जब गोलयाँ चलनी बंद हो गईं तब ठाकुर जगतसिंह ने वर्तमान स्थिति और अपने भविष्य पर नये सिरे से विचार किया। वह जानता था कि जोधपुर की सेना के समक्ष आत्म समर्पण करने का अर्थ है पासवान के हाथों अपमानजनक मृत्यु को निमंत्रण देना। गढ़ी में बैठे रहकर आठों मिसलों के सरदारों की सेना का सामना करने का अर्थ है पराजय को अधिक से अधिक एक या दो दिन के लिये दूर रखना किंतु इसका और भी खतरनाक परिणाम यह निकलेगा कि गढ़ी के भीतर का बच्चा-बच्चा मार डाला जायेगा। उसके परिवार में कोई रोने वाला तक नहीं बचेगा।
समय की इस बदली हुई चाल पर जगतसिंह हैरान था। एक समय था जब वह जोधपुर दरबार का मजबूत पाया माना जाता था। राज दरबार के प्रति उसकी निष्ठा के उदाहरण दिये जाते थे। यह वही जगतसिंह था जिसने मालानी के विशाल उपद्रव को कुचलकर भाटियों, सोढ़ों और जोहियों को ऐसा पाठ पढ़ाया था जिसे वह आने वाले कम से कम दस साल तक नहीं भूलने वाले थे। आज उसी जगतसिंह को दरबार के द्वारा बागी घोषित कर दिया गया था और राठौड़ों की आठों मिसलों के सरदार उसके प्राण लेने के लिये तत्पर हो उठे थे।
सच ही कहा है किसी ने, औरत की जात ही ऐसी है! इसकी छाया पड़ने पर तो भुजंग भी अंधा हो जाता है फिर काम के गुलाम राजा की क्या शक्ति है जो नारी की छाया पड़े और अंधा भी न हो! अंधे राजा को कुछ भला बुरा नहीं सूझ रहा। वह अपने ही हाथों अपने विश्वस्त सरदारों को मरवाकर अपनी ही शक्ति क्षीण कर रहा है। उसे यह भी नहीं सूझा कि मराठे इस समय भले ही राजपूताने से दूर हों किंतु वे कभी भी अपनी तलवारें लहराते हुए लौट सकते हैं। रामसिंह के झगड़े में पहले ही मारवाड़ काफी नुक्सान झेल चुका है। फिर भी राजा अंधा हुआ पड़ा है और पासवान नागिन की तरह लहराती हुई पूरे मारवाड़ को डंस जाने के लिये तत्पर है। हाय रे दुर्भाग्य! रणबंके राठौड़ों को अब तेरे हाथों से कौन बचा सकता है। इस प्रकार मन ही मन प्रलाप करता हुआ जगतसिंह आधी रात तक गढ़ी की छत पर टहलता रहा।
वह और उसके आदमी पूरी तरह सावधान थे कि कहीं रात के अंधेरे का लाभ उठाकर भीमराज सिंघवी कोई छल न करे। उसने गढ़ी की मोरियों के पीछे छिपे अपने आदमियों पर एक दृष्टि डाली। स्वामी की शक्ति पर विश्वास करके ये लोग अपने प्राणों की परवाह न करके इन मोरियों के पीछे मोर्चा जमाये बैठे हैं। ये नहीं जानते कि सूर्यदेव के प्रकट होने के कुछ ही देर बाद मृत्यु इन्हें दबे पाँव आकर दबोच लेगी। मारवाड़ की रीत ही ऐसी है। मुट्ठी भर बाजरे का देश स्वामी के स्वाभिमान की रक्षा के लिये रक्त की नदी बहा देता है। क्या ईश्वर की दृष्टि में, मैं इन निरीह सैनिकों की मृत्यु के लिये जिम्मेदार नहीं माना जाऊँगा! इनकी मौत के बाद इनके बच्चे भूखे मरेंगे। कौन उनका पेट पालेगा! यदि ये सैनिक इस लड़ाई में नहीं मारे जाते हैं तो किसी दिन मारवाड़ की रक्षा के लिये काम आयेंगे। मैं निरर्थक ही इन्हें मृत्यु के मुख में धकेल रहा हूँ। विचारों के इस झंझावात के उठने पर ठाकुर जगतसिंह का मन बेचैन हो गया। मुझे कुछ ऐसा करना चाहिये कि मेरे आदमियों के प्राण न जायें। यह युद्ध यहीं रुक जाये।
