प्रलोभन था। कुछ राजाओं को जिनका स्वास्थ्य खराब था, विशेष प्रिवीपर्स दी गयी।’
शासकों के प्रिवीपर्स का निर्धारण
शासकों के प्रिवीपर्स का निर्धारण करते समय लोकप्रिय नेताओं द्वारा सुझाव दिया गया कि जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर के राज्य इंदौर के समान ही स्थिति रखते थे जिसके महाराजा को 15 लाख रुपये प्रिवीपर्स तथा 2.5 लाख रुपये उपराजप्रमुख के पद के भत्ते के रूप में दिये गये थे। अतः जयपुर, जोधपुर तथा बीकानेर के शासकों को 17.5 लाख रुपये दिये जाएं तथा जयपुर के महाराजा को 5.5 लाख रुपये राजप्रमुख पद के भत्ते के रूप में दिये जाएं। अंत में बीकानेर को 17 लाख रुपये, जोधपुर को 17.5 लाख रुपये तथा जयपुर को 18 लाख रुपये प्रिवीपर्स देना निश्चित हुआ। राजप्रमुख को 5.5 लाख रुपये वार्षिक भत्ता दिया जाना निश्चित किया गया।
उपराजप्रमुखों की नियुक्ति
3 फरवरी 1949 की बैठक में निश्चित किया गया कि प्रस्तावित संघ में जोधपुर तथा कोटा के शासकों को वरिष्ठ उपराजप्रमुख और बूंदी तथा डंूगरपुर के शासकों को कनिष्ठ उपराजप्रमुख बनाये जाए। उपराजप्रमुखों का कार्यकाल पाँच वर्ष निश्चित किया जाये किंतु जयुपर के शासक को आजीवन राजप्रमुख बनाया जाए।
महाराणा प्रताप का सपना साकार
30 मार्च 1949 को भारत के गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने वृहत् राजस्थान का उद्घाटन किया। इस ऐतिहासिक अवसर पर पटेल ने महाराणा प्रताप को स्मरण करते हुए कहा कि हमने महाराणा प्रताप का स्वप्न साकार कर दिया है।