उदयपुर के महाराणा राजसिंह (द्वितीय) की मृत्यु के बाद 3 अप्रेल 1761 को उसका चाचा अड़सी उदयपुर का महाराणा बना। उसका वास्तविक नाम अरिसिंह था किंतु अपने अड़ियल स्वभाव के कारण उसे पूरे मेवाड़ में अड़सी ही कहा जाता था। इधर तो महाराणा राजसिंह की मृत्यु के बाद अड़सी मेवाड़ की गद्दी पर बैठा और उधर कुछ दिनों बाद राजसिंह की विधवा रानी के गर्भ से राजकुमार रतनसिंह का जन्म हुआ। राज्य के कई सामंत अड़सी के स्थान पर राजकुमार रतनसिंह को मेवाड़ की गद्दी पर बैठाने के लिये लामबद्ध हो गये। इससे राज-परिवार में उत्तराधिकार को लेकर युद्ध छिड़ने की तैयारियां आरंभ हो गईं।
अभी ये तैयारियां हो ही रही थीं कि राजकुमार रतनसिंह की मृत्यु हो गई। विद्रोही सामंतों के पैरों के नीचे से धरती खिसक गई। अब कोई ऐसा आधार नहीं था जिसके सहारे वे महाराणा अड़सी को सीधे-सीधे चुनौती दे सकते थे। इसलिये उन्होंने एक चाल चली। शिशु रतनसिंह की मृत्यु की बात गोपनीय रखी गई और किसी दूसरे बालक को रतनसिंह की जगह स्थापित कर दिया गया। अब वे इसी बालक को उदयपुर का महाराणा बनाने के लिये संघर्ष करने लगे।
एक तो यह समय ही ऐसा था कि सरदारों और सामंतों की विश्वसनीयता और स्वामीभक्ति असंदिग्ध नहीं रही थी, उस पर अड़सी के खराब स्वभाव ने कोढ़ में खाज का काम किया। अपने कठोर स्वभाव के कारण उसने अपने प्रायः सारे सामंतों को नाराज कर लिया। इन सामंतों ने राजकुमार रतनसिंह के नेतृत्व में विद्रोह का बिगुल बजा दिया। विद्रोहियों से निबटने के लिये अड़सी ने मरुधरानाथ महाराजा विजयसिंह से सहायता मांगी। अपने स्वभाव के विपरीत अड़सी ने बड़े मर्मस्पर्शी शब्दों में मरुधरानाथ से सहायता उपलब्ध करने की गुहार लगाई।
उस समय महाराजा विजयसिंह राजपूताने का एकमात्र प्रतापी, बुद्धिमान और बहुप्रतिष्ठित शासक था। यद्यपि वह भी अपने सामंतों के छल और कपट से त्रस्त था, उसे भी महादजी सिन्धिया खाये जा रहा था किंतु फिर भी उसका प्रताप चहुंदिशि मुँह चढ़कर बोल रहा था। उसने महाराणा की प्रार्थना स्वीकार कर ली।
ऐसा करने के कई कारण थे। सैंकड़ों साल से मारवाड़ और मेवाड़ की बेटियाँ एक दूसरे के यहाँ ब्याही जाती थीं। महाराणा अरिसिंह की बहिन भी महाराजा विजयसिंह की रानी थी। सैंकड़ों साल के इतिहास में मुसीबत भरे ऐसे कई क्षण थे जो मारवाड़ और मेवाड़ ने एक साथ मिलकर झेले थे। इसलिये महाराजा विजयसिंह ने राठौड़ों की एक सेना महाराणा की सहायता के लिये भेज दी।