निर्णय की घड़ी आ चुकी थी। पौ फटने में अब कुछ ही समय शेष था। उसने निश्चय किया कि वह अंधेरे में गढ़ी छोड़कर चला जाये। गढ़ी ही क्यों मारवाड़ ही छोड़ दे, मेवाड़ चला जाये। जब तक मारवाड़ में रहेगा, पासवान उसे चैन से नहीं बैठेगी, एक न एक दिन वह उसे पा ही लेगी। ठाकुर ने अपने कुँवर और ठकुराइन को बुलाकर अपना निश्चय बताया-‘मैं नहीं चाहता कि मेरे प्राणों की रक्षा करने के लिये राठौड़ वीर मारे जायें और मेरे पुत्रों को मारवाड़ में पैर धरने के लिये जगह भी न बचे। इसलिये मैं गढ़ी छोड़कर जा रहा हूँ। दिन निकलते ही तुम गढ़ी पर सफेद झण्डा लगा देना और किसी भी हालत में गोलियाँ मत चलाना।’
कुँवर तो पिता का आदेश सुनकर मौन ही रहा किंतु ठाकुराइन क्रोध से फुंफकारती हुई सी बोली-‘राजपूत रण में पीठ दिखाये तो उसके लिये धरती और स्वर्ग दोनों में ही जगह नहीं बचती। मौत तो एक दिन आनी ही है, हाथ में तलवार लेकर शत्रु का सामना करो। यदि आपके पास सिपाहियों की कमी है तो राजपूतनियों के हाथ अभी सलामत हैं।’
-‘आप यह क्यों नहीं समझतीं ठाकुराइन कि यह लड़ाई शत्रु से नहीं है, अपनों से ही है। जोधाणा हमारा दुश्मन नहीं है। राठौड़ों की आठों मिसलें हमारी दुश्मन नहीं हैं। यह तो समय की टेढ़ी चाल है। जब समय बदल जायेगा तो यही जोधाणे का दुर्ग होगा और यही आठों मिसलें होंगी, हमारे बेटे-पोते इन्हीं के साथ उठते-बैठते अच्छे लगेंगे। क्यों मारवाड़ का सर्वनाश करवाती हो?’
अपनी बात पूरी करके ठाकुर ने अपने मुँह पर ढाटा बांधा। अपनी कमर में बंधी तलवार और पीठ पर बंधी बंदूक को टटोला और लपक कर गढ़ी की दीवार पर चढ़ गया। अगले ही क्षण वह दीवार के उस ओर अदृश्य हो चुका था।
दिन निकलने के साथ ही भीमराज सिंघवी ने गढ़ी पर सफेद झण्डा फहराते हुए देखा तो उसके आश्चर्य का पार न रहा। अपनी आन-बान और शान पर मर मिटने के लिये हर क्षण तत्पर रहने वाला ठाकुर जगतसिंह अपनी ओर से युद्ध विराम की घोषणा करेगा, इसका उसे अनुमान नहीं था किंतु थोड़ी ही देर में सारी सच्चाई उसके समक्ष आ गई थी। सफेद झण्डा तो एक छलावा भर था। पंछी पिंजरा छोड़कर उड़ चुका था। मुक्त गगन में उसे ढूंढ पाना संभव नहीं था।
भीमराज ने चाहा कि ठाकुर जगतसिंह के कुँवर को अपने साथ जोधाणे ले चले किंतु आठों मिसलों के सरदारों ने कुँवर को अपने साथ ले जाने से मना कर दिया। वे जानते थे कि यदि कुँवर गढ़ में गया तो उसका क्या हश्र होगा! इसलिये उन्होंने भीमराज सिंघवी से कहा कि महाराज ने ठाकुर जगतसिंह को पकड़ कर लाने के आदेश दिये थे न कि कुँवर को। सिंघवी अपने हाथों से अपना कपाल पीटता हुआ जोधपुर के लिये लौटा। वह जानता था कि पासवान की गरम आँखें जलते हुए अंगारों की तरह उसका स्वागत करेंगी। वह महाराजा की उपस्थिति में ही इतने गंदे शब्दों का प्रयोग करेगी कि सुनने वाला शर्म से धरती में समा जाये किंतु उसके पास पासवान के समक्ष जाकर उपस्थित होने और अपनी असफलता स्वीकारने के अतिरिक्त उपाय ही क्या था!