गोड़वाड़ मरुधरानाथ के पेट में थी और महाराणा अड़सी अपने हठी बहनोई विजयसिंह के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर पा रहा था। राजकुमार रतनसिंह की गतिविधियों और अपने प्रमुख सामंतों के विरोध के चलते हुए महाराणा इस स्थिति में था भी नहीं कि मरुधरानाथ से बलपूर्वक गोड़वाड़ को वापस ले लेता। इसलिये अपना बुरा समय जानकर चुप बैठा रहा और अच्छे दिनों के आगमन की प्रतीक्षा करने लगा। इस तरह कई साल बीत गये। अड़सी प्रायः गोड़वाड़ को मारवाड़ के पेट में से निकालने के बारे में सोचा करता था। एक दिन इसी उधेड़-बुन में वह दरबार में बैठा हुआ था कि एक चारण के मुजरे से उसका ध्यान भंग हुआ।
-‘श्रीजी की जय हो।’ यह राठौड़ों का चारण था जो प्रायः महाराजा विजयसिंह की ओर से संदेश लेकर महाराणा के पास आता-जाता रहता था। उसे मेवाड़ के राजदरबार में बिना किसी पूर्व सूचना के उपस्थित होने की अनुमति प्राप्त थी।
-‘कहिये बारहठजी, क्या समाचार लाये हैं?’ महाराणा ने बड़ी अन्यमनस्कता से उसका स्वागत किया। महाराणा को इन दिनों राठौड़ों से विरक्ति सी हो गई थी। यद्यपि अब भी राठौड़ सेना ही उसकी अंगरक्षक सेना के रूप में नियुक्त थी।
-‘चामुण्डा की कृपा से नवकोटि मारवाड़ में सब कुशल है। उदयपुरनाथ! मरुधरानाथ महाराजा विजयसिंहजी साहिब नाथद्वारा की यात्रा पर आने की अनुमति चाहते हैं।’
-‘क्यों ?’
-‘श्रीनाथजी के दर्शनों की अभिलाषा से।’
-‘श्रीनाथजी के दर्शनों की अभिलाषा से, या किसी और अभिलाषा से।’ महाराणा ने व्यंग्य से पूछा।
-‘मरुधरानाथ की और क्या अभिलाषा हो सकती है स्वामी!’ बारहठ ने हाथ बांध कर उत्तर दिया।
-‘पहले मुगलों की और बाद में मराठों की सेवा करके मरुधरानाथ राजनीति के चतुर खिलाड़ी हो गये हैं। उनकी अभिलाषाओं के बारे में उनके अतिरिक्त और कौन जान सकता है!’
-‘आपके कुशल की मंगल कामना के अतिरिक्त मरुधरानाथ की और कोई अभिलाषा नहीं। उन्होंने कभी मुगलों की चाकरी नहीं की तथा न मराठों की सेवा करने का अधम कार्य किया। आपके मंगल की कामना करते हुए ही उन्होंने स्वयं मराठों से घिरे हुए होने पर भी राठौड़ों की सेना आपकी चाकरी में रख छोड़ी है।’ चतुर बारठ ने उत्तर दिया।
-‘राठौड़ों द्वारा की जा रही यह चाकरी हमें बहुत महंगी पड़ी है बारहठ…… और हमें ही नहीं, इतिहास गवाह है कि राठौड़ों की चाकरी मेवाड़ को सदैव भारी पड़ी है। मारवाड़ पंद्रह साल तक महाराणा कुंभकर्ण के पेट में रही, राठौड़ों को यह भी विचार नहीं रहा कि मारवाड़ उन्हें वापस कैसे मिली!’
