1756 ईस्वी में महाराजा विजसिंह को मराठों के पक्ष में अजमेर खाली करना पड़ा था। इस बात का उसे खेद बना रहता था। विद्रोही ठाकुरों की समस्या में उलझे रहने के कारण पूरे पाँच साल तक मरुधरपति मराठों के विरुद्ध कुछ नहीं कर सका था किंतु जैसे ही ठाकुरों की समस्या का अंत हुआ, मरुधरपति को फिर से अजमेर तथा बीठली गढ़ का स्मरण हुआ। वह फिर से उन पर अपना अधिकार करने की योजनाएँ बनाने लगा। कुछ दिन पहले ही अहमदशाह अब्दाली ने पानीपत के मैदान में एक लाख मराठों को मार डाला था। इसलिये अजमेर तथा गढ़ बीठली पर अधिकार करने यह अच्छा अवसर था। मरुधरपति के आदेश से बालूजी जोशी ने पूरी तैयारी के साथ गढ़ बीठली को घेर लिया। जो सरदार, ठाकुर, सामंत और जागीरदार अब तक मरुधरपति के विरोध में थे, वे भी बालूजी के साथ अपनी सेनायें लेकर गढ़ बीठली को घेरने गये।
जब राठौड़ों की तोपें गरजने लगीं तो गढ़ बीठली का मराठा किलेदार घबराया। उसने महादजी सिंधिया से सम्पर्क किया। महादजी उन दिनों अजमेर से दस दिन की दूरी पर था। उसने मराठा दुर्गपति को संदेश भेजा कि किसी तरह दस दिन तक टिका रह, मैं आता हूँ। मरुधरपति से असंतुष्ट सरदारों, सामंतों, ठाकुरों और जागीरदारों ने जब सुना कि महादजी सिन्धिया सेना लेकर आ रहा है तो उन्होंने बालूजी जोशी का साथ छोड़कर महादजी का साथ देने की योजना बनाई। बालूजी को इस षड़यंत्र का पता लग गया। उसने अपना तोपखाना मेड़ता के लिये रवाना कर दिया और स्वयं भी अजमेर से चलकर मेड़ता आ गया।
उधर महादजी सांभर और बुधवाड़ा होता हुआ ठीक दसवें दिन अपनी विशाल मराठा वाहिनी लेकर अजमेर जा पहुँचा। उसने सुना कि बालूजी तोपखाना लेकर भाग गया तो उसने राठौड़ सेना का पीछा करने और उसे सबक सिखाने का मन बनाया। उसी समय कई राठौड़ सरदार बालूजी का साथ छोड़कर अपनी सेनाओं सहित, महादजी की शरण में चले गये। इन विरोधी सरदारों ने बालूजी को पकड़ने का भी विचार किया किंतु बालूजी उनके हाथ नहीं आया।
जब मेड़ता में बैठे धायभाई जगन्नाथ को राठौड़ सरदारों द्वारा धोखा दिये जाने और महादजी सिंधिया द्वारा विशाल तोपखाना लेकर मेड़ता की तरफ आने का पता चला तो वह घबरा गया। उसने भी मेड़ता खाली करके जोधपुर जाने का विचार किया लेकिन खींवसर के ठाकुर जोरावरसिंह तथा खेरवा के ठाकुर इन्द्रसिंह ने उसे पलायन की बजाय मोर्चा बांधने का परामर्श दिया। उनके परामर्श से उत्साहित होकर जगन्नाथ मेड़ता में मोर्चा बांधकर बैठ गया।
जब मरुधरपति को ज्ञात हुआ कि राठौड़ सरदारों की धोखाधड़ी से पासा उलटा पड़ गया तो उसने मुत्सद्दी गुलाबराय आसोपा को अपना दूत बनाकर महादजी सिन्धिया के पास भेजा और क्षतिपूर्ति के रूप में नौ लाख रुपये देकर संधि कर ली।
गढ़ बीठली पाने का सपना एक बार फिर अधूरा रह गया किंतु मरुधरपति की आँखों के आगे से उसका चित्र हटता ही नहीं था। मन ही मन उसने संकल्प किया कि जिस दिन विधाता उसका साथ देगा, उस दिन वह मराठों को भगाकर गढ़ बीठली पर अधिकार अवश्य करेगा। उसने महादजी से संधि अवश्य कर ली थी किंतु संधि की शर्तों को पूरी करने के लिये तैयार नहीं हुआ। पहले साल तो उसने महादजी को वार्षिक कर चुकाया किंतु अगले दो साल में वह चुप लगा गया। इस पर महादजी ने मारवाड़ पर फिर से आक्रमण करने का निश्चय किया। इस पर महाराजा विजयसिंह ने अलाकरण चारण को अपना दूत बनाकर महादजी के पास भेजा।
अलाकरण ने तीन लाख रुपये महादजी को देना स्वीकार करके महाराजा और सिन्धिया में फिर से संधि करवा दी। गढ़ बीठली तो हाथ आता नहीं था, इसके विपरीत हर बार मरुधरानाथ द्वारा मराठों को धन देना पड़ रहा था। इस बात का मरुधरानाथ को बहुत शोक होता था किंतु उसके पास कोई उपाय नहीं था। इसलिये मरुधरानाथ एक बार फिर मन मसोस कर रह गया।