जब विद्रोही राजकुमार रतनसिंह तथा उसके पक्ष के सामंतों को पता चला कि महाराणा की सहायता के लिये मारवाड़ की सेना आ रही है तो उन्होंने महादजी सिन्धिया से मरुधरानाथ के विरुद्ध शिकायत की। महादजी ने मरुधरानाथ को पत्र लिखकर चेतावनी दी कि पिछले तीन सालों की बकाया खण्डनी तत्काल चुकाये और मेवाड़ से दूर ही रहे अन्यथा परिणाम भयंकर होंगे। इस धमकी से मरुधरपति सहम गया। उसने महाराणा की सहायता करने का निश्चय त्यागकर तीन लाख अठ्ठासी हजार आठ सौ पैंतीस रुपये महादजी सिन्धिया को भिजवाये और पाँच लाख दस हजार रुपया अगले तीन सालों में चुकाने का वचन दोहराया।
राठौड़ों को मेवाड़ से दूर रहने का आदेश देकर महादजी सिन्धिया ने विशाल मराठा वाहिनी लेकर उदयपुर घेर लिया। छः माह तक वह उदयपुर को चारों ओर से घेरकर पड़ा रहा। अंत में महाराणा ने उसे चौंसठ लाख रुपये देकर उससे संधि कर ली। इतना ही नहीं महाराणा ने विद्रोही राजकुमार रतनसिंह को मेवाड़ में बड़ी जागीर देना भी स्वीकार कर लिया। महादजी ने भले ही रतनसिंह को राज्य दिलवाने के नाम पर मेवाड़ पर आक्रमण किया था किंतु उसे वास्तव में रतनसिंह से कोई लेना देना नहीं था। इसलिये रुपया मिलते ही वह उज्जैन की तरफ चला गया।
यद्यपि रुपया मिलने के बाद महादजी ने महाराणा से एक बार भी नहीं कहा कि वह रतनसिंह को जागीर दे किंतु अपने वचन के अनुसार महाराणा ने रतनसिंह को मेवाड़ रियासत के भीतर काफी बड़ी जागीर दे दी ताकि वह संतुष्ट होकर अपनी विरोधी कार्यवाहियां बंद कर दे किंतु रतनसिंह को संतोष नहीं हुआ। वह फिर से मेवाड़ में लूटपाट मचाने लगा तथा कुंभलगढ़ पर अधिकार करके बैठ गया। सलूम्बर, बीजोलिया, बदनोर, आमेट, घाणेराव तथा कानोड़ आदि ठिकाणों के ठिकानेदार, सामंत और जागरीदार उसके साथ हो गये।
महाराणा ने इन विरोधी ठाकुरों को अपनी हरकतों से बाज आने के लिये चेताया। इस पर ये विद्रोही ठाकुर महाराणा अड़सी के प्राण लेने पर तुल गये। इस पर महाराणा ने पुनः महाराजा विजयसिंह के पास प्रस्ताव भेजा कि यदि आप रतनसिंह को कुचलने में सहायता करें तो मेवाड़ का गोड़वाड़ परगना मारवाड़ रियासत को दे दिया जायेगा। महाराजा ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। उसने उसी समय एक सेना उदयपुर भेजकर महाराणा को अपनी सुरक्षा में ले लिया। दूसरी सेना भेजकर गोड़वाड़ पर अधिकार कर लिया तथा नाथद्वारा में अपनी सैनिक चौकी स्थापित कर दी ताकि रतनसिंह कुंभलगढ़ से निकलकर उदयपुर की तरफ न जा सके।
इस पर अड़सी ने कहलवाया कि यह सब तो ठीक किंतु रतनसिंह को कुचलने के लिये कुंभलगढ़ पर सेना भेजो। मरुधरानाथ ने रतनसिंह के पीछे सेना भेजने में कोई रुचि नहीं दिखाई क्योंकि वह नहीं चाहता था कि महादजी फिर से सेना लेकर लौट आये। इस पर महाराणा ने कई बार संदेशवाहक भेजकर महाराजा को उसके कर्त्तव्य का स्मरण करवाया किंतु महाराजा चुप होकर बैठा रहा।