-‘राजाओं के स्वभाव विचित्र हुआ करते हैं देव! मैं तुच्छ बारहठ क्या कह सकता हूँ!’ महाराणा के ऐसे तीखे तेवर देखकर बारहठ समझ गया कि महाराणा राठौड़ों से प्रसन्न नहीं। इसलिये वह चुप होकर खड़ा रहा। महाराणा भी काफी देर तक चुप रहा।
-‘अच्छा! मरुधरानाथ से कहना कि वे बड़ी प्रसन्नता से श्रीनाथजी के दर्शनों के लिये आयें, हम भी मरुधरानाथ के दर्शनों के लिये नाथद्वारा आयेंगे।’
महाराणा का यह उत्तर सुनकर बारहठ सहम गया। उसने महाराणा का चेहरा ध्यान से देखा, वह जानने का प्रयास कर रहा था कि महाराणा के मन में क्या है?
-‘कोई शंका मन में मत पालो बारहठ। हमारे अंगरक्षक साथ में नहीं आयेंगे। हमारे साथ मरुधरानाथ के राठौड़ सैनिक ही रहेंगे। फिर नाथद्वारा में तो मरुधरानाथ की ही सैनिक चौकी लगी हुई है।’
-‘एक अर्ज और है बापजी!’ बारहठ महाराणा के उत्तर से संतुष्ट होकर बोला।
-‘क्या?’
-‘मरुधरानाथ के साथ जंगलधर बादशाह महाराजा गजसिंहजी साहिब और किशनगढ़ के महाराजा बहादुरसिंहजी साहिब भी होंगे।’
-‘जब तीन-तीन राठौड़ राजा एक साथ आयेंगे तब फिर हम राठौड़ सैनिकों पर भरोसा कैसे कर लें!’ बारहठ की बात सुनकर महाराणा की त्यौरियाँ चढ़ गईं।
-‘राठौड़ सदैव भरोसे के योग्य रहे हैं बापजी।’
-‘इस बात को हमसे अधिक और कौन जान सकता है!’ महाराणा के स्वर में फिर से व्यंग्य उतर आया था।
-‘तो फिर राठौड़ों के लिये क्या आदेश है श्रीजी साहिब?’ बारहठ ने कुछ देर प्रतीक्षा करने के बाद दुबारा प्रश्न किया।
-‘राठौड़ों को श्रीनाथजी के दर्शनों के लिये आने दो, हम एकलिंगजी को साक्षी मानकर वचन देते हैं कि मेवाड़ की धरती पर उनका बाल भी बांका नहीं होगा। राठौड़ चाहें तो अपनी सेनायें लेकर आयें, हमें कोई आपत्ति नहीं। हाँ, रतनसिंह से उन्हें अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी।’
इस वार्त्तालाप के ठीक एक माह बाद महाराणा अड़सी, तीनों राठौड़ राजाओं के समक्ष राठौड़ों डेरे में बैठा था। महाराणा अड़सी था तो मरुधरानाथ का साला किंतु मरुधरानाथ से आयु में काफी कम था। इसलिये मरुधरानाथ ने उसे अपने पुत्र की भाँति स्नेह दिया तथा पान, फूल और इत्र से उसका स्वागत किया। महाराणा भी इस सम्मान से प्रसन्न हुआ। उसने भी अपनी ओर से तीनों राठौड़ राजाओं का सम्मान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।
तीन दिन तक चारों राजा एक दूसरे के सान्निध्य में रहे। उन्होंने साथ-साथ श्रीनाथजी के दर्शनों का लाभ उठाया। साथ-साथ गोकुलिये गुसाईंयों के उपदेश सुने और साथ-साथ पहाड़ी नालों के किनारों पर दूर तक घोड़े दौड़ाते रहे। महाराजा विजयसिंह और बहादुरसिंह गोकुलिये गुसाईंये के शिष्य हो गये थे, इसलिये वे आखेट नहीं खेलते थे, अन्यथा चारों राजा अवश्य ही आखेट के लिये भी जाते। इस अवधि में चारों शासकों के बीच, राजपूताने की राजनीतिक दुर्दशा, सामंतों में पनप रही गद्दारी की भावना, मराठों की लूट-खसोट, राजपूताने के राजाओं में परस्पर मन-मुटाव, राजाओं में दूरदृष्टि का अभाव आदि ढेरों विषयों पर घण्टों तक वार्त्तालाप हुआ। यह भी निश्चित हुआ कि राजपूतों को मराठों के विरुद्ध एक होने का प्रयास होना चाहिये। चारों ही राजा एक दूसरे के व्यवहार से संतुष्ट हुए। उन्होंने जाटों तथा कच्छवाहों में भी मित्रता करवाने के बारे में विचार-विमर्श किया।
जिस दिन राठौड़ राजाओं को मेवाड़पति से विदा लेनी थी, उस दिन महाराणा अड़सी ने बड़ी ही विनम्रता से मरुधरपति से निवेदन किया-‘चूंकि मारवाड़ की सेनाएं विद्रोही रतनसिंह को दबाने के लिये नहीं भेजी गई हैं, इसलिये गोड़वाड़ का परगना फिर से मेवाड़ को लौटा दें।’
यह बात सुनते ही मरुधरानाथ की त्यौरियों पर बल पड़ गये। कुछ क्षण सोचने के पश्चात् वह बोला- ‘महाराणा! मारवाड़ को गोड़वाड़ आपकी चाकरी करने के बदले में मिली थी। राठौड़ांे की सेना उसी दिन से आपकी चाकरी में है। रही रतनसिंह की बात, तो उससे जब कभी भी उचित अवसर होगा, निबट लिया जायेगा।’
-‘और गोड़वाड़!’ महाराणा ने फिर प्रश्न किया।
इससे पहले कि मरुधरानाथ कुछ कहे, खींवसर के ठाकुर जोरावरसिंह करमसोत ने महाराजा विजयसिंह की ओर से उत्तर दिया -‘महाराजा विजयसिंह हमारे स्वामी अवश्य हैं, पर धरती देना इनके अधिकार की बात नहीं है। जब तक पचास हजार राठौड़ों के धड़ पर सिर हैं, मेवाड़ को गोड़वाड नहीं दी जावेगी।’
इसके बाद अड़सी कुछ न बोला।
-‘अच्छा जय बालकृष्णजी की।’ मरुधरानाथ ने अपने घोड़े को ऐंड़ लगाई।
कुछ ही देर में घोड़े की टापों से उड़ी धूल वातावरण में फैल गई। टापों की ठोकरों से पहाड़ी पत्थर इधर-उधर बिखरने लगे। महाराणा अड़सी अपने प्रतापी बहनोई के घोड़े की टापों से उठी धूल के गुबार को देखता रहा। अपने इस हठी बहनोई के विरुद्ध वह कर भी क्या सकता था!
खण्डनी
सत्रह सौ बहत्तर का साल मरुधरानाथ के लिये बड़ा उपहार लेकर आया। आधे मारवाड़ के महाराजा रामसिंह की अचानक मृत्यु हो गई। महाराजा विजयसिंह उसे पहले मेड़ता से और बाद में परबतसर से खदेड़ चुका था फिर भी जयपुर नरेश माधोसिंह ने उसे पेट पालने के लिये सांभर की जागीर दे रखी थी। माधोसिंह के बाद जयपुर के नये राजा पृथ्वीसिंह ने भी सांभर महाराज रामसिंह के पास रहने दी। जैसे ही यह खबर आई कि महाराजा रामसिंह नहीं रहा, वैसे ही मरुधरपति की ओर से नांवा में नियुक्त हाकिम मनरूप उपाध्याय सांभर पर चढ़ बैठा। इस प्रकार सांभर अनायास ही मरुधरानाथ की गोद में आ गिरी।
अपदस्थ महाराजा रामसिंह निःसंतान मरा था इसलिये उसकी मृत्यु के बाद मारवाड़ की राज्यगद्दी पर दावा करने वाला कोई न रहा। महाराजा रामसिंह की समस्त जागीरें महाराजा विजयसिंह को स्वतः प्राप्त हो गईं। अब वह मारवाड़ रियासत का निर्विवाद शासक हो गया। महाराजा विजयसिंह ने अपने ड्यौढ़ीदार आईदान को जयपुर भेजकर अपने चचेरे भाई रामसिंह का ब्रह्मभोज करवाया।
इसी साल मरुधरानाथ ने खींवसर के ठाकुर जोरावरसिंह करमसोत को अपना मुख्य सलाहकार बनाया। जबसे उसने आसोप गाँव में ठाकुरों के षड़यंत्र की जानकारी देकर महाराजा के प्राणों की रक्षा की थी तभी से महाराजा को उसके वचनों पर पूरा विश्वास था। जोरावरसिंह सुलझा हुआ आदमी था। वह जानता था कि ठाकुरों से लड़कर महाराजा अपने राज्य को स्थायित्व नहीं दे पायेगा। इसलिये उसने महाराजा से वचन लिया कि महाराजा सामन्तों के अधिकार उन्हें वापस दे देगा तथा भड़ैत सेना को भंग कर देगा।
जोरावरसिंह ने महाराजा से वचन तो ले लिये किंतु मन ही मन वह जानता था कि महाराजा इन वचनों का पालन नहीं करेगा। महाराजा ये वचन तो उस समय भी सरदारों को दे चुका था जब वह अपने सरदारों को मनाने के लिये मण्डोर में उनके पीछे गया था। वह युग ही ऐसा था जिसमें वचन दिये और लिये तो जाते थे किंतु उनका पालन नहीं किया जाता था। यदि महाराजा अपने दिये वचन का पालन करता तो वह फिर से ठाकुरों, सरदारों, जागीरदारों और सामंतों की सेनाओं के आश्रित हो जाता जबकि इन सबकी विश्वसनीयता तो मुगलों के सम्पर्क में रहने के कारण पहले ही बुरी तरह से नष्ट हो चुकी थी। मराठों के सम्पर्क के बाद तो ठाकुर राजा के प्रति किंचित् भी विश्वसनीय नहीं रह गये थे। यहाँ तक कि रानियों, राजकुमारों और राजकुमारियों तक की विश्वसनीयता संदिग्ध हो चुकी थी। ऐसी स्थिति में राजा, ठाकुरों पर भरोसा करके अपनी उस भडै़त सेना को कैसे भंग कर सकता था जिसका गठन धायभाई जगन्नाथ ने अपनी माँ से पचास हजार रुपये उधार लेकर किया था और वह उधार आज तक नहीं चुक पाया था।
गोड़वाड़ पहले से ही मारवाड़ के पेट में समा चुकी थी, अब सांभर भी चली आई। इन जागीरों की आय से महाराजा की आर्थिक स्थिति में तेजी से सुधार हुआ। वह सरलता से भड़ैत सेना का वेतन चुका रहा था इसलिये भड़ैत सेना पूर्ववत् बनी रही। मारवाड़ द्वारा पहले गोड़वाड़ और फिर सांभर दबा लिये जाने से महादजी सिन्धिया के कान खड़े हुए। उसने महाराजा को लिखा कि पिछले सालों की बकाया खण्डनी अविलम्ब भिजवाये, गोड़वाड़ परगने की चौथाई आमदनी दे तथा सांभर के बदले भी भेंट पूजा चढ़ाये, तभी राठौड़ सुख से राज्य भोग सकते हैं है अन्यथा नहीं।
इस बार महाराजा विजयसिंह ने महादजी सिन्धिया की चेतावनी पर कोई ध्यान नहीं दिया। इस पर महादजी सिन्धिया ने मराठा छावनी में नियुक्त मारवाड़ रियासत के वकील कृपाराम जोशी को बुलाकर उसे खरी-खोटी सुनाई कि यदि खण्डनी नहीं चुका सकते तो मेरे डेरे छोड़कर जोधपुर चले जाओ और वहाँ पहुँचकर मेरी सेनाओं के आने की प्रतीक्षा करो। जोशी ने मरुधरानाथ को सूचित किया कि यदि खण्डनी की रकम नहीं भेजी तो महादजी निश्चित रूप से मारवाड़ पर आक्रमण करेगा।
कृपाराम जोशी का पत्र पाकर महाराजा ने नगद राशि जुटाने के लिये जागीरदारों से पम्परागत रूप से गायों की चराई पर लिया जाने वाला घासमारी कर माफ करके रेखबाब नामक नया कर लगाने का निर्णय लिया और राज्य के सरदारों को बुलाकर आदेश दिया कि महादजी को विगत तीन वर्षों की खण्डनी का भुगतान किया जाना है। तीन साल अकाल में गुजारे हैं तथा तुम लोगों को अपनी जागीरों का आनन्द लेते हुए कई साल हो गये हैं। प्रजा भी अस्त-व्यस्त हो रही है। हमें नगद राशि की आवश्यकता है इसलिये हमने घासमारी के स्थान पर रेखबाब लगाया है। आप सब सरदार उसी के अनुसार नगद राशि सरकार में जमा करवा दें।
सरदारों ने पुराने कर के स्थान पर नये कर को लागू करने के आदेश को स्वीकार कर लिया किंतु राशि जमा करवाने में समय लगने वाला था। इसलिये महाराजा ने महादजी को दो लाख रुपये की हुण्डियां तथा शेष एक लाख रुपये की पूर्ति के लिये साढ़े तीन सौ ऊँट, आठ जोड़ी बैल, छः घोड़े, पचास हजार के जवाहरात, मुलतानी छीटें, पशमीना तथा अस्त्र-शस्त्र आदि सामग्री भिजवाई।
जब यह राशि जोधपुर से अस्सी कोस दूर परबतसर पहुँची तो महाराजा का मन फिर बदल गया। उसने यह सामग्री परबतसर में ही रोक ली। इस पर महादजी सिन्धिया और भी बिगड़ गया। उसने मरहठा छावनी के प्रमुख अधिकारी आबा चिटनीस के माध्यम से जोधपुर राज्य के वकील कृपाराम जोशी को एक बार फिर धमकाया कि या तो खण्डनी की राशि मंगवा लो जिससे तुम्हारी इज्जत बनी रहे या फिर डेरे छोड़कर चले जाओ।
कृपाराम जोशी ने महाराजा को पत्र लिखकर सूचित किया कि क्यों मेरी इज्जत के कांकरे करवा रहे हैं? अब आपको किस बात की प्रतीक्षा है? मरहठा सरदार खण्डनी लिये बिना नहीं मानेंगे। मारवाड़ की भलाई इसी में है कि इन्हें खण्डनी भेज दी जाये अन्यथा इनकी टिड्डी सेनाएँ आगरे से मारवाड़ तक पहुँचने में अधिक समय नहीं लगायेंगी।
अब तक महाराजा के पास सरदारों द्वारा जमा करवाई गई रेखबाब से काफी राशि एकत्रित हो गई थी। सरदारों ने एक हजार रुपये की आय पर पचास रुपये की दर से रेखबाब जमा करवाया था। सामान्य लोगों से एक हल के पीछे दस रुपये लिये गये थे। इस प्रकार राजकोष में लगभग चौदह लाख रुपये एकत्रित हो चुके थे। अतः महाराजा ने खण्डनी की पूरी राशि महादजी को भिजवा दी। साथ ही यह भी लिख दिया कि भविष्य में जहाँ भी महादजी की सेना के डेरे होंगे, खण्डनी की राशि वहीं भेज दी जायेगी। हमारे वकील से इज्जत से पेश आया जाये।